सरकारें झूठ बोलती हैं इसमें कोई नई बात नहीं
है लेकिन कोई सरकार संसद में खड़े होकर झूठ बोल दे यह नहीं होता। ऐसा इसलिए
क्योंकि जब कोई सरकारी नुमाइंदा संसद में किसी सवाल का जवाब दे रहा होता
है तो वह जवाब सिर्फ किसी सांसद द्वारा पूछे गये सवाल का जवाब नहीं होता।
वह जवाब पूरे देश को दिया जाता है। उस देश को जिस देश के लोगों ने सरकार
होने का प्रमाणपत्र दिया है। लेकिन न जाने कैसे इस सरकार के एक मंत्री ने
यह काम कर दिया। इसी संसद सत्र में भरी संसद में खड़े होकर प्रधानमंत्री
कार्यालय के प्रभारी मंत्री जीतेन्द्र सिंह ने कहा था कि सीसैट के मुद्दे
पर सरकार बच्चों के भविष्य का पूरा ख्याल रखेगी। एक तीन सदस्यीय समिति काम
कर रही है। जल्द ही रिपोर्ट आ जाएगी और हम फैसला ले लेंगे। जो सिविल सेवा
की परीक्षा देने की तैयारी कर रहे हैं उन्हें घबराने की जरूरत नहीं है। वे
अपनी तैयारी करें।
जिस वक्त मंत्री महोदय संसद में यह वक्तव्य दे रहे थे, उस वक्त दिल्ली के ही मुखर्जी नगर इलाके में दो छात्रों का आमरण अनशन चल रहा था। इन दोनों छात्रों के समर्थन में वहां नियमित तौर पर धरना प्रदर्शन और सभाओं का सिलसिला जारी था। उनके धरने के नौंवे दिन जब सरकार ने संसद में यह ऐलान किया तो उम्मीद बंधी थी कि मोदी सरकार संजीदा है और जरूर भाषाई परीक्षण में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करेगी। उम्मीद इसलिए भी बंधी थी कि बीजेपी की नयी सरकार के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके गृहमंत्री हिन्दी की हिमायत कर चुके थे। लेकिन लगता है दो महीने के भीतर ही सरकार की नौकरशाही इन दोनों पर इतना हावी हो गयी कि अपनी हिमायत को उन्होंने खुद रद्दी की टोकरी में डाल दिया और यूपीएससी ने सिविल सर्विसेज के लिए प्राथमिक परीक्षाओं की तारीख घोषित कर दी। बस फिर क्या था, छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा और इस बार गुस्सा दिल्ली विश्वविद्यालय से सटे मुखर्जी नगर तक सीमित नहीं रहा बल्कि संसद भवन के दरवाजे तक पहुंच गया।
शुक्रवार को संसद भवन पहुंचने से पहले गुरूवार की शाम मुखर्जी नगर इलाके में ही सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्रों ने अपना विरोध दर्ज कराया था और एक पुलिस वाहन में आग तक लगा दी थी। रिंग रोड जाम कर दिया था और सरकार पर धोखा देने का आरोप लगा रहे थे। उनका आरोप निराधार नहीं है। अगर संसद भवन में खड़े होकर प्रधानमंत्री कार्यालय के जिम्मेदार मंत्री यह कह रहे थे कि वे विचार करेंगे और कमेटी की रिपोर्ट का इंताजर कर रहे हैं, तब यूपीएससी ने सिविल सर्विसेज के लिए प्राथमिक परीक्षाओं की तारीख (24 अगस्त) के लिए एडमिट कार्ड कैसे जारी करना शुरू कर दिया? जाहिर है, या तो सरकार की मंशा साफ नहीं है या फिर यह सरकार भी पूरी तरह से नौकरशाहों के दबाव में काम कर रही है। वही नौकरशाह जो भारत में गोरे अंग्रेजी की काली परछाई बनकर अब तक मौजूद हैं।
इसी परछाई ने अंग्रेजी का रोना रोकर 2011 में सीसैट प्रणाली लागू की थी। नौकरशाही का निर्माण करनेवाली संस्था यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन का कहना है कि क्योंकि सरकारी काम काज के दौरान एक अधिकारी को अंग्रेजी की बहुत सख्त जरूरत पड़ती है इसलिए उनकी तरफ से यह अंग्रेजी जाननेवाली परीक्षा को पास करना जरूरी किया गया है। क्यों किसी नौकरशाह को अंग्रेजी जानना जरूरी होना चाहिए? क्या सिर्फ इसलिए कि वह नौकरशाह है और इस पदवी को पाकर उसे सत्ता के भद्रलोक का संचालन करना है इसलिए उसके लिए जरूरी है कि वह विलायती बनकर ही यहां तक पहुंचे? विलायती बनाने का यह काम अभी तक लाल बहादुर शास्त्री अकादमी के जिम्मे था। नौकरशाह होने की तृस्तरीय परीक्षा पास कर लेने के बाद मसूरी की लाल बहादुर शास्त्री अकादमी एक पढ़े लिखे नौजवान को नौकरशाह बनाने की ट्रेनिंग देती है। ट्रेनिंग के बाद एक नौकरशाह क्या हो जाता है वह इस देश की नौकरशाही को देखकर समझा जा सकता है। लेकिन शायद, हमारी नौकरशाही को यह फिल्टर भी कमजोर नजर आ रहा था इसलिए उन्होंने प्राथमिक परीक्षा में ही अंग्रेजी की अनिवार्यता लाद दी ताकि ग्रामीण और भाषाई पृष्ठभूमि से आनेवाले बच्चों के लिए सिविल सर्विसेज का दरवाजा बहुत शुरूआती स्तर पर ही बंद हो जाए।
संसद में हुए सवाल जवाब के आंकड़े देखें तो यह बात और सही लगती है कि यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन किस तरह के लोगों को नौकरशाह बनाना चाहती है। 2011 में सीसैट लागू होने से पहले हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा में सफलता की दर 35.6 प्रतिशत थी लेकिन 2011 में सीसैट लागू होते ही सफलता की यह दर घटकर 15.3 प्रतिशत रह गई। जबकि अंग्रेजी माध्यम से सिविल सेवा की परीक्षा देनेवाले विद्यार्थियों की सफलता दर में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। 2008 में जहां अंग्रेजी माध्यम के छात्रों की सफलता की दर 50.57 प्रतिशत थी वहीं 2011 में सीसैट लागू होने के बाद आज सफलता की यह दर बढ़कर 82 प्रतिशत हो गई है। क्या यह साफ साफ संकेत नहीं है कि सीसैट के जरिए यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन देश के पब्लिक की कौन सी सेवा करना चाहता है? और असर केवल हिन्दीभाषी छात्रों पर हो रहा है ऐसा भी नहीं है। भाषाई माध्यम से नौकरशाही की इस परीक्षा को पास करने की चाहत रखनेवाले अन्य भाषा भाषी छात्रों का भी उत्साह ठंडा हुआ है। तमिल और तेलगु में जिस तरह से छात्र परीक्षा देने के लिए आगे आ रहे थे, 2011 में सीसैट प्रणाली लागू होते ही वे सिफर हो गये।
अच्छा हो कि भारत सरकार इस मामले में किसी रिपोर्ट का बहाना बनाने की बजाय सीधे सीधे फैसला दे और वही व्यवस्था लागू करे जो 2011 से पहले लागू थी। इस देश के नौकरशाह पहले ही देश को कम गुमराह नहीं कर रहे हैं कि उनकी किसी सिफारिश को जरूरत मानकर मान ही लिया जाए। प्राथमिक परीक्षा में अंग्रेजी की यह अनिवार्यता नौकरशाहों की बहुत सोची समझी भाषाई साजिश है भारत के खिलाफ। उस भारत के खिलाफ जो बड़ी हसरत से देश की सर्वोच्च प्रशासनिक व्यवस्था में पहुंचकर देश के कुछ करना चाहता है। जब कोई नौजवान सिविल सर्विसेज की तैयारी शुरू करता है तो यह उसके लिए कैरियर का ही बेहतर विकल्प नहीं होता बल्कि देश के लिए उसके मन में कुछ ख्वाब होते हैं। निश्चित तौर पर ये ख्वाब उसने अंग्रेजी में नहीं देखे होते और न ही वह अंग्रेजी में पूरा करना चाहता है। वह जिस भाषा भाषी समाज का हिस्सा होता है अगर उसका प्रतिनिधित्व हमारे देश की शीर्ष नौकरशाही में नहीं दिखेगा तो कहां दिखेगा? रही बात अंग्रेजी की तो इस देश में अच्छे अंग्रेजी के अनुवादक तैयार करने की परीक्षा अलग से भी आयोजित की जा सकती है। उसके लिए नौकरशाही को अंग्रेजीभाषी बनाने की जरूरत कहां है?
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