राष्ट्र राज्य की सीमा के भीतर रहकर राष्ट्रीय
भावना से ओत प्रोत रहना ही चाहिए। अमेरिका भी रहता है और पाकिस्तान भी।
फिर भला भारत के लोग अपने सैनिकों को शहीद किये जाने पर राष्ट्रीय भावना से
ओत प्रोत होकर हुंकार उठते हैं तो क्या बुरा करते हैं? उनके हुंकारने
फुंफकारने की बारी एक बार फिर आ गई है। पाकिस्तान की ओर से पांच भारतीय
सैनिकों को शहीद कर दिया गया है। मामला सोमवार रात का है इसलिए मंगलवार को
दिल्ली दहल गई। संसद हिल गई। नेता गणों ने सख्त संदेश प्रसारित कर दिया जो
मीडिया से होते हुए उस पाकिस्तान तक भी पहुंचा है जिसने ऐसी नापाक हरकत की
है। लेकिन सबसे अधिक चौंकानेवाला खुलासा यह है कि पाकिस्तान की ओर से यह
काम एक बार फिर वहां के तालिबान ने किया है, सेना का भेष बदलकर।
इस मंगलवार से भी कुछ पहले बीते शनिवार (27 जुलाई) को भी भारत पाक सीमा पर एक बड़ी घटना हुई थी। भारत के लिहाज से तो शायद नहीं लेकिन एक राष्ट्र राज्य के रूप में पाकिस्तान के लिहाज से वहां की मीडिया के लिए उतना ही बड़ा मुद्दा जितना हमारे पांच सैनिकों को शहीद करने का मुद्दा अब यहां है। 27 जुलाई को भारत पाक सीमा पर रावलकोट के नेजापीर सेक्टर में भारतीय सैनिकों की ओर से की गई गोलीबारी में पाकिस्तान का एक सैनिक शहीद हो गया और एक घायल हो गया। पाकिस्तानी सैनिक की इस शहादत पर पाकिस्तान की ओर से गंभीर कूटनीतिक प्रतिरोध दर्ज कराया गया जबकि भारतीय सेना की ओर से कहा गया कि पाकिस्तानी सैनिकों ने अचानक छोटी मिसाइल और मशीनगन दागनी शुरू कर दी जिसके जवाब में भारतीय सैनिकों ने गोलीबारी की थी। पाकिस्तान में उस दिन यह बड़ी खबर थी, भारत में इस घटना का जिक्र भी नहीं हुआ।
क्यों होता? दुश्मन देश के सैनिक की मौत पर हम भला क्योंकर मातम मनाने लगे? हमें तो पता भी नहीं चला कि सीमा पर ऐसा भी कुछ हुआ है। 27 जुलाई की घटना को राष्ट्रवादी सोच के लिहाज से ''भारतीय सैनिकों के विजय का प्रतीक'' कहा जा सकता था, फिर भी भारत में दुश्मन देश के सैनिक हत्याकांड पर कोई खुशी नहीं मनाई गई। 27 जुलाई की उस गोलीबारी के बाद हमारे लिए बड़ी खबर तब सामने आई जब पांच भारतीय सैनिकों को सैनिक भेषधारी आतंकियों ने सीमा पर हमारे सैनिकों को शहीद कर दिया। इसका कोई प्रमाण तो नहीं हो सकता कि इस काम को उसी 27 जुलाई की घटना के विरोध में अंजाम दिया गया है जिसमें एक पाकिस्तानी सैनिक मारा गया था और एक घायल हो गया था, लेकिन जिस तरह से दोनों घटनाएं पुंछ में ही सामने आई हैं उससे इस संभावना को बल मिलता है कि पाकिस्तान ने सैन्य प्रतिक्रिया में भारतीय सैनिकों को शहीद कर किया है। भारत के छह सैनिकों की यह टोली सीमा पर सामान्य पेट्रोलिंग कर रही थी, जिस वक्त इस भारतीय सैन्य टोली को निशाना बनाया गया। पांच सैनिक शहीद हो गये जबकि एक सैनिक अपनी जान बचाने में कामयाब हो गया।
इस सैन्य शहादत से भी अधिक चौंकानेवाली वह जानकारी है जो संसद में रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने सामने रखी है। संसद में दिये गये अपने बयान में एके एंटनी ने कहा है कि जिन 20 लोगों ने भारतीय सैनिकों को शहीद किया है वे सैन्य वेषधारी आतंकवादी थे। एंटनी हमारे देश के रक्षा मंत्री हैं और यह बात वे कहीं और नहीं बल्कि संसद में बोल रहे हैं तो जाहिर है उनके पास इस बात की पुख्ता सूचना होगी कि भारतीय सैनिकों को शहीद करनेवाले इस काम को अंजाम देनेवाले आखिर कौन हैं। और यह कोई नई बात भी नहीं है। पाकिस्तान में कौन तालिब है और कौन सेना का सिपाही इसका फर्क करना बहुत मुश्किल है। कारगिल युद्ध के समय अगर पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी बनकर अंदर घुस आये थे तो अब वहां के आतंकवादी सेना का भेष बदलकर भारतीय सैनिकों पर हमला कर दें तो पाकिस्तान के बारे में यह कोई परेशान करनेवाली जानकारी नहीं है।
दिल्ली में बैठकर कश्मीर को दिल दे बैठे लोग एक बार फिर वही गंभीर चूक कर रहे हैं जिसका फायदा अब तक पाकिस्तान उठाता रहा है और हम खामियाजा भुगतते रहे हैं। तार्कित कूटनीति का रास्ता छोड़कर हम एक बार फिर कश्मीर में अंधी राष्ट्रभक्ति की तोप चलाने चल पड़े हैं। जिससे तात्कालिक तौर पर राजनीतिक दल चाहें तो फायदा उठा लें लेकिन दीर्घकालिक तौर पर नुकसान ही होगा। रणनीतिक तौर पर देखें तो पाकिस्तान भारत से अधिक चालाक है। वह भारत से अपनी छद्म लड़ाई कश्मीर में लड़ता है और हम इतने 'समझदार' हैं कि हम भी पाकिस्तान से अपनी लड़ाई कश्मीर में ही लड़ते रहते हैं।
पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान इतना धूर्त और कुटिल है कि वह आतंकियों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए जैसे चाहे वैसे कर सकता है। और वह करता भी रहा है। पाकिस्तान में हाफिद सईद आतंकियों का सरगना है कि सेना का सर्वोच्च कमांडर इसे समझ पाना खुद पाकिस्तानी सरकार के लिए भी पूरी तरह असंभव है। जब पाकिस्तानी के नव निर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ लश्कर-ए-झांगवी से राजनीतिक तालमेल करते हों और उनके भाई शाहबाज पंजाब के कोषागार से करोड़ों रूपया जमात-उद-दावा के कार्यालय के नवीनीकरण पर खर्च करवा देते हों तो समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि पाकिस्तान में सेना, सरकार और आतंकवादियों का आपसी रिश्ता क्या है और कैसा है? लेकिन एक बड़ा सवाल यहां और उठता है कि आखिर क्या कारण है कि हाल के दिनों में भारत पाकिस्तान सीमा पर भारत पाक रिश्ता फिर से उसी दौर में पहुंचता जा रहा है जहां से निकलने के लिए दोनों ही देशों ने लंबी कूटनीतिक जद्दोजेहद की है?
इस एक सवाल का तात्कालिक जवाब बहुत नाकारात्मक है। संभवत: इस एक सवाल का जवाब उस एक काम से जुड़ा हुआ है जिसे दिल्ली के तिहाड़ जेल में अंजाम दिया गया। हो सकता है अंधी राष्ट्रभक्ति में हम तार्किकता से घटनाओं को देखना बंद कर दें लेकिन हमारे न देखने से घटनाएं घटनी बंद नहीं हो जाती हैं। कश्मीर की श्रीनगर घाटी जितनी कल भारत की विरोधी थी उतनी ही आज भी है। लेकिन बीते कुछ सालों में भारत विरोध की यह आवाज मध्दम जरूर पड़ती जा रही थी। खुद हमारे प्रधानमंत्री अपने फेसबुक वाल पर अपनी उपलब्धियों में इस बात का जिक्र करते रहे हैं कि कैसे कश्मीर में आतंकवाद कमजोर पड़ा है। इसका कारण कोई कूटनीतिक कौशल न भी रहा हो तो भी, कश्मीरी आवाम की अलागववादी आवाज थकान के कारण ही सही, ढलान पर थी। लेकिन दिल्ली के तिहाड़ जेल में हुई एक फांसी ने अचानक से कश्मीर के हालात को बहुत नाटकीय तरीके से बदल दिया। फांसी के विरोध में जो आवाज मुखर होने निकली थीं, उन आवाजों को भी गले से बाहर नहीं आने दिया गया। हम दूर दराज बैठे राष्ट्रभक्त हो सकता है इसे भी एक सही और सख्त प्रशासकीय कदम मानकर अपने अखंडता पर मौज मना लें लेकिन जिन कश्मीरियों के ऊपर यह सब दमन चक्र चला उन्होंने उसी वक्त दबी जुबान में कहा था कि यह फांसी और इस फांसी के विरोध की आवाज को दबाना, दोनों ही भारत को बहुत भारी पड़ेगा।
और यह कोई मनगढ़ंत बात नहीं है कि सर्दियों में दी गई उस फांसी के बाद से ही घाटी में भारतीय सैनिकों, अर्धसैनिक बलों पर हमले बहुत तेज हुए हैं। राष्ट्रीय अखबारों में कश्मीर में घुसपैठ की सुर्खियां दोबारा से लौट आई हैं। पिछले तीन चार महीनों में ही घाटी में अब तक करीब आधा दर्जन बड़ी आतंकी घटनाएं घट चुकी हैं। अर्धसैनिक बलों और स्थानीय लोगों के बीच फिर से नफरत का वही रिश्ता सामने आ गया है जिसे मिटाने के लिए कम से कम श्रीनगर घाटी से सैन्य बंकर मिटा दिये गये थे। पहले से कश्मीर में कमजोर पड़ते जा रहे पाकिस्तान के लिए यह एक ऐसा सुनहरा आतंकी मौका था जिसे पाकिस्तानी सैन्य हुक्मरान कभी छोड़ना नहीं चाहेगा। नहीं तो कोई कारण नहीं था कि लंबे अर्से बाद आतंकियों से मुटभेड़ की खबरें आतीं। पिछले तीन महीने में आतंकियों से तीन बड़ी मुटभेड़ हो चुकी हैं जो सुरक्षाबलों पर घात लगाकर हमला कर रहे थे। ये आतंकी कहां से पैदा हो रहे हैं, अब हमें शायद यह अंदाज लगाने की भी जरूरत नहीं रही और घाटी में फिर से इन आतंकियों को पनाह क्यों मिलने लगी, इसे समझना भी अब उतना मुश्किल नहीं रहा। कश्मीर घाटी के लोग भारत विरोधी नारे लगाते रहें, पाकिस्तान के लिए इससे सुनहरा मौका और क्या हो सकता है? और तिहाड़ की उस फांसी के बाद से पूरी घाटी ने एक बार फिर वही नारा बुलंद कर दिया जिसे सुनकर हम खुद कश्मीरियों को कमीना कहने लगते हैं। लेकिन दिल्ली की उस फांसी से घाटी में जो बात बिगड़ी तो अब तक बिगड़ती ही जा रही है।
इस बात की उम्मीद अब कम है कि भारत पाक सीमा पर आनेवाले कुछ सालों तक कोई शांति आनेवाली है। और सिर्फ सीमा पर ही नहीं बल्कि समूची घाटी के भीतर अलगाववाद और अंशाति का एक नया दौर शुरू हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। इस अशांति पर काबू पाने के लिए भारत सरकार श्रीनगर को एक बार फिर सैन्य बंकरों में तब्दील कर दे, तो इसे राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा माना जाएगा लेकिन भारत सरकार में बैठे रणनीतिकारों को आज नहीं तो कल यह जरूर सोचना होगा कि गड़े मुर्दे उखाड़े तो नहीं जाते लेकिन अगर मुर्दे गफलत की मौत मरें हों तो उनकी रूहें कभी हमारा पीछा भी नहीं छोड़ती हैं। कल को कोई गालिब भी कहीं तालिब बना नजर आये तो क्या उसके लिए भी हम पाकिस्तान को ही दोषी मानकर उस गालिब के सीने पर बंदूक तान देंगे? बिना यह सोचे कि कभी कोई बाप अपने बेटे को आतंकवादी बनाने के लिए गालिब नाम नहीं दिया करता है।
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