Friday, December 12, 2014

कमोव के साथ यह कैसा समझौता?

रुस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे पर भले ही मीडिया ने ज्यादा तवज्जो न दिया हो लेकिन रुस और भारत दोनों के लिए उनका यह दौरा बेहद अहम साबित हुआ। रूस के राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री के बीच एक उच्च स्तरीय शिखर वार्ता हुई जिसमें दोनों देशों के बीच जो समझौते हुए उसमें परमाणु उर्जा के लिए नये रियेक्टर बनाने के साथ साथ एक महत्वपूर्ण रक्षा समझौता भी हुआ जिसके तहत एक समझौता यह भी हुआ कि भारत रूस के एक हेलिकॉप्टर का चार सौ पीस मेक इन इंडिया करेगा. रूस के जिस हेलिकॉप्टर का भारत में मेक इन इंडिया किया जाएगा उसका नाम है केए 226टी।

भारत ने जिस कमोव कंपनी के साथ चार सौ हेलिकॉप्टर बनाने का समझौता किया है न वह कमोव कंपनी भारत के लिए नयी है और न ही उसके बनाये हेलिकॉप्टर। अस्सी के दशक से भारतीय नेवी कमोव के हेलिकॉप्टर इस्तेमाल कर रही है और एक दशक पहले कमोव-31 के एक नया बेड़ा भी भारतीय नेवी में शामिल हो चुका है। लेकिन अब तक नेवी के लिए होनेवाले समझौतों से अलग पहली बार कमोव के साथ जो समझौता हुआ है वह नेवी के साथ साथ थलसेना के इस्तेमाल के लिए हेलिकॉप्टर बनाने का भी है।

समझौते के तहत भारत अपने देश में 400 कमोव हेलिकॉप्टर निर्मित करेगा। रूस की कमोव कंपनी का यह एक सैन्य यूटिलिटी हेलिकॉप्टर है जिसके केबिन को जरूरत के हिसाब सैन्य परिवहन, एंबुलेन्स, वाहन परिवहन इत्यादि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसकी एक खासियत और है कि यह डबल रोटर कॉप्टर है। यानी भारी परिवहन जरूरतों और दुर्गम जगहों पर यह ज्यादा कुशलता से काम कर सकता है।

लेकिन इस दोहरी खूबी के बाद भी रूस की कमोव कंपनी के इस हेलिकॉप्टर का दुनिया में दूसरा कोई खरीदार नहीं है। कमोव के नेवल हेलिकॉप्टर रुस चीन और भारत में भी उड़ रहे हैं तो मिलिट्री वर्जन के इन हेलिकॉप्टरों का खरीदार रूस के अलावा कहीं नहीं है। शीतयुद्ध के पहले और उस दौरान भी सोवियत संघ ने ढेरों मिलिट्री हाजार्ड डिजाइन किये थे। दुनिया का सबसे बड़ा विमान हो कि सबसे ताकतवर तोप। सोवियत रूस ने एक से एक नायाब नमूने गढ़े थे जो शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद छाये शीतकाल में शीतघरों में बंद कर दिये गये। कारण क्या रहे पता नहीं लेकिन कमोव का यह 226टी मॉडल दुनिया के सैन्य बाजार में बिक नहीं पाया। कमोव का यह हेलिकॉप्टर भी शायद इसी शीतकाल का शिकार हो गया होगा।

1965 में कमोव कंपनी द्वारा विकसित किये कमोव केए226टी का दोहरा रोटर ही शायद इसके लिए दोहरा संकट बन गया। खुद कमोव कंपनी ने इस मॉडल को बहुत आगे नहीं बढ़ाया और फाइटर और अटैक कॉप्टरों के निर्माण और बिक्री पर ज्यादा जोर दिया। पहले इजरायल के साथ मिलकर सैन्य फाइटर कॉप्टर और अब चीन ने हाल में ही 74 अटैक हेलिकॉप्टरों के जिस जेड10 प्रोजेक्ट को पूरा किया है असल में वह कमोव का ही डिजाइन है जो संयुक्त रूप रूस की कमोव कंपनी और चीन ने विकसित किया है। पांचवी पीढ़ी का यह हेलिकॉप्टर हवा से हवा और हवा से जमीन पर जंग लड़ने के अलावा इलेक्ट्रानिक वार में भी कारगर हथियार है।

लेकिन अटैक और फाइटर कॉप्टर के लिए तरसते भारत ने कमोव से वह लेकर मेक इंडिया करने की कोशिश नहीं की। यह समझ पाना मुश्किल है कि जब भारत अमेरिका से फाइटर हेलिकॉप्टर अपाचे इस शर्त पर भी ले रहा है कि बोइंग कंपनी उसका मेक इन इंडिया लाइसेन्स नहीं देगी फिर हमारे रणनीतिकारों और सरकार ने सारा जोर उस केटेगरी के हेलिकॉप्टर पर क्यों दिया जिस केटेगरी के हेलिकॉप्टर हम खुद बना रहे हैं? इस समझौते से मल्टी यूटिलिटी कॉप्टर ध्रुव के प्रोडक्शन पर सीधा असर पड़ेगा, यह तय है। क्या भारत सरकार को यह बात पता नहीं है और अगर पता है तो हमने रूस से उस तकनीकि का हेलिकॉप्टर क्यों ले लिया जो पहले से ही प्रोड्यूज कर रहे हैं?

एनडीए सरकार ने आते ही कहा था कि वह रक्षा सौदों में पारदर्शिता लाने और देश के पैसे का सदुपयोग करने के लिए रक्षा उत्पादों को स्वदेश में निर्मित करने को बढ़ावा देगी। इस समझौते से ऐसा लगता है कि वह दे भी रही है लेकिन समझौते को देखकर शक होता है कि एक नये तरह का भ्रष्टाचार तो नहीं गढ़ा जा रहा है? जिस हेलिकॉप्टर को खुद कमोव कंपनी आउटडेटेड मान रही है उसे इतनी बड़ी तादात में भारत में बनाने का क्या मकसद हो सकता है? रूस के कमोव कंपनी की मजबूरी है कि अगर वह अपना उत्पाद नहीं बेंच पा रही है तो तकनीकि बेंच रही है। चीन के साथ अटैक हेलिकॉप्टर के सौदे में भी उसने यही किया है। लेकिन हमारी ऐसी कौन सी मजबूरी है कि हम अपने देश में चल रहे रक्षा उत्पादों के साथ समझौता करके विदेशी कंपनी की पुरानी पड़ चुकी तकनीकि को अपने यहां ले आये? कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस रक्षा सौदे से रूस की कमोव कंपनी को बेल आउट करने का कोई सरकारी प्रोग्राम तो नहीं बना दिया गया?

Sunday, December 7, 2014

बहुजन समाज की साध्वी

नौ नवंबर को राष्ट्रपति भवन में जब मोदी सरकार का दूसरा मंत्रिमंडल विस्तार हो रहा था, तो राज्य मंत्री मंत्री के रूप में एक साध्वी ने भी शपथ लिया था। साध्वी का नाम पुकारा गया और साध्वी ने शपथ लेना शुरू किया तो शपथ के दौरान ही राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को टोंकना पड़ा। टोंकना इसलिए पड़ा क्योंकि शपथग्रहण में उन्होंने एक शब्द इस्तेमाल कर लिया था जो शपथ पत्र में होता ही नहीं। केन्द्रीय मंत्रि संघ (गणराज्य) के मंत्री के रूप में शपथ लेता है लेकिन साध्वी निरंजन ज्योति ने ''भारत के मंत्री'' के रूप में शपथ लेना शुरू किया तो सतर्क प्रणव मुखर्जी ने टोंक दिया। साध्वी ने तत्काल अपनी गलती सुधार ली और 'संघ के मंत्री' के रूप में साध्वी ज्योति निरंजन ने शपथ ले ली।

अगले दिन विभागों का बंटवारा किया गया और उन्हें खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्रालय में राम विलास पासवान के साथ राज्य मंत्री का कार्यभार सौंपा गया। अभी महीनाभर भी नहीं बीता था कि साध्वी निरंजन ज्योति की जबान से फिर से एक ऐसा शब्द बाहर आ गया जिसके कारण मीडिया और संसद ने हंगामा खड़ कर दिया। दिल्ली में बीजेपी की एक सभा को संबोधित करते हुए एक जुमला गढ़ दिया जिसमें एक तरफ रामजादे थे तो दूसरी तरफ हरामजादे। हंगामा हुआ और आखिरकार साध्वी निरंजन ज्योति को संसद में माफी मांगनी पड़ी। उन्होंने माफी मांगी और अपने शब्द वापस ले लिये। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी अफसोस जताया और अपने साथी मंत्रियों से संभलकर बोलने की अपील भी की। जाहिर है, इसके बाद विवाद खत्म हो जानी चाहिए था लेकिन खत्म हुआ नहीं।

साध्वी निरंजन ज्योति के बहाने सरकार के खिलाफ कांग्रेस की सक्रियता अस्वाभाविक नहीं है। माफी से आगे अब वह साध्वी निरंजन ज्योति का इस्तीफा मांग रही है। संसद चल रही हो तो विपक्ष ऐसे मौके छोड़ता नहीं है जब सरकार को कटघरे में खड़ा किया जा सके। इसलिए कांग्रेस या विपक्षी दलों की यह सक्रियता अनायास नहीं है लेकिन जिस तरह से सभ्रांत मीडिया और उसके पिछलग्गू स्वामी निरंजन ज्योति के पीछे पड़े हैं वह थोड़ा चौंकानेवाला है। निरंजन ज्योति के बयान को सबसे पहले इसी संभ्रांत अंग्रेजी मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज बनाकर चलाया। तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि संभ्रांत वर्ग का मीडिया जानबूझकर एक विवाद को तूल दे रहा है जैसा कि वह अपने इतिहास में देता आया है?

हमारा इलिट मीडिया या इलिट मीडिया पर निर्भर समाज शायद ऐसे लोगों को बर्दाश्त ही नहीं कर पाता है जो निचले तबके और वर्ग से उठकर उस जगह पहुंच जाते हैं जहां यह इलिट क्लास खड़ा होता है। बहुजन समाज की नेता मायावती हों कि उसी बहुजन समाज से आनेवाले साध्वी निरंजन ज्योति। हम इनकी "असभ्यता" पर प्रहार करने में जरा भी देर नहीं लगाते। साध्वी निरंजन ज्योति के मामले में मीडिया ने भी कुछ वैसा ही व्यवहार किया है जैसा कि वह मायावती के मामले में करता आया है। इसे संयोग ही कहेंगे कि न सिर्फ दोनों उत्तर प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों से संबंध रखती हैं बल्कि दोनों की राजनीति और भाषा शैली भी बिल्कुल एक जैसी है। अगर मायावती दलित बहुजन का प्रतिनिधित्व करती हैं तो साध्वी निरंजन ज्योति भी साध्वी बनकर उसी बहुजन समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसे इलिट और प्रगतिशील लोग हिन्दू समाज का हिस्सा ही नहीं मानते हैं।

साध्वी निरंजन ज्योति इलाहाबाद के पास फतेहपुर सीट से पहली बार सांसद चुनकर आयी हैं। वे दलित निषाद समाज से ताल्लुक रखती हैं और अब तक रामकथा करती थीं। किसी कथावाचक का भाषा संस्कार वैसे भी इतना भद्दा नहीं हो सकता जैसा कि रोजमर्रा की जिन्दगी में लोग इस्तेमाल करते हैं। फिर भी निरंजन ज्योति के मामले में यह सवाल इसलिए खड़ा होता है क्योंकि वे केन्द्रीय मंत्री हैं और उन्होंने जो कुछ बोला वह कैमरे में कैद है। ''साला'' और 'हरामजादा' शब्द कोई ऐसा शब्द नहीं है जो बहुत ''विशिष्ट'' मौकों पर ही बोला जाता है। सामान्य से गुस्से में भी एक आदमी के मुंह से यह शब्द वैसे ही निकल जाता है जैसे कि किसी अंग्रेजी दा के मुंह से ''शिट'' या ''बुलशिट'' शब्दों का उच्चारण किया जाता है। अगर अंग्रेजी का ''फक'' ''शिट'' और ''बुलशिट'' सामान्य बोलचाल का हिस्सा है तो ''चूतिया, साला और हरामजादा'' डेरोगेटरी वर्ड कैसे हो गये?

फर्क शब्दों का नहीं है, फर्क है मानसिकता का। अंग्रेजी शिक्षित समाज अपने हिसाब से समाज को देखता और परिभाषित करता है। इसलिए ऐसे लोगों के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा, बोली और गाली सब एक बराबर होते हैं। वे यह मानते हैं कि बोलने के लिए अंग्रेजी के अलावा जो कुछ है वह जहालत है। इसलिए साध्वी निरंजन ज्योति के शब्द पर यह हंगामा उस शब्द से ज्यादा उस मानसिकता का हमला है जो भारत के 98 फीसदी समाज को सिरे से जाहिल ही मानता है। साध्वी निरंजन ज्योति ने जो बोला वह असंसदीय हो सकता है, अमार्यदित हो सकता है, लेकिन इतना भी आपत्तिजनक नहीं है जितना अंग्रेजी मीडिया बताने में लगा है।

साध्वी निरंजन ज्योति ने जो कुछ कहा वह जानबूझकर नहीं कहा। एक तुकबंदी बनाने में उनके भाषण का तुक बिगड़ गया और बात का बतंगड़ हो गया। फिर भी उन्होंने माफी मांग ली है। अपने शब्द वापस ले लिये हैं। इसके बाद अब अगर इलिट मीडिया और इलिट मीडिया पर निर्भर समाज उनके इस्तीफे की मांग पर अड़ता है तो यह भी एक किस्म का अतिवाद ही समझा जाएगा। अच्छा हो कि इस माफीनामे के बाद इलिट क्लास अब एक दलित महिला का दमन और उत्पीड़न बंद कर दे।

Monday, December 1, 2014

तेल की कीमतों में उम्मीद से कम कटौती

एक बार फिर केन्द्र सरकार के नियंत्रण वाली तेल कंपनियों की तरफ से पेट्रोल और डीजल के दामों में आंशिक कटौती की घोषणा कर दी गई। इस बार पेट्रोल की कीमतों में 91 पैसे और डीजल की कीमतों में 84 पैसे की कटौती की गई है। इस कटौती का अलग अलग राज्यों में अलग अलग असर होगा क्योंकि पेट्रोलियम पर अलग अलग राज्य अलग से ड्यूटी भी लगाती हैं इसलिए हर राज्य में कीमतों में अंतर दिखाई देता है। लेकिन लाभ तो सभी को मिलेगा। बीते चार महीने में यह सातवां ऐसा मौका है जब पेट्रोल की कीमतों में कटौती की गई है और दिल्ली में 73 रूपये तक पहुंच चुका पेट्रोल अब दिल्ली में 63 रूपये लीटर के रेट पर उपलब्ध हो गया है। जाहिर है, चार महीने के भीतर प्रति लीटर दस रूपये की यह बचत लोगों के लिए बड़ी राहत होगी। ऐसा ही कुछ हाल डीजल का भी है। और 58 रूपये लीटर बिक रहा डीजल अब 51 रुपये लीटर पर उपलब्ध है। लेकिन सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट को देखते हुए यह वास्तविक कटौती है या फिर तेल कंपनियां उतना फायदा ग्राहक तक नहीं पहुंचा रही है जितना फायदा उन्हें मिल रहा है?

सबसे पहले तो यह समझने की जरूरत है कि सरकार ने कह दिया है कि अब तेल कंपनियां बाजार की कीमतों के मुताबिक कीमतें तय करेंगी। यानी अब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में चढ़ाव उतार के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं होगी। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर ऐसा समझना मुश्किल है। सारी बड़ी तेल कंपनियां सरकारी हैं और सीधे सरकार के नियंत्रण में ही काम करती हैं इसलिए उनके निर्णयों पर सरकार का दखल या अंकुश नहीं रहेगा यह सोच पाना भी मुश्किल रही है। यह कहना भी मुश्किल है कि सरकारी तेल कंपनियां किस दर पर तेल बेचकर घाटे में हैं और किस दर पर तेल बेचकर मुनाफे में, क्योंकि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में तेल की अर्थव्यवस्था एक तरफ है तो तेल की राजनीति दूसरी तरफ। जब किसी तेल कुएं से निकला कच्चा तेल रिफाइनरी से गुजरकर पेट्रोल पंप तक पहुंचता है तब तक उसके साथ इतनी चीजें जुड़ चुकी होती हैं कि आखिरी कीमत क्या हो, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

लेकिन सामान्य तौर पर हम यह देखते हैं कि अगर अंततराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में इजाफा होता है तो भारत में भी पेट्रोल कीमतों में बढ़ोत्तरी कर दी जाती है। अगर सरकार को लगता है कि इतनी बढ़ोत्तरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक होगी तो कई बार इस घाटे को सब्सिडी के जरिए भी पूरा कर देती है। लेकिन वर्तमान हालात में ऐसा नहीं है। वर्तमान समय में अरब, अमेरिका और रूस के बीच तेल का युद्ध चल रहा है जिसका नतीजा यह है कि दुनिया के वे देश फायदे में हैं जिनकी अर्थव्यवस्था तेल के आयात पर ही निर्भर करती है। सबसे बड़े तेल उत्पादक रूस को पछाड़कर अमेरिका जहां एक तरफ रूस के उभार को रोकना चाहता है वहीं तेल की कीमतों में कटौती करते हुए अरब अमेरिकी तेल कंपनियोंं का बैंड बाजा बजा रही हैं। अगर कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर से कम होता है तो अमेरिकी कंपनियों को घाटा पहुंचता है। इसलिए तेल उत्पादक अरब के देश योजनाबद्ध तरीके से तेल की कीमतों को नित नयी निचाई तक ले जा रहे हैं और बाजार के विश्लेषक कहते हैं कि यह गिरावट 50 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाए तो भी कोई आश्चर्य नहीं।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में जारी गिरावट के बावजूद सरकारी तेल कंपनियां उम्मीद के मुताबिक तेल की कीमतों में कटौती नहीं कर रही हैं और जितना फायदा जनता को पहुंचाना चाहिए उसका एक बड़ा हिस्सा खुद अपने पास रख रही हैं। 

इन देशों की आपसी लड़ाई में अगर दुनिया के कमजोर और तेल आयातक देशों को फायदा पहुंचता है तो उनकी अर्थव्यवस्था जरूर मजबूत होगी। इस लिहाज से अगर हम भारत के बारे में देखें तो कच्चे तेल की उच्चतम कीमत और न्यूनतम कीमत पर आते हैं। 2011 से 2014 के इस दौर को समझने की कोशिश करते हैं। फरवरी 2011 से सितंबर 2014। इस दौरान अगर आप कच्चे तेल की कीमत देखें तो पायेंगे कि कीमत कमोबेश 100 डॉलर प्रति बैरेल के आसपास ही रही है। न्यूनतम हुआ तो 95 डॉलर और अधिकतम हुआ तो 120 डॉलर प्रति बैरल। लेकिन इस अधिकतम और न्यूनतम का औसत 100 डॉलर मानकर आगे बढ़ते हैं। इस समयसीमा के दौरान देश में पेट्रोल की कीमत देखें तो पायेंगे कि जैसे जैसे कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा हुआ है वैसे वैसे पेट्रोल की कीमत बढ़ती गयी है। दिसंबर 2010 में 55 रुपये प्रति लीटर वाला पेट्रोल फरवरी 2011 में जो 58 रूपये हुआ तो बढ़ते बढ़ते 73 रूपये तक पहुंच गया। इस समयसीमा के बीच अगर हम डॉलर और रूपये के विनिमय (एक्स्चेन्ज) को देखें तो इस दौरान डॉलर के विनिमय दर में भी बढोत्तरी हुई और एक डॉलर खरीदने के लिए फरवरी 2011 में 45 रूपया खर्च करने की जगह सितंबर 2014 में 60 रुपये खर्चने पड़ रहे थे।

जाहिर है, हम कच्चा तेल खरीदने के लिए न सिर्फ डॉलर में ज्यादा कीमत दे रहे थे बल्कि डॉलर के लिए ज्यादा रूपये भी अदा कर रहे थे। अब जबकि कच्चे तेल की कीमतें गिर रही हैं तब भी डॉलर का रेट बढ़ा हुआ है। तो एकबारगी को लग सकता है कि भले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत कम हो रही हो लेकिन मंहगे डॉलर के कारण हम कीमत तो ज्यादा ही अदा कर रहे हैं। यह बात भी सही है। लेकिन पूरी नहीं। रूपये डॉलर विनियम के हिसाब से ही हम कच्चे तेल की खरीदारी का हिसाब लगायें तो (1X45X100) फरवरी 2014 में एक बैरल कच्चा तेल खरीदने का खर्चा औसतन 4500 रुपया था। और भारत में पेट्रोल की औसत कीमत थी 58 रूपये। अब हम डॉलर के वर्तमान एक्स्चेन्ज रेट के मुताबिक 4200 रुपया (70 डॉलर प्रति बैरल) खर्च करके 1 बैरल तेल खरीद रहे हैं और पेट्रोल की बाजार में कीमत है 65 रुपये प्रति लीटर।

अब सवाल यह है कि अगर अंतराराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में उतार चढ़ाव से ही कीमतें तय होती हैं तो इस वक्त देश में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत फरवरी 2011 के दर से भी कम होनी चाहिए जबकि हम उस दर से भी छह रूपये ज्यादा अदा कर रहे हैं। अब आप अंदाज लगाइये पेट्रोल डीजल सस्ता हो रहा है या फिर सरकारी तेल कंपनियां सस्ते तेल पर मोटा मुनाफा कमा रही हैं और जितना फायदा जनता को मिलना चाहिए उतना नहीं दे रही हैं। मोदी सरकार कहती है कि वह कीमत घटा रही है जबकि हकीकत में वह पेट्रोल पर प्रति लीटर करीब 8 रूपया ज्यादा वसूल रही है।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आइसिस की तेल कालाबाजारी और अमेरिका, रुस की एक दूसरे को कमजोर करने की रणनीति के कारण आनेवाले कुछ दिनों में कच्चे तेल की कीमतें 50 डॉलर तक पहुंच जाने की भविष्यवाणी हो रही है। अगर ऐसा होता है तो भारत की प्रति बैरल तेल की खरीदारी वर्तमान एक्स्चेन्ज रेट पर भी 3600 रूपये प्रति बैरल से अधिक नहीं बैठेगा। तो क्या हम उम्मीद करें कि तब देश के लोग 45-50 रुपये प्रति लीटर में पेट्रोल खरीद पायेंगे? सरकारी तेल कंपनियां जिस तरह से आने कौड़ी में तेल के दाम घटा रही हैं उसे देखकर तो नहीं लगता है कि वे तेल पूल के घाटे का फायदा ग्राहकों तक पहुंचने देंगी। जबकि अगर सरकार इस वक्त पेट्रोलियम पदार्थों को बाजार के साथ कदमताल करते हुए पचास रूपये के स्लैब में पहुंचा दे निश्चित रूप से घरेलू अर्थव्यवस्था को इसका सीधा लाभ मिलेगा और मंहगाई से निपटने में भी मदद मिलेगी।

Popular Posts of the week