भारत में एक कहावत आम है। झूठ अपने को ही खा जाता है। यह कहावत इन दिनों पाकिस्तान पर बखूबी लागू हो रही है। आतंकवाद का जो झूठ पाकिस्तान तीन दशक से बोलता हा है अब वही आतंकवाद उसे खा रहा है। तालिबान के रूप में पाकिस्तान के देओबंदी मदरसों ने जो घाव पाकिस्तान के शरीर पर दिये थे अब वही घाव नासूर बनकर पाकिस्तान से रिस रहे हैं। हालात यहां तक बिगड़ चुके हैं कि बीते एक दशक से पाकिस्तान की फौज अपनी ही जमीन पर जंग लड़ने के लिए मैदान में है और इस बात के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं कि हाल फिलहाल में यह जंग कभी खत्म होगी या नहीं।
जनरल जिया के जमाने में पाकिस्तान ने घोषित तौर पर आतंकवाद को अपनी स्टेट पॉलिसी का हिस्सा बना लिया था। पाकिस्तान में उस मुल्ला मिलिट्री एलायंस को मजबूत किया गया जो कि इकहत्तर की जंग में अलग अलग होकर बांग्लादेश में लड़ रही थी। भुट्टो की राख पर खड़े हुए जनरल जिया ने इसे आधिकारिक जामा पहनाते हुए मुजाहिद घोषित किया और अमेरिका के कहने पर अफगानिस्तान में सोवियत फौजों के खिलाफ इस्तेमाल करना शुरू किया। जिया उल हक का पहला अफगान मुजाहिद बना गुलबुद्दीन हिकमतियार। अफगान मूल का गुलबुद्दीन अफगानिस्तान पर शासन करना चाहता था। अफगानिस्तान के सोशलिस्ट सांचे में वह फिट नहीं हुआ तो उसने इस्लामिक स्टेट का रास्ता अख्तियार किया। इसी रास्ते को जिया उल हक ने वह सच्चा रास्ता माना जो किसी मुसलमान का आखिरी लक्ष्य होता है।
गुलबुद्दीन से शुरू हुई अफगानिस्तान में तालिबान की कहानी आज मुल्ला मंसूर तक आ गयी है। जिस तालिबान को पाकिस्तान ने अफगानिस्तान पर कब्जा करने के लिए पैदा किया था वह खुद उसके कब्जे में आ गया। अफगानिस्तान में तालिबान अमेरिकी रणनीति का हिस्सा था। तालिबान के जरिए उसने सोवियत संघ को बाहर निकाला और फिर खुद सामने आकर तालिबान को बाहर निकाल दिया। उस नार्दर्न एलायंस को अपना साथी बना लिया जो कभी खुद तालिबान मूवमेन्ट का हिस्सा था और जिस पाकिस्तान से उसने कहा था कि तुम मुजाहिद तैयार करो उसी से कहने लगा कि तालिबान को खत्म करने में अमेरिका का साथ दो।
अब पाकिस्तान के लिए यह ऐसी स्थिति थी जिसे वह उगल भी नहीं सकता था और निगल भी नहीं सकता था। जिन तालिबान को उन्होंने हक्कानिया मदरसे से तैयार किया था अब उनके हक को कैसे मार सकते थे। वह मिलिट्री मुल्ला एलांयस जिसका पौधा जिया उल हक ने लगाया था अब वह पूरे पाकिस्तान को अपने छांव में ले चुका था। काबुल में इस्लामिक स्टेट कायम करने में असफल रहने के बाद तालिबान ने पाकिस्तान में ही इस्लामिक स्टेट कायम करने का ऐलान कर दिया। पाक अफगान बार्डर से सटे इलाकों में जहां कभी आइएसआई ने तालिबान का भर्ती अभियान चलाया था अब वही इलाका तालिबान के कब्जे वाला पाकिस्तान बन गया।
ऊंट तंबू के भीतर आ चुका था और तालिबान के पैरोकार रेत में मुंह छिपा रहे थे। लाहौर में बैठे तालिबान के इस्लामिक आका उन्हें कश्मीर में इस्तेमाल करना चाहते थे लेकिन सफल नहीं हुए। तालिबान की अपनी रुचि सिर्फ अफगानिस्तान में थी। इसलिए फॉदर आफ तालिबान मुहम्मद शमीउल हक और उनके साझीदार हाफिज सईद और हामिद गुल जैसे नुमाइंदे पाकिस्तान को बचाने के लिए भारत की तरफ हमलावर हो गये। उन्होंने तालिबान से खुद को अलग कर लिया। उधर खुद तालिबान मूवमेन्ट कई हिस्सों में तक्सीम हो गया। तहरीके तालिबान पाकिस्तान और अफगान तालिबान का बंटवारा हो गया। वह तालिबान जो पाकिस्तान को निशाना बना रहा था उसके खिलाफ पाकिस्तान की फौज मैदान में उतर गई जबकि वह तालिबान जो अफगानिस्तान में आतंकवादी हमले कर रही थी वह फौज की जेब में चली गयी। अब पाकिस्तान इन्हीं दो तालिबान में एक से लड़ रहा है और दूसरे से लड़ा रहा है।
तालिबान पैदा करने के वे इदारे (संस्थाएं) जो बेरोजगार हो गयी थीं वे अब कश्मीर के लिए मुजाहिद पैदा करने लगीं और एक बार फिर उन संस्थाओं को पाकिस्तान सरकार उसी तरह समर्थन कर रही है जैसे उसने अफगानिस्तान में किया था। इसलिए आप कह सकते हैं कि कल भी पाकिस्तान आतंकवाद की फैक्ट्री था और आज भी वह आतंकवाद की फैक्ट्री है। एक तरफ तालिबान हैं तो दूसरी तरफ जिहादी। इनमें से कुछ पाकिस्तान के खिलाफ हैं तो कुछ पाकिस्तान के हाथ में खिलौना। मुल्ला मंसूर पाकिस्तान के हाथ में तालिबान का ऐसा ही एक खिलौना था जिसे अमेरिका ने ड्रोन हमले में मार गिराया है। लेकिन न तो मुल्ला मंसूर आखिरी तालिबान है और न ही अमेरिका का आखिरी ड्रोन हमला।
पाकिस्तान ने इस्लामिक आतंकवाद की जो आग लगाई थी उसमें खुद ही घिर चुका है इसके बावजूद वह आग को बुझाने की बजाय उसकी लपटों से भारत को जलने की ख्वाहिश रखता है। जो सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। एशिया में पाकिस्तान एक ऐसे टेरर सेन्टर के रूप में विकसित हो चुका है जिसकी लपटों से दुनिया का कोई देश सुरक्षित नहीं है। संभवत: अमेरिका भी इस बात को समझ गया है इसीलिए ओबामा ने कह दिया है कि आनेवाले दस सालों तक अफगान पाकिस्तान का इलाका अशांत ही रहनेवाला है। इस अशांति के बीच शांति की खोज के प्रयास भी जारी रहने चाहिए।
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