"पंडित" अल्लामा इकबाल इलाहाबाद में मुस्लिम लीग के सम्मेलन में बोलने के लिए बुलाये गये। वे बोले और दो बातों पर बोले। पहली बात ब्रिटिश हुक्मरानों से कही कि, मुुसलमानों के विकास के लिए जरूरी है कि हिन्दुस्तान में अलग राज्य दिया जाए। वे हिन्दुओं के साथ नहीं रह सकते क्योंकि हिन्दुओं और मुसलमानों की तहजीब, संस्कार, खान पान, रहन सहन में बहुत भिन्नता है। दूसरी बात मुसलमानों से बोली। उन्होंने मुसलमानों से कहा कि हमें जिस दिशा में आगे बढ़ना है वह अरबी इस्लाम नहीं होगा। वह हिन्दुस्तानी इस्लाम होगा। उस इस्लाम की जड़ें अरब में नहीं बल्कि हिन्दुस्तान में होगीं।
अल्लामा इकबाल ने जिस अलग राज्य की मांग की थी वह मुस्लिम लीग को इतनी पसंद आयी कि उसने अल्लामा इकबाल को अपना अध्यक्ष निर्वाचित कर लिया। यहीं मांग आगे चलकर पाकिस्तान की मांग बन गयी और 1947 में हिन्दुस्तान तीन हिस्सों में बंट गया। उधर जिस हिस्से के साथ अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान मांगा था वही हिस्सा पाकिस्तान बना लेकिन अंग्रेजों ने बोनस में बंगाल का भी विभाजन कर दिया। इकहत्तर में बोनस वाला पाकिस्तान माइनस होकर बांग्लादेश बन गया और उसी रास्ते पर आगे बढ़ गया जिसका जिक्र इकबाल ने इलाहाबाद के सम्मेलन में किया था। हालांकि उसने इकबाल को अपनाने की बजाय कवि नजरूल इस्लाम और रवीन्द्र नाथ टैगोर को अपनाया लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? अल्लामा इकबाल ने जिन जड़ों की बात की थी वह बांग्लादेश ने पकड़ ली थी।
लेकिन वह पाकिस्तान चूक गया जिसके लिए अल्लामा इकबाल ने हिन्दुस्तानी इस्लाम का ख्वाब देखा था। पंजाबी, सिन्धी और पख्तूनों को मिलाकर बने पाकिस्तान में समय के साथ इन तीनों का ही सांस्कृतिक सफाया हो गया। मुहाजिरों के साथ भागकर पाकिस्तान पहुंची दिल्ली दरबार की उर्दू ने पाकिस्तान के लिए पूरब के दरवाजे बंद करके अरबी और फारसी के लिए पश्चिम के दरवाजे खोल दिये। लेकिन ये दरवाजे सिर्फ भाषा के लिए ही नहीं खुले। उस अरबी संस्कृति के लिए भी रास्ता तैयार हो गया जिससे बचने की सलाह 1930 में अल्लामा इकबाल ने दिया था। अब आज पाकिस्तान अल्लामा इकबाल को अपना मसीहा तो मानता है लेकिन उनकी बात नहीं मानता।
लेकिन यह त्रासदी अकले पाकिस्तान की नहीं है। इस त्रासदी का शिकार भारत भी है। भारत के मुसलमान बांग्लादेश का उदाहरण सामने नहीं रखते। वे पाकिस्तान का पीछा करते हैं। हालांकि धार्मिक रूप से भारत के मुसलमान पाकिस्तान के मुसलमानों से बहुत आगे हैं और दीनी मामलात में पाकिस्तान का मुसलमान भारत का पीछा करता है लेकिन बराबर की आबादी होने के बाद भी वे पाकिस्तान के मुसलमानों के सामने अपनी हीनभावना से उबर नहीं पाते हैं। इसलिए पाकिस्तान की देखा देखी भारत में भी शिया और सुन्नी दोनों ही पाकिस्तानी पंजाब और सिन्ध को अपना आदर्श मानते हैं। वे यह भूल जाचे हैं कि देवबंदी और बरेलवी और शिया इस्लाम के तीनों बड़े इदारे (संस्थाएं) पाकिस्तान में नहीं भारत में हैं। हिन्दुस्तान (भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) में मुसलमानों का सबसे बड़ा तीर्थ अजमेर शरीफ पाकिस्तान में नहीं, भारत में है।
लेकिन यह हीनभावना अनायास नहीं है। बांग्लादेश और बलोचिस्तान को छोड़ दें तो हिन्दुस्तान का हर मुसलमान अरब में अपनी जड़ें खोजने में लगा है। सुन्नी है तो सऊदी की तरफ देख रहा है और शिया है तो इरान की तरफ। पंजाब से लेकर बिहार तक और सिन्ध से लेकर हैदराबाद तक मुसलमान कहीं भी अपनी जड़ों से उखड़ने को "सच्चा इस्लाम" मान बैठा है। पाकिस्तान के रास्ते भारत में फैले बहावी और सलाफी इस्लाम के इमामों और बुद्धिजीवियों ने मुसलमानों के भीतर एक आम धारणा बिठा दी है कि जितना ज्यादा से ज्यादा हम अरबी रहन सहन, खान पान, वेशभूषा हम अपनाते जाएंगे उतने ही सच्चे मुसलमान बनते जाएंगे। दाढ़ी, पाजामे, बुर्के का तर्क इतना हावी है कि इन मुद्दों पर दूसरी कोई राय होने का मतलब इस्लाम और कुरान की हुकुम उदूली है। असर इतना गहरा है कि गमछा भी वह सिर पर रखने की रिवायत शुरू हो गयी है जो सउदी अरब के लोग अपने सिर पर रखते हैं।
1930 से पहले भी निश्चित रूप से ऐसे कुछ लक्षण दिख रहे होंगे इसीलिए अल्लामा इकबाल ने इस ओर इशारा किया था लेकिन 1947 के बाद तो जैसे बांध ही टूट गया। गंगा के किनारे का मुसलमान भी नखलिस्तान में सांस्कृतिक स्वर्ग की तलाश में जुट गया है। इस्लाम के नाम पर उन्हीं जड़ों को खोद रहा है जिससे उसका अस्तित्व जुड़ा हुआ है।
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