नौ नवंबर को राष्ट्रपति भवन में जब मोदी सरकार
का दूसरा मंत्रिमंडल विस्तार हो रहा था, तो राज्य मंत्री मंत्री के रूप
में एक साध्वी ने भी शपथ लिया था। साध्वी का नाम पुकारा गया और साध्वी ने
शपथ लेना शुरू किया तो शपथ के दौरान ही राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को टोंकना
पड़ा। टोंकना इसलिए पड़ा क्योंकि शपथग्रहण में उन्होंने एक शब्द इस्तेमाल
कर लिया था जो शपथ पत्र में होता ही नहीं। केन्द्रीय मंत्रि संघ (गणराज्य)
के मंत्री के रूप में शपथ लेता है लेकिन साध्वी निरंजन ज्योति ने ''भारत के
मंत्री'' के रूप में शपथ लेना शुरू किया तो सतर्क प्रणव मुखर्जी ने टोंक
दिया। साध्वी ने तत्काल अपनी गलती सुधार ली और 'संघ के मंत्री' के रूप में
साध्वी ज्योति निरंजन ने शपथ ले ली।
अगले दिन विभागों का बंटवारा किया गया और उन्हें खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय में राम विलास पासवान के साथ राज्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया। अभी महीनाभर भी नहीं बीता था कि साध्वी निरंजन ज्योति की जबान से फिर से एक ऐसा शब्द बाहर आ गया जिसके कारण मीडिया और संसद ने हंगामा खड़ कर दिया। दिल्ली में बीजेपी की एक सभा को संबोधित करते हुए एक जुमला गढ़ दिया जिसमें एक तरफ रामजादे थे तो दूसरी तरफ हरामजादे। हंगामा हुआ और आखिरकार साध्वी निरंजन ज्योति को संसद में माफी मांगनी पड़ी। उन्होंने माफी मांगी और अपने शब्द वापस ले लिये। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अफसोस जताया और अपने साथी मंत्रियों से संभलकर बोलने की अपील भी की। जाहिर है, इसके बाद विवाद खत्म हो जानी चाहिए था लेकिन खत्म हुआ नहीं।
साध्वी निरंजन ज्योति के बहाने सरकार के खिलाफ कांग्रेस की सक्रियता अस्वाभाविक नहीं है। माफी से आगे अब वह साध्वी निरंजन ज्योति का इस्तीफा मांग रही है। संसद चल रही हो तो विपक्ष ऐसे मौके छोड़ता नहीं है जब सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सके। इसलिए कांग्रेस या विपक्षी दलों की यह सक्रियता अनायास नहीं है लेकिन जिस तरह से सभ्रांत मीडिया और उसके पिछलग्गू स्वामी निरंजन ज्योति के पीछे पड़े हैं वह थोड़ा चौंकानेवाला है। निरंजन ज्योति के बयान को सबसे पहले इसी संभ्रांत अंग्रेजी मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज बनाकर चलाया। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि संभ्रांत वर्ग का मीडिया जानबूझकर एक विवाद को तूल दे रहा है जैसा कि वह अपने इतिहास में देता आया है?
हमारा इलिट मीडिया या इलिट मीडिया पर निर्भर समाज शायद ऐसे लोगों को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है जो निचले तबके और वर्ग से उठकर उस जगह पहुंच जाते हैं जहां यह इलिट क्लास खड़ा होता है। बहुजन समाज की नेता मायावती हों कि उसी बहुजन समाज से आनेवाले साध्वी निरंजन ज्योति। हम इनकी "असभ्यता" पर प्रहार करने में जरा भी देर नहीं लगाते। साध्वी निरंजन ज्योति के मामले में मीडिया ने भी कुछ वैसा ही व्यवहार किया है जैसा कि वह मायावती के मामले में करता आया है। इसे संयोग ही कहेंगे कि न सिर्फ दोनों उत्तर प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों से संबंध रखती हैं बल्कि दोनों की राजनीति और भाषा शैली भी बिल्कुल एक जैसी है। अगर मायावती दलित बहुजन का प्रतिनिधित्व करती हैं तो साध्वी निरंजन ज्योति भी साध्वी बनकर उसी बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसे इलिट और प्रगतिशील लोग हिन्दू समाज का हिस्सा ही नहीं मानते हैं।
साध्वी निरंजन ज्योति इलाहाबाद के पास फतेहपुर सीट से पहली बार सांसद चुनकर आयी हैं। वे दलित निषाद समाज से ताल्लुक रखती हैं और अब तक रामकथा करती थीं। किसी कथावाचक का भाषा संस्कार वैसे भी इतना भद्दा नहीं हो सकता जैसा कि रोजमर्रा की जिन्दगी में लोग इस्तेमाल करते हैं। फिर भी निरंजन ज्योति के मामले में यह सवाल इसलिए खड़ा होता है क्योंकि वे केन्द्रीय मंत्री हैं और उन्होंने जो कुछ बोला वह कैमरे में कैद है। ''साला'' और 'हरामजादा' शब्द कोई ऐसा शब्द नहीं है जो बहुत ''विशिष्ट'' मौकों पर ही बोला जाता है। सामान्य से गुस्से में भी एक आदमी के मुंह से यह शब्द वैसे ही निकल जाता है जैसे कि किसी अंग्रेजी दा के मुंह से ''शिट'' या ''बुलशिट'' शब्दों का उच्चारण किया जाता है। अगर अंग्रेजी का ''फक'' ''शिट'' और ''बुलशिट'' सामान्य बोलचाल का हिस्सा है तो ''चूतिया, साला और हरामजादा'' डेरोगेटरी वर्ड कैसे हो गये?
फर्क शब्दों का नहीं है, फर्क है मानसिकता का। अंग्रेजी शिक्षित समाज अपने हिसाब से समाज को देखता और परिभाषित करता है। इसलिए ऐसे लोगों के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा, बोली और गाली सब एक बराबर होते हैं। वे यह मानते हैं कि बोलने के लिए अंग्रेजी के अलावा जो कुछ है वह जहालत है। इसलिए साध्वी निरंजन ज्योति के शब्द पर यह हंगामा उस शब्द से ज्यादा उस मानसिकता का हमला है जो भारत के 98 फीसदी समाज को सिरे से जाहिल ही मानता है। साध्वी निरंजन ज्योति ने जो बोला वह असंसदीय हो सकता है, अमार्यदित हो सकता है, लेकिन इतना भी आपत्तिजनक नहीं है जितना अंग्रेजी मीडिया बताने में लगा है।
साध्वी निरंजन ज्योति ने जो कुछ कहा वह जानबूझकर नहीं कहा। एक तुकबंदी बनाने में उनके भाषण का तुक बिगड़ गया और बात का बतंगड़ हो गया। फिर भी उन्होंने माफी मांग ली है। अपने शब्द वापस ले लिये हैं। इसके बाद अब अगर इलिट मीडिया और इलिट मीडिया पर निर्भर समाज उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ता है तो यह भी एक किस्म का अतिवाद ही समझा जाएगा। अच्छा हो कि इस माफीनामे के बाद इलिट क्लास अब एक दलित महिला का दमन और उत्पीड़न बंद कर दे।
पूरे लेख मे जातिवाद मानशिकता की बू आ रही है और यही न्ही समझ आ रहा की साध्वी का बचाव करना चाह रहा है या उनकी जाति पर कटाच्छ कर रहा है. ये डर की भाषा है.
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