Saturday, March 20, 2021

राष्ट्रवादी सरकार की राष्ट्रविरोधी औद्योगिक नीति

जगदीश शेट्टार इस समय कर्नाटक के उद्योग मंत्री है। कर्नाटक लौटने से पहले वे भाजपा के इकोनॉमिक थिंक टैंक का हिस्सा हुआ करते थे और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में भाजपा की राष्ट्रवादी आर्थिक नीतियां तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करते थे। कर्नाटक की राजनीतिक उथल पुथल के बीच वो एक दशक पहले कर्नाटक लौट गये और वहां उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए अपना दावा ठोंका। बीएस येदियुरप्पा और अनंत कुमार के अलावा जगदीश शेट्टार भी अपना दावा मुख्यमंत्री के रूप में करते रहे लेकिन हाल में  जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बने तो उन्हें उद्योगमंत्री के पद से संतोष करना पड़ा। इन्हीं जगदीश शेट्टार के मंत्रालय ने हाल में ही नयी औद्योगिक नीति की घोषणा की है। इस नयी औद्योगिक नीति के तहत उद्योग मंत्री शेट्टार ने नयी औद्योगिक नीति 2030 में अनिवार्य किया है कि अब कर्नाटक में जो भी पूंजी निवेश आयेगा उसमें 70 से 100 रोजगार प्रतिशत स्थानीय लोगों को देना होगा। ग्रुप सी और डी में तो पूरा का पूरा रोजगार सिर्फ स्थानीय लोगों के लिए ही आरक्षित होगा। 

जगदीश शेट्टार ने ऐसा प्रावधान करके स्थानीय कन्नाडिगा को खुश करने का प्रयास किया है। येद्युरप्पा के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री सिद्धारमैया जिन दिनों मुख्यमंत्री थे उन्होंने कन्नाडिगा मूवमेन्ट को बढावा दिया था जिसके मूल में हिन्दी भाषा और हिन्दीभाषियों का विरोध था। उस समय भाजपा ने इस मामले में संभवत: इसलिए चुप्पी साध रखी थी क्योंकि वह न तो कन्नाडिगा समर्थक दिखना चाहती थी और न ही उत्तर भारतीय विरोधी। लेकिन सत्ता में आने के बाद उसका ये ताजा प्रावधान सीधे तौर पर उत्तर भारतीयों को दक्षिण में प्रवेश से रोकना है। सवाल है कि क्या किसी राष्ट्रवादी पार्टी के ऐसे प्रावधान को राष्ट्रहितैषी कहा जा सकता है? 

उत्तर दक्षिण के बीच लगातार आर्थिक असमानता बढती जा रही है। सघन औद्योगीकरण उत्तर की बजाय दक्षिण में ज्यादा हुआ है खासकर कथित आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होने के बाद। नब्बे से पहले की सरकारों ने आर्थिक समानता बनाये रखने के लिए उद्योगों को उत्तर दक्षिण के बीच बांट रखा था। समाजवाद के दौर में जब उद्योग धंधे लगाने का काम सरकार स्वयं करती थी तो उसने बहुत असमानता नहीं पैदा होने दिया। लेकिन नब्बे के बाद जैसे ही निजी पूंजी के लिए देश के दरवाजे खोले गये उत्तर और दक्षिण के बीच असमानता बढती चली गयी। इसके लिए उत्तर का राजनीतिक वर्ग सबसे ज्यादा जिम्मेदार है जिसने बदली परिस्थितियों में अपने भीतर कोई बदलाव नहीं किया। ट्रांसफर पोस्टिंग की राजनीति करनेवाले नेता समझ ही नहीं सके कि नव पूंजीवादी व्यवस्था में वही राज्य आगे रहेगा जहां उद्योग रहेंगे। नेताओं का यह समाजवादी हैंगओवर अब समस्या बन गया है क्योंकि दक्षिण में बंगलौर, हैदराबाद और चेन्नई नयी औद्योगिक राजधानी बनकर उभरे हैं। कार का कारोबार जिसे मारुति सुजुकी ने उत्तर भारत से शुरु किया था अब वह दक्षिण की तरफ जा चुका है। हाल में ही टेसला मोटर ने भी उत्तर और पश्चिम भारत को छोड़कर कर्नाटक में अपना निवेश करने का फैसला किया है। 

ऐसे माहौल में जब कंपनियां भारत के किसी भी राज्य में पूंजी निवेश के लिए स्वतंत्र हैं तब क्या ऐसी बाध्यता रखना जरूरी है कि नौकरी सिर्फ स्थानीय लोगों को ही मिलना चाहिए? अगर उत्तर के राज्य ये निर्णय लेना शुरु कर दें कि जिन राज्यों में हमारे राज्य के लोगों को नौकरी नहीं मिलती वहां के बने उत्पाद को हम अपने राज्य में नहीं बिकने देंगे तब क्या होगा? क्या इस टकराव से भारत के संघीय ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचेगा? नवपूंजीवादी व्यवस्था व्यापार में हर प्रकार के अवरोधों को दूर करने की ही प्रक्रिया था। ऐसे में कर्नाटक जैसे राज्यों द्वारा नये प्रकार का अवरोध पैदा करने से न सिर्फ भारत के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचेगा बल्कि भारत के उदारीकरण की उस पूरी प्रक्रिया को ही उलट देगा जिसकी शुरुआत 1991 में हुई थी। समय रहते केन्द्र सरकार को ऐसे मामलों में दखल देनी चाहिए जो न सिर्फ व्यापार विरोधी निर्णय हैं बल्कि भारत के संघीय ढांचे के साथ भी खिलवाड़ करते हैं। 

कोई भी नागरिक रोजी रोटी के लिए लंबी दूरी नहीं तय करना चाहता। सब अपने आसपास और परिवेश में ही रोजगार और अवसर तलाशते हैं, ऐसे में उत्तर के हिन्दीभाषी राज्यों को भी चाहिए कि वो अपने समाजवादी हैंगओवर से बाहर निकलें और उद्योग धंधों तथा कारोबार को महत्व देना शुरु करें। वरना उत्तर दक्षिण के बीच बढता आर्थिक असंतुलन भारत को असंतुलित कर देगा। 

फटी जीन्स वाले फटीचरों पर इतनी चर्चा क्यों?

आखिरकार उत्तराखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री तीर्थसिंह रावत ने माफी मांग लिया है। कुछ दिन पहले उन्होंने बयान दिया था कि न जाने वो कौन लोग हैं जो ऐसी फटी जीन्स पहनते हैं। उनके इस बयान के बाद देशभर के स्वनामधन्य 'फटी जीन्सवाले फटीचरों' में कोहराम मच गया। उन्होंने सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक इतना हंगामा किया कि तीरथ सिंह रावत को माफी मांगनी पड़ी। लेकिन सवाल ये है कि फटी जीन्स पर अपनी राय देकर तीरथ सिंह रावत ने कोई अपराध कर दिया था जो उन्हें माफी मांगनी पड़ी? 

रग्ड जीन्स बीते कुछ सालों से भारत में फैशन बन गया है। रग्ड जीन्स मतलब वह पैण्ट जो कई जगह से रगड़ रगड़ कर फटी हो। एक सीमित वर्ग के लड़कों और लड़कियों दोनों में इसका चलन है। ये रग्ड जीन्स या फिर फटी जीन्स के पीछे का मनोविज्ञान क्या है जिसकी चर्चा भर करने से तीरथ सिंह रावत फटी जीन्स समर्थक फटीचरों के निशाने पर आ गये? 

रग्ड जीन्स या फटी जीन्स के पीछे का मनोविज्ञान समझने के लिए पहले जीन्स की उत्पत्ति और इसका इतिहास समझना पड़ेगा। आज जो जीन्स यूथ आइकॉन बना हुआ है उसकी शुरुआत किसी शापिंग माल से नहीं हुई और न ही इसे शहर के लोगों ने पहनना शुरु किया। इसकी शुरुआत हुई यूरोप से। जीन्स एक मोटा कपड़ा होता है जिसे खेती में काम करनेवाले और कारखानों में काम करनेवाले लोग पहना करते थे। अठारहवीं सदी में पहली बार एक व्यापारी लेवी स्ट्रास ने अपने साथी कारोबारी जैकब डेविस के साथ मिलकर पेटेन्ट करवा लिया। इन्हीं लेवी स्ट्रास के नाम पर लेवीस या लिवाइस जीन्स आज भी मार्केट में लीडर की भूमिका में है। 

लेकिन यहां एक बात महत्वपूर्ण ये हैं कि लेवी स्ट्रास ने जिस कपड़े का आविष्कार करके उसका पेटेण्ट लिया था उसका सूत यूरोप में नहीं बल्कि भारत में बनता था। उसे डूंगरी डेनिम कहा जाता था। ये डूंगरी डेनिम मुंबई के पास डूंगरी गांव में निर्मित होता था। सत्रहवीं सदी से ये कपड़ा ब्रिटेन को निर्यात होता था और मिलों में कामगारों का ड्रेस इसी कपड़े से बनता था। जिन्होंने चार्ली चैप्लिन सीरीज देखी होगी उन्हें याद होगा कि कई एपिसोड में चार्ली चैपलिन डूंगरी ही पहनते थे। आज भी कामगारों के उस खास डिजाइन को डूंगरी ही कहा जाता है लेकिन अब उसे लड़कियों का परिधान कहा जाता है। 

कुल मिलाकर डेनिम की कहानी ये है कि ये मोटे सूत वाला कपड़ा था जिसे मजदूरों और कामगारों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। क्योंकि इसका पेटेण्ट एक व्यापारी के पास था इसलिए उसने एक ट्रेन्ड के रूप में दुनिया में इसका व्यापार शुरु किया। धीरे धीरे यूरोप से निकलकर जीन्स अमेरिका और एशिया में एक फैशन स्टेटमेन्ट के रूप में प्रवेश कर गया। रग्ड जीन्स उसी डेनिम जीन्स का विस्तार है। खेती और मेहनत मजूरी करते हुए जब मजदूर की जीन्स फट जाती है तब भी वह अपनी गरीबी के कारण उसे बदल नहीं पाता। जैसे भारत में किसान, मजदूर या गरीब आदमी का कपड़ा फट जाए तो वह अपने चीथड़ों को ही अपने शरीर पर ढोता रहता है। सवाल ये है कि चीथड़े फैशन हो सकते हैं? किसी एक की मजबूरी क्या दूसरे के लिए मनोरंजन बन जाती है? 

बाजारवाद की आंधी में शायद ऐसा ही होता है जहां हंसने गाने से लेकर रोने तक का बाजार तैयार किया जाता है। कपड़ों के मामले में रग्ड जीन्स के साथ भी कुछ ऐसा ही हो गया है। किसी गरीब की मजबूरी को अमीरों का फैशन बना दिया गया। रग्ड जीन्स अंग प्रदर्शन का जरिया बन गया है। वरना फटी जीन्स पहननेवाले कितने लोग हैं जो खेत और खलिहान में जाकर काम करते हैं? कितने लोग हैं जो मिलों फैक्ट्रियों में जाकर अपना खून पसीना बहाते हैं और इतना कम पैसा पाते हैं कि अपनी जीन्स फट जाने के बाद नयी जीन्स नहीं खरीद पाते हैं? उलटे अगर कोई ऐसा दिख जाए तो यही कॉरपोरेट कल्चर वाले लोग उसे फटीचर कहकर खारिज कर देंगे। अगर गरीब फटे कपड़े पहनकर फटीचर हो जाता है तो फिर अमीर फटी जीन्स पहनकर फटीचर क्यों नहीं कहलाएगा? 

कोई दो साल पहले ये मामला एक बार सोशल मीडिया पर उठा था जब मंहगे कपड़ों के ब्राण्ड जारा कलेक्शन ने फटे कपड़ों का एक रेन्ज जारी करते हुए उसे मुंबई के मॉल्स में लांच किया था। तब अभिनेता ऋषि कपूर ने मजाकिया अंदाज में लिखा था कि भीख का एक कटोरा और साथ में दे दिया जाए तो कलेक्शन पूरी हो जाए। उस समय कोई कपड़ावादी ऋषि कपूर के खिलाफ नहीं बोला तो अब तीरथ सिंह रावत ने ऐसा क्या कह दिया जो बाजार के बनाये मापदंडों पर जीनेवाले लोग ऐतराज जता रहे हैं? जो महिलाएं आज अपने कपड़े की आजादी का स्यापा कर रही हैं क्या वो इतना भी नहीं जानती हैं जीन्स पैण्ट पुरुषों का पहनावा है? इसका डिजाइन महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाया ही नहीं गया है। अगर उन्हें इतनी बेसिक बात भी नहीं पता है तो निश्चित रूप से ये लोग पूरी तरह से बाजार के नियंत्रण में है जिनके खाने पहनने और जिन्दगी जीने के सारे सिद्धांत बाजार तय करता है। और जिनकी अपनी कोई सोच समझ ही न हो, ऐसे फटीचरों पर चर्चा करना भी क्या मीडिया को शोभा देता है?

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