हमारी सभ्यता के जीवाश्म हैं ये लोग जो जहां तहां बिखरे पड़े हैं। कहीं किसी गांव में। शहर के किसी कोने में न जाने कौन सी लड़ाई लड़ते हुए और वह भी न जाने किससे। ठीक ठीक उन्हें भी पता नहीं है कि वे किससे लड़ रहे हैं। लेकिन लड़ रहे हैं। किसके लिए लड़ रहे हैं, इसका भी कोई बहुत सटीक जवाब उनके पास नहीं है, फिर भी लड़ रहे हैं। लड़ते लड़ते वे लड़ाई ही बन गये हैं। इसलिए अक्सर ऐसे लोग सामने आ जाते हैं तो समझना मुश्किल होता है कि आखिरकार वे समझाना क्या चाहते हैं?
और ऐसे लोग दर्जनों की संख्या में एकसाथ एक ही जगह पर मिल जाएं तो भला? बनिया समाज के दान से बने अग्रसेन भवन के उस हाल में ऐसे ही दर्जनों जीवाश्व इकट्ठा थे। आज के इस आधुनिक दौर में इन्हें इंसान कहना थोड़ा मुश्किल इसलिए होगा कि फिर इंसानों को यह समझाना मुश्किल हो जाएगा कि आखिर इंसान क्या होकर रह गया है? इसलिए ऐसे लोगों को हम जीवाश्व ही मानें जो मानव इतिहास में न जाने कैसे दबे कुचले वैसे ही रह गये हैं जैसी सृष्टि के आरंभ में रहे होंगे।
पहली नजर में उनकी बातें निरा नैतिक लेकिन नैतिकता भी निरुद्देश्य। भारतीय समाज में ऐसे जीवाश्मों की संख्या उतनी ही तेजी से घट रही है जितनी तेजी से ग्लेसियर लगातार पीछे खिसक रहे हैं। बाजार की गर्मी दोहरी मार कर रही है। आधुनिक समाज ने सभ्यता का जो मायाजाल गढ़ा है उस गढ़े हुए मायाजाल के ये अनगढ़ जीव अदम्य उत्साह से भरे तो दिखाई देते हैं लेकिन अक्सर उनकी बातें वर्तमान के साथ तालमेल खाती दिखाई नहीं देती। अब देखिए न। आज भी वे लोग किसी परिवार जैसी संस्था के बारे में बात कर रहे थे। करीब सौ सवा सौ लोग और सबकी चिंता यही कि परिवार खत्म हो रहे हैं। नाना विध नाना प्रकार से एक ही विचार। परिवार टूट रहे हैं और इन्हें बचाना बेहद जरूरी है। हालांकि वे सब एक टीवी कार्यक्रम के लिए अपने विचार रिकार्ड करवा रहे थे लेकिन मंच पर तीन विचारकों और नीचे बिखरे दर्जनों विचारकों की चिंता करीब करीब सामूहिक ही थी।
तो इस सृष्टिगत चिंता के मूल की मूल चिंता क्या है भला? सृष्टि आई तो समाज कैसा था? अरे समाज तो था ही नहीं। तो परिवार रहा होगा। नहीं भाई परिवार भी बाद में बना। तो व्यक्तिगत ईकाई रही होगी। हां, आदम हौव्वा के किस्से तो सुनते ही रहते हैं। तो दो से शुरू हुई दुनिया अगर हम दो हमारे दो पर आकर सिमट गई है तो इसमें बुराई क्या है? सवाल तो सटीक है लेकिन उनके लिए नहीं जो यहां दिखाई दे रहे हैं। वे तो व्यक्ति, परिवार, समूह, समाज जैसी कोई बात कर रहे हैं।
आदम हौव्वा ने क्या खाया और क्या पचाया यह तो मनु सतरूपा जानें, लेकिन मानवीय विकासक्रम में कुछ तो गड़बड़ हो गई। हम दो ने जब हमारे दो पैदा किये तो परिवार बन गया। उन हमारे दो ने आगे और इसी तरह दो दूनी चार किया तो कोई समूह बन गया होगा। फिर समाज भी ऐसे ही किसी तरह औने पौने दाम में निर्मित कर दिया गया होगा। एकांगिकता अधूरी सी चीज लगी होगी उन्हें। इसलिए सोचा होगा सामूहिकता का समुदाय ज्यादा सही सोच साबित होगी। कुछ इतिहासकार तो यह भी कहते हैं सामूहिकता युद्ध के लिए जरूरी थी। सामूहिकता कोई स्वाभाविक विकास व्यवस्था नहीं थी। यह तो युद्ध की मजबूरी थी। समुदायों के बीच संघर्ष ने सामूहिकता की भावना को बल दिया।
अरे, फिर तो यह तो गड़बड़ हो गई। सामूहिकता के समुदाय युद्ध समुदाय में कैसे तब्दील हो गये? बात इतनी गलत इसलिए भी नहीं लगती कि जीते जागते ये जीवाश्म जिस सुप्त विचार को जागृत कर रहे हैं वह यही कि समुदाय बने ही शांति के साथ सहजीवन के लिए थे। आज का ही उदाहरण देख लीजिए। परिवार की ईकाई कमजोर हो गई तो समुदाय और समाज क्रमश: कमजोर हो गये। बदले में जो मजबूत हुआ वह तो वही युद्धोन्मादी राष्ट्र राज्य है जो सीमारेखा का संरक्षक है। ऐसे कैसे हो गया? दो में से तो एक ही बात सही हो सकती है? हम जैसे इंसानों के लिए सचमुच इसकी तह तक पहुंच पाना बहुत मुश्किल है।
लेकिन जो यहां मौजूद थे, उसमें ऊपर मंच पर एकदम दाहिने जो बैठे थे वे कोई राज सिंह आर्य थे। उनके बारे में बताते हैं कि वे वे आर्य समाज की वंश परंपरा के जीवाश्म हैं जो उत्कृष्ट विचारों के साथ अति आधुनिक काल में न सिर्फ धोती कुर्ता पहनते हैं बल्कि कंधे पर एक दुपट्टा या पट्टा भी रखते हैं जिसके भारत में नाना नाम हैं। यह भेष यह भूषा तो आधुनिकता से कहीं मेल ही नहीं खाती। फिर अगर वे संस्कार जैसी बातें करते हैं तो भला हमारे समय के साथ इन बातों का कहां मेल मिलाप हो सकेगा? सोलह संस्कार में बंधा हुआ जीवन तो दकियानूसी सोच है। आधुनिक सोच असंस्कार की बात करती है। जो कुछ मानव सभ्यता ने विकसित किया है, पहला काम है उसे तोड़ दो। फिर सोचेंगे कि इंसान क्या है और उसे क्या करना चाहिए।
बीच में जो बैठे थे वे रामकथा वाचक हैं, विजय कौशल। वे बोल कम रहे थे, सुन ज्यादा रहे थे। लेकिन जो बोल रहे थे, उसमें कर्तव्य और दायित्व बोध जैसी बातें थीं। सामूहिकता की पुकार और एकांगिकता का पूरी तरह से तिरस्कार था। हम जो आजाद पंछी होकर हवा में उड़ जाना चाहते हैं, हमारे लिए इन बातों का कोई मोल हो भी तो हमें पता नहीं। लेकिन उनके बगल में बायीं तरफ वाले बुजुर्ग बजरंग मुनि बता रहे थे सरकार और सरकार के पैरोकारों ने जानबूझकर परिवार के पैर में कुल्हाड़ी मारी है। ताकि वे बांटकर राज कर सकें। बिल्कुल ब्रिटिश हुक्मरानों की तरह। गांधी के कपूत मैकाले के पूत बन गये।
फिर भी, इस जीवाश्मकालीन विमर्श में एक बात जरूर ऐसी थी जो लौटते हुए भी सोचने को विवश कर रही थी कि धुर बाजारवादी अमेरिका में परिवारवाद क्योंकर बकबकाया जाने लगा है? कहीं ऐसा तो नहीं जिन जीवाश्मों को हम जानना सुनना भी नहीं चाहते उनकी आत्मा अमेरिका के अंदर प्रवेश कर गई है? पता नहीं, यह तो शोध का विषय है लेकिन हमारी आधुनिकता पूरी तरह से अमेरिका से उधार ली हुई है, इसे समझने के लिए तो किसी शोध की भी जरूरत नहीं है।
और ऐसे लोग दर्जनों की संख्या में एकसाथ एक ही जगह पर मिल जाएं तो भला? बनिया समाज के दान से बने अग्रसेन भवन के उस हाल में ऐसे ही दर्जनों जीवाश्व इकट्ठा थे। आज के इस आधुनिक दौर में इन्हें इंसान कहना थोड़ा मुश्किल इसलिए होगा कि फिर इंसानों को यह समझाना मुश्किल हो जाएगा कि आखिर इंसान क्या होकर रह गया है? इसलिए ऐसे लोगों को हम जीवाश्व ही मानें जो मानव इतिहास में न जाने कैसे दबे कुचले वैसे ही रह गये हैं जैसी सृष्टि के आरंभ में रहे होंगे।
पहली नजर में उनकी बातें निरा नैतिक लेकिन नैतिकता भी निरुद्देश्य। भारतीय समाज में ऐसे जीवाश्मों की संख्या उतनी ही तेजी से घट रही है जितनी तेजी से ग्लेसियर लगातार पीछे खिसक रहे हैं। बाजार की गर्मी दोहरी मार कर रही है। आधुनिक समाज ने सभ्यता का जो मायाजाल गढ़ा है उस गढ़े हुए मायाजाल के ये अनगढ़ जीव अदम्य उत्साह से भरे तो दिखाई देते हैं लेकिन अक्सर उनकी बातें वर्तमान के साथ तालमेल खाती दिखाई नहीं देती। अब देखिए न। आज भी वे लोग किसी परिवार जैसी संस्था के बारे में बात कर रहे थे। करीब सौ सवा सौ लोग और सबकी चिंता यही कि परिवार खत्म हो रहे हैं। नाना विध नाना प्रकार से एक ही विचार। परिवार टूट रहे हैं और इन्हें बचाना बेहद जरूरी है। हालांकि वे सब एक टीवी कार्यक्रम के लिए अपने विचार रिकार्ड करवा रहे थे लेकिन मंच पर तीन विचारकों और नीचे बिखरे दर्जनों विचारकों की चिंता करीब करीब सामूहिक ही थी।
तो इस सृष्टिगत चिंता के मूल की मूल चिंता क्या है भला? सृष्टि आई तो समाज कैसा था? अरे समाज तो था ही नहीं। तो परिवार रहा होगा। नहीं भाई परिवार भी बाद में बना। तो व्यक्तिगत ईकाई रही होगी। हां, आदम हौव्वा के किस्से तो सुनते ही रहते हैं। तो दो से शुरू हुई दुनिया अगर हम दो हमारे दो पर आकर सिमट गई है तो इसमें बुराई क्या है? सवाल तो सटीक है लेकिन उनके लिए नहीं जो यहां दिखाई दे रहे हैं। वे तो व्यक्ति, परिवार, समूह, समाज जैसी कोई बात कर रहे हैं।
आदम हौव्वा ने क्या खाया और क्या पचाया यह तो मनु सतरूपा जानें, लेकिन मानवीय विकासक्रम में कुछ तो गड़बड़ हो गई। हम दो ने जब हमारे दो पैदा किये तो परिवार बन गया। उन हमारे दो ने आगे और इसी तरह दो दूनी चार किया तो कोई समूह बन गया होगा। फिर समाज भी ऐसे ही किसी तरह औने पौने दाम में निर्मित कर दिया गया होगा। एकांगिकता अधूरी सी चीज लगी होगी उन्हें। इसलिए सोचा होगा सामूहिकता का समुदाय ज्यादा सही सोच साबित होगी। कुछ इतिहासकार तो यह भी कहते हैं सामूहिकता युद्ध के लिए जरूरी थी। सामूहिकता कोई स्वाभाविक विकास व्यवस्था नहीं थी। यह तो युद्ध की मजबूरी थी। समुदायों के बीच संघर्ष ने सामूहिकता की भावना को बल दिया।
अरे, फिर तो यह तो गड़बड़ हो गई। सामूहिकता के समुदाय युद्ध समुदाय में कैसे तब्दील हो गये? बात इतनी गलत इसलिए भी नहीं लगती कि जीते जागते ये जीवाश्म जिस सुप्त विचार को जागृत कर रहे हैं वह यही कि समुदाय बने ही शांति के साथ सहजीवन के लिए थे। आज का ही उदाहरण देख लीजिए। परिवार की ईकाई कमजोर हो गई तो समुदाय और समाज क्रमश: कमजोर हो गये। बदले में जो मजबूत हुआ वह तो वही युद्धोन्मादी राष्ट्र राज्य है जो सीमारेखा का संरक्षक है। ऐसे कैसे हो गया? दो में से तो एक ही बात सही हो सकती है? हम जैसे इंसानों के लिए सचमुच इसकी तह तक पहुंच पाना बहुत मुश्किल है।
लेकिन जो यहां मौजूद थे, उसमें ऊपर मंच पर एकदम दाहिने जो बैठे थे वे कोई राज सिंह आर्य थे। उनके बारे में बताते हैं कि वे वे आर्य समाज की वंश परंपरा के जीवाश्म हैं जो उत्कृष्ट विचारों के साथ अति आधुनिक काल में न सिर्फ धोती कुर्ता पहनते हैं बल्कि कंधे पर एक दुपट्टा या पट्टा भी रखते हैं जिसके भारत में नाना नाम हैं। यह भेष यह भूषा तो आधुनिकता से कहीं मेल ही नहीं खाती। फिर अगर वे संस्कार जैसी बातें करते हैं तो भला हमारे समय के साथ इन बातों का कहां मेल मिलाप हो सकेगा? सोलह संस्कार में बंधा हुआ जीवन तो दकियानूसी सोच है। आधुनिक सोच असंस्कार की बात करती है। जो कुछ मानव सभ्यता ने विकसित किया है, पहला काम है उसे तोड़ दो। फिर सोचेंगे कि इंसान क्या है और उसे क्या करना चाहिए।
बीच में जो बैठे थे वे रामकथा वाचक हैं, विजय कौशल। वे बोल कम रहे थे, सुन ज्यादा रहे थे। लेकिन जो बोल रहे थे, उसमें कर्तव्य और दायित्व बोध जैसी बातें थीं। सामूहिकता की पुकार और एकांगिकता का पूरी तरह से तिरस्कार था। हम जो आजाद पंछी होकर हवा में उड़ जाना चाहते हैं, हमारे लिए इन बातों का कोई मोल हो भी तो हमें पता नहीं। लेकिन उनके बगल में बायीं तरफ वाले बुजुर्ग बजरंग मुनि बता रहे थे सरकार और सरकार के पैरोकारों ने जानबूझकर परिवार के पैर में कुल्हाड़ी मारी है। ताकि वे बांटकर राज कर सकें। बिल्कुल ब्रिटिश हुक्मरानों की तरह। गांधी के कपूत मैकाले के पूत बन गये।
फिर भी, इस जीवाश्मकालीन विमर्श में एक बात जरूर ऐसी थी जो लौटते हुए भी सोचने को विवश कर रही थी कि धुर बाजारवादी अमेरिका में परिवारवाद क्योंकर बकबकाया जाने लगा है? कहीं ऐसा तो नहीं जिन जीवाश्मों को हम जानना सुनना भी नहीं चाहते उनकी आत्मा अमेरिका के अंदर प्रवेश कर गई है? पता नहीं, यह तो शोध का विषय है लेकिन हमारी आधुनिकता पूरी तरह से अमेरिका से उधार ली हुई है, इसे समझने के लिए तो किसी शोध की भी जरूरत नहीं है।
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