बीते आठ महीने में भारत पाक सीमा पर यह दूसरी
बार है जब भारतीय सैनिकों की धोखे से निर्मम हत्या की गई है। इसी साल जनवरी
महीने में दो भारतीय सैनिकों के सिर काट लिये गये थे और अब पांच भारतीय
सैनिकों को रूटीन गश्त के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। इन दोनों घटनाओं
के बाद एक बात समान रूप से सामने आई कि सीमा पर भारतीय सैनिकों के साथ इस
तरह का कत्लेआम होने से एक या दो दिन पहले सीमा पर रात गुजारकर लौटा है।
हाफिज सईद सीमा पर आता है और उसके एक या दो दिन बाद पाकिस्तान की ओर से कोई दुस्साहसिक कारनामा अंजाम दे दिया जाता है। तब भी और अब भी। सीधे तौर पर तब भी और अब भी पाकिस्तानी सेना ही सामने दिखाई देती है। दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता है और फिर कुछ दिनों में सबकुछ सामान्य हो जाता है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लेकिन इस दौरान हाफिज सईद न कुछ बोलता है और न कुछ कहता है। ऐसा संभवत: इसलिए कि वह अपनी अगली योजना पर काम करने के लिए आगे निकल पड़ता है।
प्रो. हाफिज मोहम्मद सईद। पाकिस्तान की समाजसेवी संस्था जमात-उद-दावा का अमीर। पंजाब से लेकर सिंध और अब बलूचिस्तान तक एक समान प्रभावी मुस्लिम आक्रांता। उम्र के 63 बसंत पार कर चुका एक ऐसी शख्सियत जो मोहाजिर मुसलमान की संतान होने के बाद भी मोहाजिर नहीं है। एक ऐसा इंसान जो सिर्फ मुसलमान के जीता है और मुसलमानों के नाम पर पूरी इंसानियत को खत्म करने में उसे कहीं से कोई संकोच नहीं होता है। एक ऐसा शख्स जो पिछले 33 सालों से जेहाद के नाम पर कत्लेआम करवा रहा है। एक ऐसा शख्स जिसके जीवन का सिर्फ एक ही मकसद है और वह मकसद है उसके पुरखों की जमीन हिन्दुस्तान का खंड खंड बंटवारा। वह हिन्दोस्तान के इतने टुकड़े कर देना चाहता है कि गिनने वाले थक जाएं। और, पिछले 33 सालों से वह यही काम कर रहा है।
बांग्लादेश में मिली पराजय के बाद पाकिस्तान में हिन्दोस्तान के प्रति नफरत का जो आलम चढ़ा उसी उफान से हाफिज सईद की पैदाइश होती है। उसने यह तो नहीं देखा था कि शिमला से पाकिस्तान जाते हुए रास्ते में उसके कुल कुनबे के 36 लोगों को किसने और कैसे कत्ल कर दिया था लेकिन उसने वह जरूर देखा था जो बांग्लादेश में हुआ था। पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उसने 1980 में जिस लश्कर-ए-तोएबा (पवित्र लड़ाकों की सेना) की स्थापना की उसका एक ही मकसद था- हिन्दोस्तान के खिलाफ जेहाद। और उसने यह जेहाद बखूबी जारी रखा, 2008 तक। 2008 में मुंबई हमले से पहले वह कश्मीर से लेकर दिल्ली तक सब जगह अपने आतंकी लड़ाके पहुंचा चुका था। आतंक के अपने तीन दशक के इतिहास में उसने इस्लाम के नाम पर इतना लंबा चौड़ा खाका खींच दिया है जिसमें कश्मीर में आजादी की लड़ाई लड़नेवाले हिजबुल मुजाहीदीन हों कि जैश-ए-मोहम्मद, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाली आतंकी जमात अल-कायदा हो कि सब आतंकी समूहों की पाकिस्तानी आका आईएसआई सब के केन्द्र में यही एक शख्सियत खड़ा नजर आता है।
पाकिस्तान में वह सिर्फ अब जमात-उद-दावा का अमीर भर नहीं है। लश्कर के इस चीफ ने पूरे पाकिस्तान में जमात की लंबी चौड़ी फौज तैयार कर दी है। निहायत व्यवस्थित और संगठित। आज पूरा पाकिस्तान हाफिज सईद के अमीरों से भरा पड़ा है। जिले और तहसील स्तर तक के अमीर। और उन सब अमीरों में सबसे बड़ा अमीर खुद हाफिद सईद है। उसके चाहनेवालों के लिए खुदा की खुदाई। अमीर की बात को पाकिस्तान में कोई टाल नहीं सकता। सेना तो लंबे समय से उसकी शागिर्द है। अब वह घोषित तौर पर राजनीतिक सुधार के लिए काम करता है लिहाजा चुनावों में उसकी जमात के लोग तय करते हैं कि किसे जन प्रतिनिधित्व देना है और किसे बाहर कर देना है। ऐसे में नवाज शरीफ जैसे नेता भी अमीर के शागिर्दों में शामिल नजर आयें तो कोई आश्चर्य नहीं। वह अमीरों का अमीर है। वह सीधे सद्र तो नहीं है लेकिन आज की तवारीख में अगर पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र है तो उस इस्लामिक राष्ट्र का अघोषित सद्र (राष्ट्रपति) कोई और नहीं बल्कि हाफिज सईद ही है।
लेकिन खुद हाफिज सईद को भी पाकिस्तान में बड़ी खामी नजर आ रही है। इस्लाम के नाम पर मुसलमानों के लिए बना यह देश उसकी अपनी नजर में उतना इस्लामिक नहीं नजर आता जितना होना चाहिए। अभी भी पाकिस्तान में जम्हूरियत का शासन चलता है जो इस्लामिक नियमों के खिलाफ है। इसलिए बीते एक दशक में वह सिर्फ भारत के खिलाफ जेहाद तक ही सीमित नहीं है। वह पाकिस्तान के खिलाफ भी एक जेहाद चला रहा है। पाकिस्तान के खिलाफ चलनेवाला जेहाद वहां की आवाम के लिए है। बीते एक दशक में उसने पाकिस्तान में जितने भी अभियान संचालित किये हैं उन सबके मूल में एक ही बात होती है कि पाकिस्तान में जम्हूरियत (जनतंत्र) जैसी बातें गैर इस्लामिक हैं। इसलिए इस्लामिक नियम कायदों के अनुसार ही शासन व्यवस्था भी बननी चाहिए। हो सकता है, पाकिस्तान के हुक्मरानों को यह लगता हो कि वे जिस पाकिस्तान पर राज करते हैं वह शुद्ध इस्लामिक राष्ट्र है लेकिन अमीर को ऐसा नहीं लगता। इस लिहाज से बीते एक दशक में उसने पाकिस्तान के भी 'शुद्धीकरण' की मुहिम चला रखी है। 'अमीर' सीधे तौर पर सत्ता को अपने हाथ में लेने की तकरीर तो नहीं करता है लेकिन जम्हूरियत और मीडिया को उसकी तरफ से लगातार धमकियां मिलती रहती हैं। यह धमकियां सीधे तौर पर एक ही बात से जुड़ी होती हैं कि अमीर की बात को आखिरी समझो, नहीं तो नतीजे अच्छे नहीं आयेंगे।
अभी अभी तीन चार महीने पहले तक अमीर के लिए अमेरिका दुश्मन नंबर एक था, लेकिन पाकिस्तान में आम चुनाव हो जाने के बाद अचानक ही अमीर का दुश्मन नंबर एक फिर से हिन्दोस्तान बन गया है। पाकिस्तान में आम चुनाव से पहले वह आईएसआई के पूर्व प्रमुख हामिद गुल के साथ मिलकर दिफा-ए-पाकिस्तान का अभियान चला रहा था जो अमेरिकी कुत्तों को वहां से बाहर फेंकने जैसी तकरीरों से भरी होती थीं। लेकिन आम चुनाव हो जाने के बाद बीते कुछ महीनों से अमीर ने एक बार फिर कश्मीर को अपने एजेण्डे पर वापस ले लिया है। ऐसा संभवत: उसने अफजल गुरू को दी गई फांसी का फायदा उठाने के लिए किया है। फरवरी में अफजल गुरू को फांसी दिये जाने के बाद अप्रैल से अब तक उसने जितनी मुस्लिम युनिटी कांफ्रेस की है उसमें सिर्फ और सिर्फ कश्मीर का ही मुद्दा उठाया है। एक बार फिर पाकिस्तानी लोगों के सामने बोलते समय वह कश्मीर की आजादी को ही आखिरी अंजाम बताने लगा है। अफजल गुरू की फांसी के बाद उसने जो संपादकीय लिखा था, उसमें लिखा था कि यह निर्दोष मुसलमानों को कत्ल करने का हिन्दोस्तानी तरीका है। तब से वह अपने मुस्लिम युनिटी कांफ्रेस में बोलते समय पाकिस्तानी नागरिकों को समझाता है कि कैसे हिन्दोस्तान में निर्दोष मुसलमानों को कत्ल कर दिया जाता है। अमीर यह जानता है कि अफजल गुरू की फांसी का फायदा कश्मीर में कैसे और किस तरह से उठाया जा सकता है। इसलिए अगर बीते कुछ महीनों में कश्मीर फिर से आतंकवाद की चौखट पर खड़ा नजर आ रहा है तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि इन सबके कौन सा अमीर खड़ा है।
भारत के खिलाफ यह अमीर अकेला जितना सक्रिय रहता है उतना तो शायद पूरा पाकिस्तानी हुक्मरान मिलकर भी सक्रिय नहीं रह पाता है। आईएसआई हो कि पाकिस्तानी सेना, भारत के खिलाफ की गई हर कार्रवाई असली कर्ता धर्ता यही अमीर ही होता है। नहीं तो क्या कारण है कि मुंबई हमलावरों को सैन्य कमाण्डरों जैसे ट्रेनिंग की बात सामने आती है और सीमा पर तैनात पाकिस्तानी सेना भी पाकिस्तानी हुक्मरानों को सुनने की बजाय आकाओं के आका की बात सुनती है? इसका सीधा सा मतलब है कि अमीर पाकिस्तान में सबसे अधिक ताकतवर है। इसलिए हिन्दोस्तान जैसे दुश्मन अगर शासन प्रशासन के साथ मेल जोल बढ़ाना भी चाहें तो अमीर के रहते कभी संभव नहीं हो पायेगी। तो क्या भारत सरकार भी किसी ऐसी योजना पर काम करेगी जिससे पाकिस्तान को इस 'अमीर' से छुटकारा दिलाया जा सके? कुछ कुछ वैसे ही जैसे अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन से पाकिस्तान को मुक्त कर दिया था। पाकिस्तान के हुक्मरानों और मीडिया की भाषा बता रही है कि वे भी इस 'अमीर' को नापसंद करते हैं लेकिन वे उसे बचाने के अलावा और कुछ कर नहीं सकते। 'अमीर' उनके जम्हूरियत की मजबूरी बन चुका है। लेकिन किसी 'अमीर' को लेकर हम इतने मजबूर क्योंकर हो कि वह हमें घायल करता रहे और हम रोज रोज अपना लहू बहाकर घाव चाटते रहें? वह भी तब जब एक घाव भरते ही 'अमीर' दूसरा घाव कर देता है। अगर हमारी एकता, अखंडता और भारत पाक रिश्तों के लिए किसी 'अमीर' की शहादत जरूरी जान पड़े तो उसे शहीद का दर्जा देने में संकोच कैसा?
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