Wednesday, March 17, 2010

रामदेव का राजनीतिक प्राणायाम

अब बाबा रामदेव अपने असली रंग में दिख रहे हैं. बात करते हैं तो बार बार उत्साह को बनाये रखने की सलाह देते हैं. जयपुर, दिल्ली और जोधपुर में तीन सभाओं के दौरान उन्होंने कमोबेश एक बात ही कही कि राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन को आगे बढ़ाना है और "चोर" "लुटेरे" "डाकुओं" से देश को मुक्त कराना है. यह विशेषण बाबा रामदेव किसके लिए इस्तेमाल कर रहे हैं यह बताने की जरूरत नहीं है. ये चोर लुटेरे और डाकू कोई और नहीं बल्कि इस देश के वही नेता हैं जिन्हें अपने योग शिविरों में बुलाकर रामदेव अपना कद बढ़ाते रहे हैं.

मैंने कहा बाबा रामदेव अब अपने असली रंग में हैं. थोड़ा वक्त लगा लेकिन वे आखिरकार देश को सुधारने और देश का स्वाभिमान जगाने निकल ही पड़े. आस्था टीवी चैनल पर कनखल के आश्रम से जब उन्होंने पहली बार अपने योग शिविर का लाईव प्रसारण शुरू किया था संयोग ही है कि वह लाईव प्रसारण भी मैंने टीवी पर देखा था. कुल जमा दो तीन सौ लोग होते थे. कुछ दिनों तक बाबा ने यहीं से योग शिविर चलाया लेकिन अचानक ही जैसे योग क्रांति ने जन्म ले लिया. इसलिए बाबा ने बड़े शिविर आयोजित करने शुरू कर दिये. खुद बाबा रामदेव जिस योग के चमत्कार से ठीक हुए थे उसी योग को उन्होंने लोगों में बांटना शुरू किया. अच्छी बात थी. इसमें भला किसी को क्या ऐतराज? सात आठ साल में ही बाबा रामदेव एक किंवदन्ती बन गये. बकौल बाबा रामदेव आज देश में एक लाख से अधिक योग कक्षाएं दिव्य योग ट्रस्ट के तत्वावधान में चलती हैं. खुद बाबा रामदेव का दावा है कि उनके शिविरों में अब तक तीन करोड़ लोग आ चुके हैं. फिर न जाने कितने करोड़ लोगों ने टीवी पर देखकर योग सीखा है. वे सब बाबा के ऋणी हैं. जिसने भी बाबा के तीन प्राणायाम किये वह बाबा का मुरीद हो गया.

बाबा के प्राणायाम विधि और दवाईयों से भले ही लोगों को शांति मिली हो लेकिन खुद बाबा रामदेव अशांत ही बने रहे. उन्हें एक पीड़ा हमेशा थी. राजनीति की दशा खराब है. राजनीति नहीं सुधरेगी तो देश का कल्याण नहीं होगा. राजनीति के प्रति बाबा रामदेव की यह चिंता अनायास भी नहीं थी. एक तो वे आर्यसमाजी हैं और ऊपर से राजनीति के सर्वाधिक सक्रिय केन्द्र हरिद्वार में निवास करते थे जहां मठों और आश्रमों में धर्म से ज्यादा राजनीति की चिंता होती है. आर्यसमाज की शिक्षा दीक्षा ऐसी है जो राजनीतिक पहल की मनाही नहीं करता है. आमतौर पर हिन्दू समाज में धर्म और राजनीति का घालमेल नहीं है. यहां कोई योगी सन्यासी राजनीति से दूर रहना अपना परम कर्तव्य समझता है. जिन लोगों ने इस परम कर्तव्य को नकारने की कोशिश की उनका हश्र बहुत अच्छा नहीं हुआ है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण काशी के करपात्री जी महराज थे जिन्होंने रामराज्य परिषद की स्थापना की और चुनाव में उम्मीदवार भी मैदान में उतारे थे. उनकी पार्टी और उम्मीदवारों का क्या हश्र हुआ आप खुद रिसर्च कर लीजिए. लेकिन आर्यसमाज में राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी सन्यासी के लिए नैतिक और वैधानिक रूप से निषेध नहीं है. स्वामी अग्निवेश इसके जीते जागते प्रमाण हैं. आर्य समाज के प्रभाव शून्य होने की खुद मैंने जितनी खोजबीन की है उसमें मुझे एक कारण वहां का अति राजनीतिक माहौल नजर आया है. संपत्ति और संपत्ति से पैदा हुई राजनीति ने आर्य समाज जैसे उग्र सुधारवादी हिन्दू आंदोलन को मटियामेट कर दिया. बाबा रामदेव उसी आर्यसमाज के दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं.  इसलिए उनका राजनीति के जरिए समाज को बदलने की समझ स्वाभाविक है.

आज जिसे हम राजनीति कहते और समझते हैं वह पूरी तरह से अभारतीय है. भारत में राजनीति का लक्ष्य धर्म है. धर्म अर्थात अनुशासन. यूरोप की राजनीति प्रशासन को पैदा करती है. अगर कभी भारतीय राजनीति का अस्तित्व स्थापित होगा तो वह प्रशासन नहीं बल्कि अनुशासन को प्रस्थापित करेगा. इसलिए धर्म को समझनेवाले कभी इस राजनीति के आस पास नहीं आते. वे जानते हैं कि वे धर्म की बात करके बड़ी राजनीति कर रहे हैं जो इस राजनीति की तरह क्षणभंगुर नहीं है. लेकिन बाबा रामदेव को इतना धैर्य कहां कि वे यह समझने की कोशिश भी करें कि धर्म ही शास्वत राजनीति है जो वंशानुगत रूप से भारतीय समाज में चली आ रही है. बाबा रामदेव तो किंगमेकर बनना चाहते हैं. जिसके लिए वे इसी राजनीति को अपना हथियार बनाकर तुरंत इस्तेमाल कर लेना चाहते हैं.

लेकिन क्या राजनीति समाज को बदलने का माध्यम हो सकती है? इस राजनीति में तो कदापि संभव नहीं है. इसलिए नहीं कि यह राजनीति कोई व्यवस्था ही नहीं है. यह व्यवस्था तो है लेकिन इस व्यवस्था की जड़ें यूरोप में जाती हैं. अगर इसकी जड़ें भारत में होती तो किसी सन्यासी द्वारा किये जा रहे प्रयास का प्रभाव होता. ऐसा इसलिए क्योंकि सन्यासी जिन प्रतीकों का प्रयोग करता है वह वर्तमान राजनीति में पारिभाषिक रूप से परिलक्षित होता तो नागरिक को आंकलन करने में आसानी होती कि राजनीति कहां है और बाबा क्या कह रहे हैं. अगर करपात्री जी नहीं समझ पाये तो यही कि वे आखिरकार उस दायरे में अपने आप को लेकर जा रहे हैं जिसका रिंग मास्टर यूरोप की सोच है. अब या तो वे यूरोप की सोच को स्वीकार कर लेते (जो कि किसी सन्यासी के लिए संभव ही नहीं है) या फिर उस राजनीति को बदल देते. दोनों ही बातें उनके क्या किसी धर्माचार्य के लिए संभव नहीं है. राजनीति के खेल निराले हैं. भारत धर्मभीरू देश अवश्य है लेकिन यहां धर्म और राजनीति का घालमेल आम भारतीय के जेहन में बिल्कुल नहीं है. धर्म नितांत श्रद्धा का विषय है और उस श्रद्धा स्थान पर वह राजनीति को कदापि आने नहीं देगा. जो लोग इस व्यवस्था को लोकतंत्र कहकर इसे भारतीय भूमि में धंसाकर प्यास बुझाना चाहते हैं, वे भी इस मर्म को नहीं समझना चाहते कि यह लोकतंत्र का माडल ही अभारतीय है जिसे इस देश का आम जनमानस कभी स्वीकार नहीं करेगा. उसके लिए यह लोकतंत्र एक ऐसा तमाशा है जिसे देखना होता है, ताली बजाना होता है और धूल को झाड़-पोछकर उठ जाना होता है.
बाबा रामदेव योग के द्वारा भारतीय आम जनमानस के धर्मस्थान पर विराजमान हो गये थे. हालांकि इसके काबिल वे कभी नहीं थे लेकिन संभवत: उनका भाग्य प्रबल है और भाग्य से भी अधिक उनके पीछे पैसा सबल है. इसलिए कुछ भाग्य और कुछ पैसे के घालमेल ने उन्हें लोगों ने योगऋषि के पदवी पर आसीन कर दिया. उनका यह उत्थान लोगों के लिए भले ही आशा की किरण बनकर दिखा हो लेिकन खुद उनके लिए यह एक सीढ़ी से अधिक कुछ नहीं था. वे राजनीति में हस्तक्षेप चाहते थे. इसलिए योग शिविरों में राजनीतिज्ञों को भरपूर आने का मौका दिया. उनके पास लंबे चौड़े निमंत्रण पत्र भेजकर बुलाया जाता. सहारा समूह के नजदीकी रामदेव लालू मुलायम के भी प्रभाव में आये. खुद बाबा रामदेव भी हरियाणा के यादव हैं इसलिए आकर्षण का एक पहलू यह भी बना. लालू ने तो समय समय पर बाबा रामदेव का जमकर नगाड़ा भी बजाया. फिर भी बाबा की बेचैनी बनी रही. इसलिए पिछले आमचुनाव से ठीक पहले उन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की शुरूआत कर दी. योजना तो सीधे चुनाव मैदान में उतरने की थी लेकिन कम समय के कारण तैयारी नहीं हो पायी. बाबा रामदेव ने जोधपुर में आयोजित सभा में स्वीकार भी किया कि अधूरी तैयारी थी इसलिए चुनाव में नहीं उतरे. लेकिन अब दो साल वे पूरी तैयारी करने में लगाएंगे. उनका एक ही संदेश है कि सदस्य बनाईये और प्रशिक्षण दीजिए. लक्ष्य है कि दो करोड़ सक्रिय सदस्य बन जाएं. इसके लिए वे देश में 11 लाख योग कक्षाओं के नियमित आयोजन का आवाहन कर रहे हैं.

स्वाभिमान अभियान के इन कार्यक्रमों में उनकी हां में हां मिलाने के लिए उपकृत भक्तों का हुजूम भी दिख रहा है. बाबा उत्साहित हैं. उनका उत्साह छिपाये नहीं छिप रहा है. गदगद बाबा रामदेव कहते हैं कि कोई समयसीमा तो नहीं है लेकिन उनका राजनीतिक आधार अगले दो साल में बनकर तैयार हो जाएगा. यानी, 2014 के चुनाव में बाबा रामदेव अपने प्रत्याशी मैदान में उतार सकेंगे. और उनके वही प्रत्याशी संसद में पहुंचकर उन सभी चोर डकैतों को बाहर फेंक देंगे जो देश को लूट रहे हैं. आप भी सोचते होंगे कि बाबा रामदेव ऐसी ऊटपटांग बातें क्यों सोच रहे हैं? तो उसका एक बड़ा कारण हाल में ही उनके एक साथी बने राजीव दीक्षित हैं. राजीव दीक्षित अच्छे वक्ता हैं और आजादी बचाओ आंदोलन से जुड़े रहे हैं. लेकिन राजीव दीक्षित के ऊपर आरोप लगता रहा है कि वे जितने अच्छे वक्ता है उतने ही बड़े झुट्ठे हैं. अपनी बात कहने के लिए वे जमकर गलत तथ्यों का सहारा लेते हैं और अपनी बात को साबित कर देते हैं. पिछले कुछ समय से यही राजीव दीक्षित बाबा रामदेव के साथ हैं. राजीव दीक्षित भी देश बदलने का सपना लेकर घूमनेवाले प्राणी हैं. इसलिए अब वे बाबा रामदेव को अर्जुन बनाकर कुरुक्षेत्र का यह युद्ध जीतना चाहते हैं. लेकिन बाबा रामदेव और राजीव दीक्षित दोनों ही वही गलती कर रहे हैं जो करपात्री जी महराज ने की थी. जिन राजनीतिज्ञों को हटाने के लिए बाबा रामदेव घूमघूमकर प्रवचन दे रहे हैं उन्हीं राजनीतिज्ञों की बदौलत वे अब तक अपने योग शिविरों को चमकाते रहे हैं और दवाओं पर सेल टैक्स बचाते रहे हैं. राजनीतिज्ञों को यह अहसास होते देर नहीं लगेगा कि बाबा रामदेव अब उनके भूक्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं. ऐसे में वे बाबा रामदेव के साथ क्या व्यवहार करेंगे यह तो समय बताएगा लेकिन बाबा रामदेव ने अपने काम से पैदा हुए यश की कब्र खोदने के लिए पहला फावड़ा चला दिया है. वह दिन दूर नहीं जब बाबा रामदेव, उनका योग और उनकी राजनीति तीनों ही आर्य समाज की तरह होते हुए भी निष्प्रभावी हो जाएंगे. प्राणायाम के चमत्कार में बाबा रामदेव के प्रभाव में आये सामान्य जन कब अपनी रातनीतिक समझ को बाबा रामदेव से ऊपर रख देंगे इसका पता बाबा रामदेव को भी नहीं चलेगा. यही इस देश का लोक मानस है.

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