जो लोग हरिद्वार नहीं गये हैं, वहां किसी मठ
मंदिर में कुछ वक्त नहीं गुजारा है उनके लिए यह समझना थोड़ा मुश्किल होगा
कि हमारे युग की यह धर्मनगरी दुनिया के लिए भले ही धर्म नगरी हो लेकिन खुद
अपने लिए राजनीति क्षेत्र है। एक ऐसा राजनीति क्षेत्र, जहां के मठों,
मंदिरों, अखाड़ों में दिल्ली से ज्यादा राजनीतिक जीवंतता दिखाई देगी। अगर
आप हरिद्वार के मठों, मंदिरों, धर्मशालाओं में रुकें और संतों महंतों से
थोड़ा करीब से संपर्क में आयें तो आप यह देखकर दंग रह सकते हैं कि राजनीति
दिल्ली के लुटियन्स जोन से ज्यादा जीवंतता के साथ हरिद्वार के मठों और
मंदिरों में पाई जाती है।
राजनीति, देश, समाज की ऐसी गहन चिंता तो उन नेताओं के दरबार में भी देखने को नहीं मिलती जितनी यहां धर्मगुरुओं की धर्म सभाओं में दिखाई देती है। इसलिए शुक्रवार को अगर हरिद्वार में बाबा रामदेव के सजाये मंच पर मोदी की मौजूदगी में तथाकथित धर्मगुरुओं ने झुक झुककर मोदी को सलाम किया और उनसे राष्ट्र पीड़ा हरने का आह्वान किया तो यह उन संतों की सचमुच स्वाभाविक वेदना है। कथा, पूजा का अपना अपना कारोबार पूरा करने के बाद ये संत महंत इसी तरह की राजनीतिक चिंताओं में डूबे रहते हैं। शुक्रवार को वे गंगा तट पर मोदी की मौजूदगी में कुछ ज्यादा ही गहरे उतर गये।
करीब साढ़े पांच घण्टे चले इस कार्यक्रम में थोक में तथाकथित संतों ने "राष्ट्रसंत" रामदेव और ''राष्ट्रनायक'' नरेन्द्र मोदी का गुणानुवाद किया। इन संतों महंतों में ज्यादातर वे संत महंत थे, जो स्वयंभू हैं। यानी अपनी कूबत पर अपनी संतई कायम की है। ऐसा भी नहीं है कि जो शंकराचार्य, रामानन्दाचार्य द्वारा संगठित किये गये सनातन व्यवस्था के संत हैं उनका स्वभाव इन स्वयंभू संतों से कुछ अलग है, फर्क सिर्फ इतना है कि ये स्वयंभू संत भी जब मान्यता प्राप्त करना होता है तो उन्हीं संतों की शरण में जाते हैं जिन्हें शंकराचार्य या फिर रामानंदाचार्य द्वारा निर्मित की गई व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। भारत में हिन्दू धर्म की संरचना इतनी जटिल है इसे भेद पाना तो दूर समझना ही बहुत दूभर है। इस विविधता का लाभ हमारी नेता जमात खूब उठाती है। अभी हाल में ही कुंभ में विश्व हिन्दू परिषद की जो धर्म संसद हुई उसमें नरेन्द्र मोदी को बुलाया गया था। वे नहीं गये। हरिद्वार में नरेन्द्र मोदी ने भले ही कह दिया हो कि प्रयाग के कुंभ में न जाने का प्रायश्चित उन्होंने यहां हरिद्वार आकर कर लिया। लेकिन नरेन्द्र मोदी भी शायद यह नहीं जानते हैं कि प्रयाग की उस धर्म संसद में जो संत इकट्ठा दिखाई दे रहे थे उनमें ज्यादातर वे थे, जिनसे हरिद्वार में इकट्ठा होनेवाले संत अपने होने का प्रमाणपत्र हासिल करते हैं। यानी विश्व हिन्दू परिषद की धर्म संसद में ज्यादातर शंकराचार्य व्यवस्था के संत महंत उपस्थित थे जिसमें बाबा रामदेव जैसे लोगों को कोई जगह नहीं होती है। बाबा रामदेव और विश्व हिन्दू परिषद वैसे भी एक दूसरे को चाटकर फेंक चुके हैं।
फिर भी न विश्व हिन्दू परिषद अपनी धर्म वाली राजनीति से पीछे लौटी है और न बाबा रामदेव अपनी राजनीति वाले धर्म से अलग हुए हैं। दोनों ही अपने अपने रास्तों पर अपने अपने तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद की धर्म वाली संसद को सीधे तौर संघ परिवार का समर्थन रहता है जबकि बाबा रामदेव से तल्ख संबंधों के बाद कभी संघीय राजनीति के हाशिये पर फेंके जा चुके गोविन्दाचार्य और उमा भारती ने उन पर डोरे डालने की कोशिश की थी। लेकिन धागे ऐसे उलझे कि उमा भारती वापस भाजपा में पहुंच गई और गोविन्दाचार्य अपने गाय गोरू बचाने के सनातन कर्म की ओर पुन: अग्रसर हो गये। विश्व हिन्दू परिषद, उमा गोविन्द ही अकेले ऐसे नाम नहीं है जो रामदेव की चमत्कारिक शक्तियों के वशीभूत होकर उनका दोहन करने उनके करीब पहुंचे थे। लालकृष्ण आडवाणी को भी जब काले धन के मुद्दे पर लाल होने का मौका मिला तो उन्होंने जिन लोगों को इस लड़ाई में लड़ाका घोषित किया था उसमें एक बाबा रामदेव भी थे। लेकिन रामदेव तो ठहरे रामदेव। मुद्दा और मुद्दई दोनों खुद बन गये तो आडवाणी और रामदेव में दूरी बढ़ गई। दिल्ली के रामलीला मैदान में जब रामदेव पर कांग्रेसी कहर टूटा था तो राजघाट पर धरना देनेवालों में लालकृष्ण आडवाणी भी थे। उसके बाद से न रामदेव ने आडवाणी का नाम लिया और न ही आडवाणी ने रामदेव के समर्थन में कुछ कहा। इसी घटना के बाद से आश्चर्यजनक रूप से बाबा रामदेव नरेन्द्र मोदी के प्रशंसक हो गये। 2010 तक जो बाबा रामदेव आडवाणी को महानतम नेता बोलते थे, 2011 में उन्हीं रामदेव को नरेन्द्र मोदी में भावी प्रधानमंत्री के गुण नजर आने लगे। शुक्रवार को हरिद्वार योगपीठ में जो कुछ बोला जा रहा था, वह उसी का चरम था।
इसी अप्रैल की 7-8 तारीख को रामदेव के इसी पतंजलि योगपीठ में एक गुप्त बैठक हुई थी जिसमें रामदेव के राजनीतिक दल की रूपरेखा पर विचार विमर्श किया गया। इस बैठक में कुछ टायर्ड समाजसेवियों, रिटायर्ड अधिकारियों के अलावा भारतीय मूल के वे विदेशी भी शामिल हुए थे जिन्हें अपनी चिंता पूरी कर लेने के बाद अब देश की चिंता सताने लगी है। इस बैठक में तय किया गया है कि रामदेव की अगुवाई में भारत स्वाभिमान पार्टी के तहत आगामी लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा। रामदेव ने 300 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है। अगर रामदेव का लक्ष्य खुद तीन सौ सीटें जीतकर दिल्ली में दखल देने का है तो भला वे मोदी नाम की माला क्यों जप रहे हैं?
और इस चरम की कोई सीमा नहीं थी। हालांकि इस दफा आडवाणी और रामदेव के मध्यस्थ चिदानंद मुनि मंच पर नजर नहीं आये लेकिन बहुत सारे ऐसे संत महंत वहां नजर आ रहे थे जिनकी छवि भाजपा समर्थक की है। शांति कुंज के संचालक प्रणव पांड्या हों कि विजय कौशल महाराज, उमा भारती के गुरू हों कि साध्वी ऋतंभरा के गुरू। ऐसे कई संत महंत उस मंच पर मौजूद थे जिन्हें निश्चित रूप से रामदेव बुलाने में इसलिए कामयाब हो गये होंगे क्योंकि नरेन्द्र मोदी आनेवाले थे। रामदेव वैसे भी 'डबल क्रास' करने में मास्टर हैं। संतों समाज जुए एक व्यक्ति का दावा है कि ये सारे लोग वहां इसलिए नजर आ रहे थे क्योकि बाबा रामदेव ने सबको यही संदेश भिजवाया था कि नरेन्द्र मोदी वहां आ रहे हैं, जबकि नरेन्द्र मोदी को यह मैसेज गया था कि सारे संत वहां इकट्ठा हो रहे हैं। कोई भी राजनेता हो, ऐसा मौका भला क्यों छोड़ना चाहेगा? और बात हिन्दुत्ववादी नरेन्द्र मोदी की हो, तो मौका चूकना वैसे भी शोभा नहीं देता। रमेशभाई ओझा जैसे कथाकार अपनी कथाओं में पहले से ही नरेन्द्र मोदी का गुणगान कर रहे हैं इसलिए ऐसे मौकों पर उनके मौजूद रहने से कोई बहुत आश्चर्य नहीं होता है। मोरारी बापू की मौजूदगी जरूर चौंकानेवाली है लेकिन सिर्फ मोरारी बापू ही यहां एकमात्र ऐसे संत मौजूद थे जिन्होंने सीधे सीधे मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री नहीं बनाया। बहुत संयमित शब्दों में बार बार उन्होंने यही कहा कि "राष्ट्र तय करेगा।" हालांकि इसके बावजूद वे यह कहने से अपने आपको रोक नहीं पाये कि प्रशासन के लिए मोदी एक अनुष्ठान की तरह काम करते हैं। फिर भी, राष्ट्र ही तय करेगा।
मोरारी बापू के अलावा बाकी जिन संतों को मौका मिला मोदी प्रशंसा में हर हर गंगे करने से अपने आपको रोक नहीं आये। रमेशभाई ओझा जैसे कथाकारों से जो उम्मीद हो सकती थी, उन्होंने वही बोला कि नर नहीं बल्कि अब कुर्सी नरेन्द्र को खोज रही है। जरूर उनकी अच्छी भावना का सम्मान किया जाना चाहिए। लेकिन अगर आपको उस कार्यक्रम की पूरी रिकार्डिंग देखने का मौका मिले तो जरूर देखिए। अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी ने कपाल भांति से कपाल भ्रांति दूर करने का जो तर्क दिया वह उनके भाषण से पहले संतों में ही जमकर दिखाई दिया। पूरे कार्यक्रम के दौरान दो बातें बहुत भ्रमात्मक रूप से साफ दिखाई दीं। पहली बात, वे संत जो वैसे तो बाबा रामदेव को संत भी मानने को तैयार नहीं होते वे वहां रामदेव को संसार का सबसे महान संत घोषित कर रहे थे, और दूसरा मोदी की मौजूदगी में मानों सब जबर्दस्ती अपना आशिर्वाद देकर मोदी की गुड बुक में अपना भी नाम लिखवा लेना चाहते थे। ऐसे लोभ से वे प्रणव पांड्या भी अपने आपको नहीं बचा पाये जिनकी सांसारिक क्षमता गायत्री परिवार के कारण रामदेव से कई गुणा अधिक है। इन तथाकथित संतों का यह राजनीतिक गुणानुवाद भले ही मोदी ने अपने भाषण में यह कहकर खारिज कर दिया हो उन्हें संतों से ऐसा आशिर्वाद नहीं चाहिए जो कुर्सी से जुड़ा हो लेकिन जो भी संत उठा उसने नरेन्द्र मोदी को कुर्सी मिलने का ही आशिर्वाद दिया। इसलिए संतों की इस सभा में नरेन्द्र मोदी ने क्या कहा, इसकी समीक्षा से ज्यादा जरूरी उन संतों की समीक्षा जरूरी जान पड़ती है जो कुर्सी की राजनीति में दिन रात डूबे रहते हैं।
कम से कम यहां तीन ऐसे संत मौजूद थे जिनकी चिंता इन दिनों परम सत्ता से ज्यादा राज सत्ता है। इसमें एक हैं विजय कौशल, दूसरे हैं प्रणव पांड्या और तीसरे हैं बाबा रामदेव। विजय कौशल और प्रणव पांड्या तो बार बार व्यवस्था बदलने की पहल भी करते रहते हैं। दिल्ली, लखनऊ, वृंदावन और हरिद्वार में अक्सर बैठकें होती रहती हैं जिसमें व्यवस्था परिवर्तन जैसे विचारों के जरिए राजनीतिक पहल की दबी कुचली इच्छा प्रकट होती रहती है। विजय कौशल खुद संघ पृष्ठभूमि से आते हैं, लेकिन अब उनकी कोशिश है कि संघवालों को किनारे रखकर कोई राजनीतिक मंच पैदा किया जाए। उनके इस पवित्र काम में प्रणव पांड्या अक्सर शामिल दिखाई देते हैं। लेकिन रामदेव तो उन दोनों से भी मीलों आगे हैं। उन्होंने सिर्फ अपना राजनीतिक दल बनाने की ही घोषणा नहीं की है बल्कि उसके लिए जोर शोर से तैयारियां भी शुरू कर दी हैं। इसी अप्रैल के 7-8 तारीख को रामदेव के उसी पतंजलि योगपीठ में एक गुप्त बैठक हुई थी जिसमें राजनीतिक दल की रूपरेखा पर विचार विमर्श किया गया। इस बैठक में कुछ टायर्ड समाजसेवियों, रिटायर्ड अधिकारियों के अलावा भारतीय मूल के वे विदेशी भी शामिल हुए थे जिन्हें अपनी चिंता पूरी कर लेने के बाद अब देश की चिंता सताने लगी है। इस बैठक में तय किया गया है कि भारत स्वाभिमान पार्टी के तहत आगामी लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा और 300 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
रामदेव के इस 300 सीटों वाले लक्ष्य को हासिल करने के लिए अपने सच झूठ के बल पर न केवल बाबा रामदेव खुद जोर शोर से मैदान में उतरनेवाले हैं बल्कि वे आर्य समाज से लेकर देवबंद तक को शामिल करने की तैयारी कर रहे हैं। ऐसे में स्वाभाविक सवाल यह उठता है कि अगर बाबा रामदेव खुद अपना राजनीतिक दल बनाकर लोकसभा की 300 सीटें जीतना चाहते हैं तो फिर मोदी को प्रधानमंत्री होने की मुहिम चलाकर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या नरेन्द्र मोदी अब भाजपा की बजाय रामदेव के स्वाभिमान पार्टी की तरफ से पीएम पद की दावेदारी करेंगे? फिर, मोदी को भी इतना तो मालूम ही है कि संघ परिवार बाबा रामदेव से खफा रहता है और अब रामदेव भी संघ परिवार के करीब जाने से कतराते हैं। तो फिर, मोदी रामदेव के जरिए प्रयाग का प्रायश्चित हरिद्वार में कर रहे हैं या फिर रामदेव मोदी के जरिए दिल्ली का दरवाजा खोल रहे हैं? दोनों का अतीत "इस्तेमाल करो और आगे बढ़ो" वाला है। अबकी देखना सिर्फ यह होगा कि यह काम पहले कौन करके बाजी मार लेता है?