Saturday, April 27, 2013

गुडिया के नाम पर गुंडागर्दी


उस वक्त जब आम आदमी पार्टी के नेता कार्यकर्ता न्याय की पुरजोर मांग के समर्थन में इंडिया गेट जा रहे थे तो उन्हीं लोंगो ने उनका उसी तरह से बहिष्कार कर दिया था जिस तरह से अरविन्द केजरीवाल के समर्थक जंतर मंतर पर नेताओं का किया करते थे। शायद वह आंदोलन निरा जनता का ऐसा आंदोलन था जिसमें आम आदमी के अग्रदूत अरविन्द केजरीवाल के लिए भी कोई जगह नहीं थी। इस बार ऐसा नहीं है। इस बार अगर अरविन्द केजरीवाल की पार्टी न रही होती तो यह मामला ही सामने नहीं आता। एक अबोध बच्ची के साथ जो दरिंदगी अंजाम दी गई, वह अगर सामने आई तो सिर्फ और सिर्फ आम आदमी पार्टी की सक्रियता की वजह से सामने आई। लेकिन इस बार जनता का यह गुस्सा और आक्रोश वैसा नहीं है जैसा दिसंबर में था। इस बार गुस्से में राजनीति भी शामिल है और कूटनीति भी।

जिस अबोध बच्ची के साथ जघन्य अपराध को अंजाम दिया गया उस पर पुलिस की कार्रवाई का तरीका निरा आपत्तिजनक है। इसलिए यहां इस बात के लिए निश्चित रूप से 'आप' की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने एक पीड़ित बच्ची के लिए पहल किया और मीडिया के जरिए शासन प्रशासन को चौकस किया। लेकिन इसके बाद से आंदोलनवादी पार्टी ने जो आंदोलन शुरू किया वह निरा राजनीति के अलावा कुछ नहीं है। आखिर क्या कारण है कि एक अबोध बच्ची के पक्ष में शुरू हुआ आंदोलन दिल्ली पुलिस के मुखिया नीरज कुमार के विपक्ष में तब्दील कर दिया गया? दयानंद अस्पताल में प्रदर्शनकारी लड़कियों पर एसीपी का थप्पड़ और झिड़की निश्चित रूप से चौंकानेवाली थी लेकिन क्या किसी ने यह ध्यान दिया कि उन दोनों लड़कियों में से एक उस एसीपी का बिल्ला नोचने के लिए हाथ आगे बढ़ा रही थी, जिसका हाथ तेजी से एसीपी ने झटक दिया जिसे कैमरा कंपनी ने ऐसे प्रचारित किया मानों गाज गिर पड़ी हो? क्यों भाई कैमरा कंपनीवालों? पुलिस की यह ज्यादती क्या उससे भी बड़ी ज्यादती है आम आदमी के जीवन में रोजमर्रा की जिंदगी का किस्सा है? तय मानिए, अगर कैमरा कंपनी दिल्ली पुलिस का दामन बचाने पर आती तो इसी थप्पड़ और झिड़की को 'कानून व्यवस्था का हिस्सा' बता देती और आप पार्टी वाले माफी मांगते घूम रहे होते।

लेकिन मामला ऐसा था कि दिल्ली पुलिस की भी बोलती बंद थी। एक अबोध बच्ची के साथ जघन्य कुकर्म किया गया और उसके बाद एफआईआर दर्ज कराने पीड़ित परिवार पहुंचा तो उसे दो हजार रूपये देकर चुप करने के लिए कहा जाए तो कौन होगा जिसका सिर गर्व से ऊंचा उठ जाएगा? दिल्ली पुलिस की यही चूक उसके लिए भारी पड़ गई। जिस आफत से बचने के लिए रिश्वत लेनेवाली दिल्ली पुलिस ने दो हजार की रिश्वत ऑफर की थी, वह आफत न केवल उसके गले पड़ गई बल्कि एक बार फिर देश दहल गया। गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक ने अफसोस जाहिर किया। टीबी कंपनी वाले इस मामले को तूल देना ही चाहते थे। उन्होंने तूल दे भी दिया। वहां तक सब अच्छा किया। लेकिन खून मुंह में लग जाए तो जीभ बार बार स्वाद चखना चाहती है। 16 दिसंबर की घटना के बाद विरोध का जैसा ज्वार दिल्ली में उमड़ा था, एक बार फिर वैसे ही ज्वार का उभार पैदा करने की कोशिश की गई। रिपोर्टिंग की निर्भया पैटर्न पर सब घटनाओं को अंजाम देने की कोशिश की गई। आप पार्टीवालों की सक्रियता ने बाप पार्टी वालों (भाजपा) को भी सक्रिय कर दिया और माताएं तथा बहनों को दिल्ली की बच्चियों की चिंता सताने लगी तो वे भी सोनिया के घर तक जा पहुंची। इधर आप पार्टीवाले तो देर शाम तक आक्रामक थे ही, लेकिन शुक्र है जनमानस का, उसने इस बार 'आप' का साथ नहीं दिया।

ऐसा लगता है, मीडिया के लिए भी बलात्कार एक भरा पुरा बाजार बनकर सामने आया है। दिसंबर के बाद से ही जिस तरह से मीडिया पूरी तरह से  "बलात्कारी" हो गया है उससे अब तो वह महिला भी घबराने लगी हैं, जिसके नाम पर ऐसे काम को अंजाम दिया जा रहा है। दुर्भाग्य से मीडिया का यह बलात प्रचार बलात्कार को कम करने की बजाय उन्हें बढ़ाने का काम करते हैं। फिर भी, बड़े ही छद्म रूप से कॉरपोरेट मीडिया और राजनीतिक दल इस सामाजिक बुराई को कानून व्यवस्था की तात्कालिक समस्या साबित करके अपनी अपनी मुनाफाखोरी में लगे हुए हैं।
ऐसा शायद इसलिए क्योंकि इस बार जो कुछ हो रहा है वह आंदोलन नहीं बल्कि राजनीति है। एक अबोध बच्ची के छत विक्षत शरीर पर की जानेवाली राजनीति। अगर आप पार्टी की सक्रियता की वजह से खजूरी में पुलिस सक्रिय हुई, बच्ची का इलाज सुनिश्चित हुआ, आरोपी पकड़ा गया तो उसी की वजह से यह मामला राजनीतिक रंग में भी रंग दिया गया। शुरूआत वहीं से हुई जहां से यह मामला उठा। जिस इलाके में यह वीभत्स घटना हुई है वह इन दिनों आम आदमी पार्टी की सक्रियता का बड़ा केन्द्र है। पूर्वी दिल्ली के वे इलाके जहां सचमुच इस देश का दिल्ली पार बसता है, वहां अरविन्द केजरीवाल के पार्टी की खासी सक्रियता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता इस वक्त दिल्ली के इन इलाकों में दूसरे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं से ज्यादा सहज उपलब्ध हैं। इसलिए उन तक यह सूचना पहुंची और बुधवार से लेकर शुक्रवार के बीच हंगामा इतना बड़ा हो गया कि दिल्ली पुलिस के होश उड़ गये। और केवल दिल्ली पुलिस के ही क्यों, देश का आला सत्ता प्रतिष्ठान के भी होश ठिकाने आ गये। इसलिए एक बार फिर आप पार्टी को ही इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने इस मामले में अपनी सक्रियता की वजह से सख्त कार्रवाई को अंजाम दिलवाया लेकिन जब आरोपी पकड़ा भी गया, बच्ची का इलाज भी सुनिश्चित हो गया उसके बाद भी शनिवार और रविवार को आप पार्टी ने इसे राजनीतिक रंग देते हुए दिल्ली पुलिस के कमिश्नर को हटाने का अभियान चला दिया।

समझ में नहीं आता कि ऐसा हर बार अरविन्द केजरीवाल के साथ ही क्यों होता है कि उनके आंदोलन से सीधे या परोक्ष रूप से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को ही फायदा पहुंचने लगता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। भले ही संदीप दीक्षित को खजूरी में खड़ा न होने दिया गया हो जिस क्षेत्र के वे इस वक्त सांसद है, इसके बाद भी उन्होंने अरविन्द केजरीवाल और उनकी आप पार्टी की उस मांग का समर्थन कर दिया जो दिल्ली के पुलिस कमिश्नर को हटाने से जुड़ी थी। अब जब कभी पुलिस कमिश्नर को हटाने की राजनीतिक मांग की जाती है तब उसका मतलब कानून व्यवस्था बिल्कुल नहीं होता है। मतलब क्या होता इसे उस समय की स्थिति परिस्थिति को देखकर भी अंदाज लगाया जा सकता है। वैसे भी दिल्ली पुलिस से दिल्ली सरकार का छत्तीस का आंकड़ा है और जिस मुख्यमंत्री मां के संदीप दीक्षित बेटे हैं उस मुख्यमंत्री की कुर्सी और दिल्ली में पुलिस कमिश्नर की कुर्सी कमोबेश बराबर ही होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली पुलिस आज भी दिल्ली सरकार के तहत नहीं बल्कि गृह मंत्रालय के तहत काम करती है। इसलिए कोई भी मुख्यमंत्री यही चाहेगा कि कम से कम कमिश्नर उसकी पसंद का होना चाहिए। शीला दीक्षित वैसे तो इस समय खुद ही अस्पताल में इलाज करा रही है, लेकिन कम से कम उन्हें इस बात की राहत जरूर पहुंची होगी कि कमिश्नर को काम पर लगाने का जोरदार दबाव उनके राजनीतिक शत्रुओं ने कर दिया है।

क्या बलात्कार को सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या मानना चाहिए? कायदे से सोचें तो यह कानून व्यवस्था से ज्यादा सामाजिक समस्या है। कानून बनाकर भय पैदा करके जो लोग बलात्कार जैसी 'मानवीय समस्या' को हल करना चाहते हैं वे दिन में तारे गिन रहे हैं। यह कड़वी सच्चाई कोई स्वीकार करे या न करे लेकिन गुड़िया के साथ जिस जघन्य अपराध को अंजाम दिया गया अगर उसे सिर्फ कानून व्यवस्था की समस्या मान लिया गया तो उसे ठीक करने के लिए आधी दिल्ली को दरबदर करना होगा। बदलाव कहीं और करना है लेकिन जहां करना है उस ओर न तो कोई राजनीतिक दल सचेत करता है और न ही मीडिया कभी उसका जिक्र छेड़ता है। वह शायद इसलिए क्योंकि सामाजिक बदलाव की वह पहल इन दोनों के लिए घाटे का सौदा है।शनिवार और रविवार को इस बात की कोशिश जारी रही कि 'गुड़िया' के नाम पर जो गुण्डागर्दी शुरू की गई है वह जारी रहे लेकिन इस बार न जाने ऐसा क्या हुआ कि इस आंदोलन को जन समर्थन हासिल न हो सका। शायद आम आदमी ने भांप लिया था कि आम आदमीवाले राजनीति कर रहे हैं, इसलिए कम से कम वह उमड़कर आगे आगे नहीं दौड़ा। लेकिन जो दौड़े उनकी दौड़ किसी घुड़दौड़ से कम नहीं थी। आम आदमी पार्टीवाले हों या कि कैमरा कंपनी। तीन दिनों तक उन्होंने अबोध बच्ची के क्षत विक्षत शरीर पर गुस्से की कोई परत चढ़ाने से बाज नहीं आये। सारा फायदा अकेले 'आप'को न हो जाए इसलिए दिल्ली भाजपा ने भी बहती गंगा में हाथ धो लिया। सुषमा स्वराज ने तो सीधे सीधे फांसी की मांग कर डाली। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में तत्काल फांसी दे दी जानी चाहिए, तो उनकी पार्टी की महिलाओं ने सोनिया गांधी का घर घेरकर अपना जोश और आक्रोश दोनों दिखा दिया। कांग्रेस के आला नेताओं ने भी बयानबाजी करके जो कुछ श्रेय हासिल हो सकता था, उसे लेने से गुरेज नहीं किया।

लेकिन गुड़िया के नाम पर गुण्डागर्दी करनेवालों में अकेले आप पार्टी या भाजपा ही नहीं है। मीडिया ने भी कम गुण्डागर्दी नहीं की है। भारत में टीवी मीडिया के विकसित होते बाजार के लिए 16 दिसंबर की घटना के बाद बलात्कार नया औजार बनकर हाथ लग गया है। बाजार के इस विकसित होते बाजार में अगर कुछ जघन्य हो जाए तो बाजार के लिए सोने पर सुहागा होता है। इसलिए अचानक ही हमारी पूरी कैमरा कंपनी बलात्कार को लेकर बेहद संवेदनशील हो गई है। बाजार की संवेदनशीलता हमेशा उसके मुनाफे से जुड़ी होती है। मीडिया के बाजार में ऐसी मुनाफाखोरी की संभावना संकटकाल में सबसे अधिक होती है। जितना गहरा संकट होता है मीडिया का बाजार उतना ही विकसित और मुनाफेवाला बनता चला जाता है। ऐसे में अगर कोई संकट कुछ दिनों के लिए स्थाई बनाया जा सकता है तो मीडिया ऐसा करने से पीछे नहीं रहती। ऐसा इसलिए नहीं कि उसे समाज या सरोकार की चिंता सताए जा रही है। ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि इससे मुनाफाखोरी को बड़ी मदद मिलती है। ऐसे में अगर राजनीतिक दल मुनाफाखोर मीडिया का साथ दे दें तो सोने पर सुहागा हो जाता है। उस दफा 'दामिनी' (इंडिया टीवी) ने वह काम किया था, इस दफा 'गुड़िया' (आज तक) ने बाजी मार ली है। अगर ऐसा नहीं होता तो तय मानिए कि गुड़िया के नाम पर ऐसी गुण्डागर्दी कभी न की जाती।

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