भारत से जाते हुए ब्रिटिश हुक्मरानों ने भारत के तीन टुकड़े कर दिये। लिहाजा ब्रिटिश हुकूमत ने जो कुछ इन्फ्रास्टक्चर विकसित किया था वह तीन हिस्सों में तक्सीम हो गया। रेलवे भी एक ऐसा ही इन्फ्रास्ट्रक्चर था जो भारत पाकिस्तान और वर्तमान बांग्लादेश में बंट गया।
बंटवारे का असर रेलवे पर क्या हुआ इसे जानने के लिए अगर हम आज तीनों देशों के रेलवे को ही देख लें तो समझ आ जाएगा कि इस्लाम के नाम पर कितना बड़ा गुनाह किया गया था। बांग्लादेश जो कि बंटवारे के तेइस साल बाद आजाद मुल्क बना उसे भी विरासत में वही रेल मिली थी जो भारत के पास थी। ढाका और चटगांव के कामर्शियल रेलवे स्टेशन उसे मिले और पूरे बांग्लादेश में रेल नेटवर्क भी। जब तक वह ईस्ट पाकिस्तान था तब तक उसके रेलवे की भी उसी तरह दुर्दशा थी जैसे वेस्ट पाकिस्तान की। लेकिन पाकिस्तान से अलग होने के बाद उसने रेलवे के विकास पर ध्यान दिया और आबादी के भारी बोझ के बाद भी रेलवे की दशा उतनी खराब नहीं है जितनी पाकिस्तान की है।
कारण? बांग्लादेश ने रेलवे का एक सीमा से ज्यादा इस्लामीकरण नहीं किया। रेलवे आधुनिकीरण के लिए उन्हें हिन्दू भारत से एलएचबी कोच लेने में कोई आपत्ति नहीं हुई। जबकि पाकिस्तान ने रेलवे का पूरी तरह से इस्लामीकरण कर दिया। पहले दिन से पाकिस्तान एक इस्लामिक अर्थव्यवस्था, इस्लामिक विज्ञान और तकनीकि यहां तक कि इस्लामिक परिवहन की उधेड़बुन में उलझा हुआ है। पाकिस्तान की रेलवे इसी इस्लामिक सोच का शिकार हो गया। लिहाजा पाकिस्तान रेलवे आज भी चालीस और पचास के दशक में अटका हुआ है। उनके ट्रेनों के नाम, डिब्बों के रंग, लोकोमोटिव, स्पीड, सुविधा, कोच सब का सब चालीस पचास साल पीछे हैं। बंटवारे के वक्त कराची और लाहौर रेलवे स्टेशन जहां छूट गये थे वहीं आज भी खड़े हैं।
इधर भारत में क्योंकि ट्रेन में नमाज कम्पार्टमेन्ट की तरह पूजाघर बनाने की कोई सोच नहीं थी लिहाजा रेलवे परिवहन ही बना रहा। साठ के दशक में ही अमेरिकी एल्को लोको के साथ समझौता करके डीएलडब्लू की स्थापना की गयी जो आज सालाना साढे तीन सौ डीजल इंजन बनाता है। इसके बाद पश्चिम बंगाल में सीएलडब्लू की स्थाना की गयी जो करीब डाई सौ इलेक्ट्रिक लोको हर साल बनाता है। मतलब जितना इस वक्त पाकिस्तान और बांग्लादेश को मिलाकर कुल डीजल इंजन हैं उतना हर साल डीएलडब्लू और सीएलडब्लू मिलकर नये इंजन बना देता है। 1952 में ही इंटीग्रल कोच फैक्ट्री की स्थापना कर दी गयी थी जो रेलवे को आधुनिक कोच मुहैया कराता। रेलवे की बढ़ती मांग को देखते हुए 1986 में दूसरी कोच फैक्ट्री कपूरथला में और 2008 में तीसरी कोच फैक्ट्री रायबरेली में स्थापित की गयी। अभी चौथी और पांचवी कोच फैक्ट्री केरल और कर्नाटक में बनायी जा रही है।
डीएलडब्लू और सीएलडब्लू के अलावा बिहार में दो रेल इंजन कारखाना लगाने की मंजूरी दे दी गयी है जो मधेपुरा और मरहौरा में लगाये जाएंगे। मधेपुरा में फ्रांस की आल्स्टम इलेक्ट्रिक लोको और अमेरिका की जीई कंपनी मरहौरा में डीजल लोको बनाएगी। यह दोनों फैक्ट्री अगले तीन साल में उत्पादन शुरू कर देंगी। इसी तरह ट्रैक में सुधार की कोशिशें अस्सी के दशक में ही शुरू हो गयी थीं नतीजा आज यह है कि 130 किलोमीटर की अधिकतम गति से ट्रेने कई रूट पर दौड़ रही हैं। दिल्ली आगरा रूट पर यह सीमा 160 किलोमीटर तक पहुंच चुकी है। उम्मीद है इसी साल रेलवे 200 किलोमीटर की अधिकतम गति के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। स्पेन की टाल्गो कंपनी का परीक्षण अगर सफल रहा तो ट्रैक में बिना किसी बड़े बदलाव के दिल्ली मुंबई के बीच 200 किलोमीटर की स्पीड से ट्रेन चलाई जा सकेगी।
इन कोशिशों का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम यह कह सकें कि भारतीय रेलवे यूरोपीय मानकों पर पहुंच गयी है। ट्रेन परिचालन और नागरिक सुविधाओं के लिहाज से भारत शायद अपनी आबादी के कारण उस मानक तक पहुंच भी नहीं पाये लेकिन चीन ने जिस तरह से हाई स्पीड ट्रेन में निवेश किया है वह एक रास्ता दिखाता है। जैसे रेलवे की पांच श्रेणी होती है, पहला दर्जा, दूसरा, तीसरा, स्लीपर और जनरल। इसी तरह रेलवे को भी पांच दर्जों में अपना विकास करना होगा जिसमें एक सिरे पर यूरोपीय मानक के बराबर की ट्रेनें दौड़ेंगी तो दूसरे सिरे पर सिर्फ जनरल कोच वाली ट्रेन भी चलेगी। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में दोनों सिरों के विकास के बिना रेलवे का विकास संभव नहीं है।
इस लिहाज से देखें तो वर्तमान सरकार की कोशिशें दूरगामी परिणा देनेवाली हैं। पहली बार रेल विभाग के काम काज में ऐसा दिख रहा है जब घोषणा और परिचान के बीच की दूरी घट रही है। जो घोषणा होती है वह एक ही वित्तीय वर्ष में लागू भी होती है। रेलवे जैसे सरकारी बाबूशाही वाले महकमें के लिए यह एक अच्छा संकेत है। बुलेट ट्रेन से लेकर अन्त्योदय एक्सप्रेस चलाने की योजना भारत की विविधता को समायोजित करता है।
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