Monday, April 28, 2014

दिल्ली के दल का कश्मीर में दखल

घाटी में घूम घूमकर जब तक फारुख अब्दुला मोदी वध का नारा दे रहे थे, तब तक किसी ने बहुत कान न दिया। फारुख अब्दुल्ला की राजनीतिक छवि एक अवसरवादी की है और उनके राजनीतिक विरोध तथा समर्थन का आधार कभी बहुत स्थाई नहीं रहा है। लेकिन जिस मोदी पर वे लगातार राजनीतिक हमले कर रहे थे, उन मोदी ने जब फारुख अब्दुल्ला को जवाब दे दिया तो हंगामा हो गया। आम चुनाव के दौरान पहली बार कश्मीर राष्ट्रीय पटल पर उभर आया। राष्ट्रवाद और अलगाववाद के बीच फंसी कश्मीर घाटी का नासूर से एक बार फिर रिसकर दर्द बाहर निकलने लगा।

राष्ट्रवादी तबका दिल्ली और देश के किसी भी दूसरे हिस्से में बैठकर कश्मीर पर अपना दावा जताता है तो घाटी के अलगाववादी इसे दिल्ली की साजिश करार देकर पुरजोर विरोध करते हैं। शायद यही कारण है कि कश्मीर घाटी राजनीतिक रूप से कभी भारतीय नक्से के साथ एकाकार नहीं हो पाया। आतंकवाद के भीषण दौर के बाद आई राजनीतिक सक्रियता के समय में भी अलगाववादी कश्मीर समस्या की आवाज उठाते रहे और दिल्ली में बैठे दल हमेशा उनके सामने लाचार नजर आते रहे।

कश्मीर में सैन्य समाधान के बाद राजनीतिक समाधान की दिशा में वैसे भी दिल्ली ने कभी बहुत काम नहीं किया। एक राष्ट्र होने के नाते कश्मीर में जो एक पोलिटिकल पालिसी होनी चाहिए थी, उसका वहां हमेशा अभाव रहा। अगर हम पोलिटिकल पॉलिसी के बारे में सोचते तो शायद हमें महसूस होता कि घाटी में कयुनिस्ट पार्टियों का प्रभुत्व थोड़ा और बढ़ा होता तो कश्मीर में अलगाववाद की समस्या इतनी विकट कभी न होती जैसी होती गई। धर्म के नाम पर विभाजन के मुहाने पर खड़े जम्मू कश्मीर में मोहम्मद युसुफ तारीगामी अकेली आवाज बनकर रह गये। लेकिन अब जम्मू कश्मीर की समस्या का राजनीतिक समाधान निकल सकता है। जो काम कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं कर पाईं वो काम आम आदमी पार्टी कर सकती है।

प्रशांत भूषण को गाली देने या उनके घर पर हमला कर देने से कश्मीर समस्या का कोई समाधान नहीं निकलने वाला। कश्मीर में कमजोर कांग्रेस और घाटी में नदारद भाजपा से किसी राजनीतिक समाधान की उम्मीद करना बेकार है। दोनों ही दल देश के दूसरे हिस्से में कश्मीर का सौदा कर सकते हैं लेकिन उनकी इस सौदेबाजी से खुद कश्मीर की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। जम्मू कश्मीर के दो बड़े सियासी दल नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी की अपनी राजनीतिक मजबूरियां हैं। भारत सरकार के विरोधियों को समर्थन दिये बिना उनकी राजनीति कभी सफल ही नहीं हो सकती। जो विपक्ष में रहेगा दिल्ली विरोधी भाषा बोलना उसकी राजनीतिक मजबूरी होगी।

इसलिए जो भाषा कल तक महबूबा मुफ्ती बोलती थीं, आज फारुख अब्दुल्ला को बोलना पड़ रहा है। लेकिन अब्दुल्ला तो दिल्ली विरोधी भाषा बोलने की बजाय मोदी विरोधी भाषा बोल रहे हैं। कमअक्ल लोग इसे 'देशद्रोह' या 'राष्ट्रद्रोह' जैसी उपाधि दे सकते हैं लेकिन फारुख अब्दुल्ला की मोदी से यह 'नफरत' कश्मीर से भारत के कमजोर रिश्तों के लिए बहुत फायदेमंद है। कूटनीतिक तौर पर फारुख अब्दुल्ला की यह भाषा कम से कम लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्थानीय कश्मीरियों को शामिल होने के लिए उकसायेगी भले ही उसके मूल में मोदी विरोध ही क्यों न निहित हो।

अलगाववादी भारत विरोध का नारा बंद करके अगर मोदी विरोध का नारा बुलंद कर रहे हैं तो मोदीवादियों के इतर और किसी को इसका विरोध नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र का विरोध करने से अच्छा है कि हम लोकतंत्रिक प्रक्रिया में शामिल किसी व्यक्ति या विचार का विरोध करें। ऐसा करते हुए कम से कम हम उस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल तो रहते हैं।

और यही राजनीतिक प्रक्रिया का वह हिस्सा है जो आम आदमी पार्टी से घाटी में नयी उम्मीद जगाता है। जिस तरह से अन्ना आंदोलन के बाद से घाटी में आम आदमी पार्टी को लेकर समर्थन और उत्साह दिखा है वह उम्मीद की एक किरण तो दिखाता ही है कि दिल्ली का कोई दल कश्मीर में दखल दे सकता है। दिल्ली और कश्मीर के बीच जिस दूरी के कारण दिक्कतें परवान चढ़ीं हैं उसे आम आदमी पार्टी कुछ उसी तरह से दूर कर सकता है जैसे कांग्रेस ने उत्तर पूर्व में किया है। अच्छा हो कि आम आदमी पार्टी का विस्तार बाकी देश के हिस्सों से ज्यादा कश्मीर घाटी में हो। अगर ऐसा होता है तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं होगा जब हिन्दू राष्ट्रवाद और कांग्रेसी अवसरवाद से आजिज आये घाटी के नौजवान देश की मुख्यधारा में आने से परहेज करना बंद कर देंगे।

Thursday, April 17, 2014

मोदी की तकनीकशाही

उनकी उपस्थिति अब पूरी तरह से आभाषीय हो गई। एक साथ बिना एक भी जगह पहुंचे सौ सौ जगह मोदी भाषण कर रहे हैं। चमत्कार है। खुद मोदी भी इस चमत्कार से कम चमत्कृत नहीं है। तकनीकि चमत्कार के 'ऐतिहासिक दिवस' 11 अप्रैल को थ्री डी तकनीकि से 100 जगह जन समूहों को संबोधित करने के साथ उन्होंने धेनकनाल, धमतरी और बालासोर में पहले से प्रायोजित तीन रैलियों को भी संबोधित किया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब नरेन्द्र मोदी ने चमत्कारिक आभाषीय उपस्थिति दर्ज करवाई है। दो साल पहले जब गुजरात विधानसभा के चुनाव हो रहे थे, तब मोदी ने पहली बार इस तकनीकि का इस्तेमाल अपने प्रचार में किया था। और अब वे इसे राष्ट्रीय पटल पर इस्तेमाल करके तकनीकि का एक और चमत्कार दिखा रहे हैं।

इसमें कोई बुराई नहीं है। उलटे यह अच्छी बात है कि धोती कुर्ता छाप नेता टेकसैवी हो रहे हैं। जिस देश की सवा अरब आबादी में एक चौथाई इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगा हो उस देश में राजनीति को भी तकनीकि की उपेक्षा करना ठीक नहीं है। नयी नयी पैदा हुई आम आदमी पार्टी का तो पूरा विस्तार ही सोशल नेटवर्किंग साइट्स और मोबाइल मैसेजिंग के बल पर हुआ है। मोदी भी वह सब तकनीकि इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन चुनाव में भारी पूंजी खर्च के आरोप से घिरे नरेन्द्र मोदी की यह थ्रीडी तकनीकि सिर्फ तकनीकि आयामभर नहीं है। इसके निहितार्थ दूसरे हैं। और गहरे हैं।

वैसे तो औद्योगिक तकनीकि ही इस आरोप से मुक्त नहीं है कि उसके कारण दुनियाभर में जबर्दस्त केन्द्रीकृत ध्रुवीकरण हुआ है। याद करिए महात्मा गांधी को। वे तो परिवहन साधनों में भी तकनीकि के उन्नत इस्तेमाल के खिलाफ थे। जब गांधी ऐसा कहते या करते थे तो ऐसा सोचना ठीक नहीं होगा कि उन्हें तकनीकि का त भी पता नहीं था। असल में धुर औद्योगिक देश के उन्नत तकनीशियन भी अब मानने लगे हैं कि जिन्दगी को सरल बनाने के लिए दुनिया में विकसित हुई तकनीकि पद्धितियों ने जीवन को बहुत जटिल बना दिया है। कहीं कहीं तो जीवन में बहुत अमानवीय हस्तक्षेप भी शुरू कर दिया है। हॉलीवुड में बननेवाली फिल्में अक्सर इस डर को सामने रखती रहती है कि उन्नत अवस्था में तकनीकि कैसे मनुष्यता के विनाश का कारण बन जाएगी। मशीनों के भीतर सोचने की तकनीकि विकसित करते ही (जो कि अब कुछ हद तक संभव है) मनुष्य मशीनों का गुलाम होना शुरू हो जाएगा। जब मशीन की अपनी तकनीकि हो जाएगी तो मनु्ष्य उनके लिए दुश्मन हो जाएगा। फिर भी गांधी जी का विरोध इतना भी उन्नत नहीं था। वे तो बहुत सामान्य शब्दों में तकनीकि का विरोध करते थे जिसके मूल में श्रम का अनादर, समाज का बंटवारा, मानवीय जीवन की अशांति जैसी बातें होती थीं। गांधी के विरोध को बहुत सतही तौर से प्रस्तुत किया गया और तकनीकि को इन्वीटिबल (अनिवार्य और अपरिहार्य) करार दे दिया गया।

हम दुनिया के बीते दो सवा दो सौ सालों के तकनीकि विकास की गाथा न भी सुनें तो जरा बीते दो दशक के ही तकनीकि विकास को देख लें। नब्बे के दशक से शुरू हुई सूचना तकनीकि ने महज दो दशक में इंसानी सभ्यता के भीतर इतना बड़ा विस्तार किया है जितना औद्योगिक क्रांति ने दो सौ सालों में नहीं किया था। सूचना तकनीकि के कांधे पर सवार नये तरह की तकनीकि ने सूचना, संवाद और संप्रेषण में इतने क्रांतिकारी आयाम जोड़ दिये कि दुनिया सिमटकर एक स्मार्टफोन में समा गई है, और स्मार्टफोन किसी आदमी की जेब में। यह पूरा तकनीकि विकास चमत्कारिक तो है लेकिन औद्योगिक सभ्यता के विकास के साथ दुनिया में जिस उदार केन्द्रीयकरण के बीज बोये थे, इसने उसे वटवृक्ष के रूप में सींचना शुरू कर दिया है। गांधी जी जिस केन्द्रीय चरित्र के कारण तकनीकि को शैतान समझतें होंगे वह गांधी जी के रहते भले ही अपने पूरे चरित्र में उभरकर सामने न आ पाया हो लेकिन अब इक्कीसवीं सदी में वह तकनीकि अपने उसी केन्द्रीयकरण की खूबी के सात दुनियाभर में दनदनाता हुआ घूम है। थ्रीडी तकनीकि इसी केन्द्रीय चरित्र का अगला पड़ाव है।

जैसे जैसे हम वैश्विक होने का दम भरते हैं वैसे वैसे हम अनजाने में एक किस्म के केन्द्रीयकरण की वकालत भी करने लगते हैं जिसका वैश्विक चरित्र तो होता है लेकिन उसकी कोई स्थानीयता नहीं होती। मसलन, पूरी दुनिया में सूचना एवं संचार क्रांति का वाहक बने इंटरनेट के ज्यादातर सर्वर दुनिया के एक ही देश में लगे हैं। अमेरिका में। चीन ने जरूर अमेरिका को चुनौती देने की कोशिश की लेकिन अपने स्थानीय चरित्र और खूबी के कारण वह चीन के भीतर अमेरिका की बढ़त को कम करने में तो कामयाब हुआ लेकिन दुनिया के मानचित्र पर कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं करा सका। यह बात भले ही सुनने में उतनी महत्वपूर्ण न लगती हो लेकिन विश्व राजनीति में इसे डाटा पालिटिक्स कहा जा सकता है। जूलियन असांजे हों कि स्नोडेन, उन्होंने इसी डॉटा पालिटिक्स को चुनौती दी थी, जो पूरी दुनिया के लिए खतरे की सूचना थी।

संसार के मानचित्र पर अभी तक जितने तानाशाह स्थापित हुए हैं उन्होंने विकल्पहीनता पैदा करने के लिए अपनी अपनी तकनीकि का सहारा लिया है। मोदी और उनका प्रचारंत्र इस मामले में सबसे अनोखा है कि उसने वास्तविक परिस्थितियों से विकल्पहीना का अहसास कराने की बजाय छद्म तकनीकि का सहारा लिया है। बिल्कुल किसी एक सफल कारपोरेट घराने की तरह। फिर भी, हम यहां 'डाटा पालिटिक्स' की बजाय 'रीयल पॉलिटिक्स' की बात कर रहे हैं। भारत के आम चुनाव में बीजेपी के प्रवक्ता ने कुछ दिनों पहले बहुत गर्व से यह बात मीडिया को बताई थी कि "दुनिया में यह पहली बार हो रहा है जब हम इस तरह अत्याधुनिक तकनीकि का इस्तेमाल करने जा रहे हैं।" चमत्कृत रह जाने के लिए प्रवक्ता नकवी का यह बयान पर्याप्त है। लेकिन जो नकवी भी नहीं जानते वह सच्चाई यह है कि तकनीकि जब व्यापार में इस्तेमाल होती है तो वह औद्योगिक तानाशाही पैदा करती है, और ठीक वही तकनीकि जब बेलगाम रूप से राजनीति में इस्तेमाल होने लगती है तो उससे व्यक्तिवादी तानाशाही का विकल्प पैदा होता है। अगर आप देश में विकल्प के रूप में नरेन्द्र मोदी के उभार का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि मीडिया की नहीं बल्कि उसी आधुनिक संचार तकनीकि की पैदाइश हैं जिसने बीस साल के भीतर दो सौ साल की यात्रा पूरी कर ली है। नरेन्द्र मोदी का 'मिशन मोदी' किसी राजनीतिक दल, मीडिया हाउस या बौद्धिक बहसों में शुरू नहीं हुआ था। इसकी शुरूआत तकनीकि के इसी उन्नत संस्करण से शुरू हुआ था जिसमें सोशल मीडिया भी शामिल हैं और मोबाइल का संसार भी।

सोशल मीडिया, टेलीवीजिन मीडिया, मोबाइल इन तीन प्लेटफार्म का इतना जमकर इस्तेमाल किया गया कि सालभर में मोदी नामक महाबली किसी भी दल, नेता, विचार को पटकने में सक्षम हो गया। कुछ छद्म और कुछ वास्तविक समर्थकों की वास्तविक और आभाषीय टीमों ने (जिसमें रोबोट्स भी शामिल हैं।) संचार तंत्र को इतनी बुरी तरह प्रभावित किया कि हर व्यक्ति के सामने विकल्पहीनता की स्थिति पैदा कर दी गई। हर किसी को एक ही बात समझाई जाने लगी कि मोदी के अलावा देश के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। दो साल पहले तक जो मुख्यधारा मीडिया मोदी का नाम लेने से चिढ़ता था, अचानक ही उसे भी 'मोदी की लोकप्रियता' प्रभावित करने लगी। टेलीवीजन मीडिया की इसी प्रभावित अवस्था ने उनके राजनीतिक दल को यह मानने के लिए मजबूर कर दिया कि मोदी हमारी पार्टी के सबसे 'लोकप्रिय नेता' हैं। ऐसा नहीं है कि वे 'मोदी की वास्तविक लोकप्रियता' से नावाकिफ थे, लेकिन जो आभाषीय चरित्र बड़ी सम्मोहक अवस्था में ठाठ मारे सामने खड़ा हो उससे भला कैसे इंकार किया जा सकता है? छद्म का इस्तेमाल एक छद्म गढ़ने में इतने करीने से किया गया कि महाबली मोदी पहले एक दल के सबसे लोकप्रिय नेता बने फिर देश के सबसे लोकप्रिय नेता में शुमार हो गये। तकनीकि के छद्म का इस्तेमाल करके सारी वास्तविकता को झुठला दिया गया और मोदी अपरिहार्य हो गये बिल्कुल तकनीकि की तरह।

अब वही छद्म और अधिक उन्नत अवस्था में थ्रीडी तकनीकि के जरिए मोदी को सौ सौ जगह एक साथ ले जा रहा है। आनेवाले करीब एक महीने में यह तकनीकि करीब एक हजार जगह मोदी दर्शन करायेगा। इसके अलावा उनके प्रचार तंत्र के दूसरे प्लेटफार्म दिन रात सक्रिय हैं ही। आउटडोर, इनडोर, डिजिटल प्लेटफार्म, टीवी और प्रिंट के प्लेटफार्म से मोदी का प्रसार पूरे जोर शोर से जारी है। मजबूत और सुनियोजित प्रचारतंत्र के जरिए कमोबेश ऐसा स्थिति पैदा कर दी गई है कि कोई व्यक्ति सुबह उठे तो अखबार में विकल्प के रूप में मोदी को पायेगा। सफर करे तो रास्ते में विकल्प के रूप में मोदी को ही पायेगा। बात करने के लिए स्मार्टफोन उठायेगा तो वहां भी मोदी को पायेगा। आफिस के कम्पयूटर पर काम करने बैठेगा तो भी विकल्प के रूप में मोदी को ही पायेगा। और लौटकर घर आया और टेलीवीजन चालू करेगा तो वहां भी सब समस्याओं का समाधन रूपी विकल्प मोदी ही दिखाई देंगे। जाहिर है, जब विकल्प की इतनी बड़ी तादात में इतनी सहज उपलब्धता होगी तो निर्णय करना ज्यादा मुश्किल नहीं रह जाएगा कि सब समस्याओं का एक ही समाधान है मोदी और मोदी की पीएम वाली कुर्सी। इस देश में दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा है जो उसकी समस्याओं का समाधान कर सकेगा। और फिर तब तक मोदी का प्रचारतंत्र संचालित कर रही चुस्त और चालाक मीडिया विज्ञापन एजंसी यह नारा सामने कर देती है कि : अबकी बार मोदी सरकार। इस तरह छद्म के सहारे विकल्पहीनता का इतना 'सफल विकल्प' प्रस्तुत कर दिया जाता है कि बाकी सब विकल्प अपने आप समाप्त हो जाते हैं।

यह प्रचारतंत्र की तानाशाही है जो विकल्प की विकल्पहीनता पैदा कर देती है। अगर व्यापार की बात होती तो बात दूसरी थी। व्यापार में तकनीकि ने बड़े करीने से विकल्पहीनता पैदा किया है। सफेद दांत सिर्फ कोलगेट से ही चमक सकते हैं और बालों की सारी खूबसूरती का राज हिन्दुस्तान लीवर के किसी शैम्पू में छिपा होता है। ठीक इसी तरह सब प्रकार की राजनीतिक, राजनयिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक समस्याओं का समाधान सिर्फ मोदी नाम में मोजूद है। तानाशाह भी ऐसा छद्म प्रस्तुत करते हैं लेकिन सत्ता हासिल करने के बाद। अतीत के रावण का जिक्र न भी करें तो आधुनिक युग के हिटलर, मुसोलिनी, माओ, पोलपोट, सद्दाम, गद्दाफी अपनी अपनी तरह से सब प्रकार के समस्याओं के एकमात्र समाधान ही थे। मोदी इस मामले में थोड़ा अलग हैं। उन्होंने लोकतंत्र को बहुत लोकतांत्रिक तरीके से तानाशाही विकल्प दिया है जिसके मूल में तकनीकि और पूंजी का बहुत चतुराई से इस्तेमाल किया गया है। बिल्कुल किसी चतुर कारपोरेट घराने की तरह। जिसका नतीजा यह है कि तकनीकि के मकड़जाल और प्रचारतंत्र से प्रभावित हो चुका आपका दिमाग भी अब तक समझ ही चुका होगा कि मोदी के अलावा देश में दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

पता नहीं त्रेता युग में रावण ने लंकावासियों के सामने कैसे यह विकल्पहीनता पैदा की थी, लेकिन कलियुग के इस लोकतंत्रकाल में मोदी और उनका प्रचारतंत्र तो आभाषीय तकनीकि और पूंजी का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल करके वह विकल्पहीनता का विकल्प बनने में कामयाब हो चुका है, जिसे हासिल करने के लिए त्रेता युग में रावण को सोने की वास्तविक लंका बनानी पड़ी थी।

Wednesday, April 9, 2014

काजल की कोठरी में केजरी

केजरीवाल पर एक बार फिर वही प्रहार। कभी उनके ऊपर स्याही फेंक दी जाती है। कभी थप्पड़ मार दिया जाता है। कभी गाली दे दी जाती है। सिर्फ बम और गोली बची है। नहीं तो जिस तरह से अरविन्द केजरीवाल को अब तक निशाना बनाया गया है, अगर उन हमलों के दौरान हमलावर गोली बारुद लेकर केजरी के पास तक पहुंचा होता तो अब तक उनका काम तमाम हो चुका होता। दिल्ली में केजरीवाल के उभार के साथ ही देश में एक खास राजनीति का समर्थक वर्ग ऐसा हो गया है जो उन्हें जब तब निशाना बनाता रहता है। और केवल केजरीवाल ही क्यों? आम आदमी पार्टी के अन्य नेता भी ऐसे हमलों का शिकार हो चुके हैं। योगेन्द्र यादव। कुमार विश्वास। प्रशांत भूषण। कौन बचा है जिस पर अब तक डायरेक्ट अटैक न किया गया हो? टीम केजरीवाल पर दोतरफा हमले हो रहे हैं। एक तरफ अगर जमीन पर कुछ सिरफिरे लोग सीधा हमला बोल रहे हैं तो उन्हीं सिरफिरों के आका लोग अपने बयानों से केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी को निशाना बना रहे हैं। 

दिल्ली में विधानसभा चुनाव के साथ ही देश की राजनीति में एक नाम बड़ी तेजी से उभरा था- अरविन्द केजरीवाल। चुनाव परिणाम आने से पहले तक खुद केजरीवाल को भी भरोसा नहीं था कि वे लोगों के मन में कौन सी आग लगा चुके हैं। नतीजों ने बताया कि लोग काजल की कोठरी में परिवर्तन की रोशनी चाहते हैं। शायद इसीलिए परिणाम आने के बाद खुद केजरीवाल ने कहा कि उन्हें खुद इतनी बड़ी जिम्मेदारी की उम्मीद नहीं थी। लेकिन केजरीवाल ने सिर्फ दिल्ली विधानसभा में बड़ी जीत ही दर्ज नहीं की। उन्होंने एक अनोखे तरह से सरकार भी बनाई और 50 वें दिन बहुत अनोखे अंदाज में इस्तीफा भी दे दिया।

दिल्ली में विधानसभा चुनाव के दौरान ही एक राजनीतिक दल ऐसा था जो अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी को बहुत अलोकतांत्रिक तरीके से बर्बाद करने की योजना पर अमल कर रहा था। सरकार बनाने से लेकर इस्तीफा देने तक इसी राजनीतिक दल ने दिन रात सिर्फ केजरीवाल को ही निशाने पर रखा। राजनीतिक रूप से यह निशानेबाजी होती तो कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन जिस तरह से केजरीवाल को सीआईए एजंट बताने से लेकर भगोड़ा करार देने का क्रमबद्ध अभियान चलाया गया वह न केवल अलोकतांत्रिक था, बल्कि बहुत वीभत्स और भयावह भी था। इस कथित राष्ट्रवादी दल के नेता जहां अपने बयानों से केजरीवाल के चेहरे पर कालिख लगाने की कोशिश कर रहे थे, वहीं उसी विचारधारा से जुड़े कुछ अन्य लोगों ने जब तब केजरीवाल को निशाना बनाना शुरू कर दिया। सोशल मीडिया से लेकर वास्तविक दुनिया तक सब जगह इसी राष्ट्रवादी विचारधारा ने केजरीवाल को शत्रु साबित करने का संगठित अभियान चला दिया।

अब तक राष्ट्रवादी कौमों ने जितना केजरीवाल को बदनाम करने की चाल चली है उनकी हर चाल नाकाम हुई है। अपनी सादगी और ईमानदारी की वजह से जनता के मन में केजरीवाल तेजी से जगह बनाते जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि 'राष्ट्रवादी कौमें' बौखला गई हैं और वे हर तरह से केजरीवाल पर हमले कर रही हैं, करवा रही हैं। 

एक तरफ इसी विचारधारा के लोग केजरीवाल को निशाना बनाने लगे तो इसी विचारधारा के लोगों ने सबसे ज्यादा केजरीवाल के तरीकों का इस्तेमाल भी करना शुरू कर दिया। दिल्ली विधानसभा में सरकार बनने और इस्तीफा देने के मौकों पर अगर भाजपा का रुख किसी ने देखा होगा तो उसे बताने की जरूरत नहीं रह जाएगी कि भाजपा सिर्फ विरोध के लिए विरोध कर रही थी। उसके पास केजरीवाल का विरोध करने का न कोई नैतिक बल था और न ही उचित कारण। लेकिन शायद केजरीवाल की जनता में बढ़ती स्वीकार्यता और अनोखी कार्यशैली के कारण मिलती सफलता ने इस तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टी की चूलें हिलाकर रख दी और इन्हें अपना खेल खराब होता दिखने लगा। इसलिए दिल्ली में अगर केजरीवाल को बदनाम करने के अभियान भी चलाए गये तो दूसरी तरफ उनकी टोपी का जवाब देने के लिए भगवा टोपी भी सिलवा ली गई।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली सफलता से उत्साहित आम आदमी पार्टी ने देशभर में आम चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। इससे भाजपा की बौखलाहट और बढ़ गई। भाजपा नेताओं के बयान उठाकर देख लीजिए। उनकी बौखलाहट का अंदाज लग जाता है। जिन लोगों को भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम शुरू करने के लिए केजरीवाल दिल्ली दरबार तक लेकर आये थे वे लोग भी अब बीजेपी के इशारे पर केजरीवाल को भ्रष्टाचारी कहने लगे। बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर जैसे गैर राजनीतिक लोगों ने भाजपा के ही इशारे पर केजरीवाल को निशाना बनाना शुरू कर दिया। सवाल उठता है कि आखिर केजरीवाल ने ऐसा क्या कर दिया है कि पूरा राष्ट्रवादी कुनबा बौखला उठा है?

असल में केजरीवाल ने भारी पूंजीबल से विकल्प का दावा करनेवाले नरेन्द्र मोदी का खेल खराब कर दिया है। अभी तक बीजेपी और मोदी उम्मीद कर रहे थे कि कांग्रेस के विकल्प के रूप में वे देशभर में अपनी जीत का डंका बजा लेंगे और राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें कोई चुनौती नहीं मिलेगी लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने अपनी कार्यशैली से इतनी तेजी से राष्ट्रीय विकल्प पैदा कर दिया है कि आज लोकसभा चुनाव में 'आप' के उम्मीदवार कांग्रेस और बीजेपी से ज्यादा हो गये हैं। कोई साल डेढ़ साल पुरानी पार्टी और ऐसा व्यापक विस्तार चौंकानेवाला तो है ही लेकिन उन लोगों के लिए परेशान करनेवाला भी है जो कांग्रेस को रावण बनाकर खुद राम होने का दावा कर रहे थे। देखते ही देखते एक और राम मैदान में आ गया तो इन लोगों की हालत खराब हो गई। यही कारण है कि रावण को पीछे छोड़ इन्होंने पहले उस राम को ही निपटाना शुरू कर दिया जो उनसे भी सशक्त राजनीतिक विकल्प लेकर मैदान में आ डटा था।

अरविन्द केजरीवाल को जिस अलोकतांत्रिक और घटिया तरीके से राष्ट्रवादी जमात केजरीवाल को निशाना बना रही हैं उससे उन्हें फायदा हो न हो, खुद केजरीवाल बहुत फायदे में रहनेवाले हैं। केजरी ने राजनीति की काली कोठरी में कदम रखा है। सब देख रहे हैं कि अभी तक उन्होंने अपने दामन पर कोई दाग लगने नहीं दिया है। अगर केजरी इसी तरीके से आगे बढ़ते रहे तो तय है कि बीजेपी कांग्रेस का विकल्प बनें न बने आम आदमी पार्टी बीजेपी का विकल्प जरूर बन जाएगी। कांग्रेस को रावण साबित करनेवाली 'राष्ट्रवादी' फौज इसी तरह केजरी पर 'हमले' करती रही तो वह दिन दूर नहीं जब राष्ट्रवादी कौमें खुद रावण की कतार में खड़ी नजर आयेंगी।

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