Tuesday, December 29, 2009

कांग्रेस के सवा सौ साल

कांग्रेस की पहली बैठक
कांग्रेस शब्द की उत्पत्ति उस समय के साम्राज्यवादी देश इंग्लैण्ड की बजाय वर्तमान के साम्राज्यवादी देश अमेरिका में हुई. मूल लातिन के कांन+ग्रादि का अपभ्रंस कांग्रेस शब्द का इस्तेमाल अमेरिका के विभिन्न राज्यों को एकीकृत करने के लिए होने वाली बैठकों के लिए किया गया और कांग्रेस शब्द के रूप में शायद पहली बार 1621 में प्रयुक्त किया गया.

बाद में यह शब्द यूरोप में भी काफी प्रचलित हुआ और उन्नीसवी सदी के उत्तरार्ध में इसी नाम से भारत में एक राजनीतिक दबाव समूह का गठन हुआ जिसका नाम रखा गया इंडियन नेशनल कांग्रेस. आज से सवा सौ साल पहले के देश की कल्पना करें तो औसत भारतीय का मानस आज से बहुत भिन्न रहा होगा ऐसा नहीं है. उस वक्त भी हम अपने समाज और अपने लोगों को प्रतिष्ठा नहीं देते थे, आज भी नहीं देते हैं. 1857 की क्रांति के बाद क्या राजनीतिक रूप से भारत में कोई समूह कार्यरत हो सकता था? आखिर ऐसा क्या कारण था कि ब्रिटिश गवर्नर डफरिन की इजाजत से स्काटिश अधिकारी एलेन ओक्टेवियन ह्यूम ने जो पहल की उसे ही तत्कालीन बुद्धजीवियों ने राजनीतिक विकल्प माना? व्योमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता में मुंबई में कांग्रेस की जो पहली बैठक हुई उसमें शामिल होने वाले 72 प्रतिनिधि देश को राजनीतिक रूप से मुखर करनेवाले लोग नहीं थे. संभवत: वे ब्रिटिश राज में जिस तरह की प्रतिष्ठा चाहते थे कांग्रेस पार्टी उनको यह मौका दे रही थी. आज के संदर्भों में इसे समझना हो तो आप ऐसे समझ सकते हैं कि जैसे किसी अमेरिकी संस्था की मानद सदस्यता पाने के लिए कोई भारतीय जोड़-तोड़ करे. सम्मान और प्रतिष्ठा उस वक्त ब्रिटिश साम्राज्य के साथ ही जुड़ा हुआ था इसलिए एक ब्रिटिश अधिकारी की पहल को पूरा पूरा सम्मान मिला.

28 से 31 दिसंबर तक मुंबई में हुई पहली बैठक का भारतीय जनमानस और समस्याओं से कितना गहरा लगाव था इसे आप इसी उदाहरण से समझ सकते हैं कि यह बैठक पुणे में होनी थी लेकिन उस वक्त पुणे में प्लेग का प्रकोप था इसलिए बैठक का स्थान बदलकर मुंबई कर दिया गया. स्थापना के शुरूआती दिनों में कांग्रेस का कैरेक्टर मुंबई प्रांत के नेताओं से ही निर्धारित होता रहा इसलिए अगले लगभग दो दशक तक इस दल की कोई राष्ट्रव्यापी मौजूदगी नहीं हुई. क्योंकि कांग्रेस राजनीतिक प्रतिष्ठा पाने का मंच था इसलिए इसमें वे सभी बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ जुड़ते चले गये जो ब्रिटिश साम्राज्य का कृपा पात्र बनना चाहते थे. लेकिन नियति का अपना नियम होता है. वह कब कहां से कौन सा रास्ता खोल देगी कोई नहीं जानता. भारतीय मानसिकता को फ्रेम करने के लिए गवर्नर डफरिन ने जिस कांग्रेस की स्थापना को मंजूरी दिया था, उन्नीसवीं सदी के पहले दशक में उसी कांग्रेस ने अपने अंदर से विरोध की वह चिंगारी पैदा कर ली जिसे दबाने के इसका गठन किया गया था. 1894 में ए ओ ह्यूम भारत छोड़कर वापस लंदन चले गये जहां 1912 में उनकी मृत्यु हो गयी. 1907 तक कांग्रेस में दो विचारधाराएं स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आ गयी थीं. एक विचारधारा थी गरम दल और दूसरी विचारधारा थी नरम दल. पक्षी विशेषज्ञ एओ ह्यूम की राजनीतिक पहल ने पहली दफा राजनीतिक स्वरूप अख्तियार करना शुरू कर दिया था. गोपालकृष्ण गोखले के नरम दल और बाल गंगाधर तिलक के गरम दल ने कांग्रेस को राजनीतिक शक्ल देना शुरू कर दिया.

कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल बाद जब हम गैर कांग्रेसवाद की बात करते हैं तो उसका अर्थ होना चाहिए कांग्रेस का विकल्प. देश के दुर्भाग्य से कोई भी राजनीतिक दल इस कसौटी पर खरा उतरता दिखाई नहीं देता. खुद भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस का विकल्प बनने की बजाय कांग्रेस की हमशक्ल बनना चाहती है.
1907 से 1915 तक कांग्रेस की राजनीति इन्हीं दो धड़ों के बीच बंटी रही. 1915 में कांग्रेस में गांधी युग शुरू होने से पहले बाल गंगाधर तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय और मोहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस के कर्णधार बने रहे. लेकिन 1915 में कांग्रेस में गांधी के पदार्पण के साथ ही कांग्रेस से ए ओ ह्यूम की आत्मा सदा सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी. महात्मा गांधी भी उन्हीं लोगों में से थे जो विदेश सिर्फ इसलिए पढ़ने गये थे क्योंकि विदेश में पढ़नेवाले को उस वक्त अतिशय सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और उसकी कमाई भी बहुत अच्छी होती थी. आज की तरह उस समय तकनीकि का बोलबाला नहीं था इसलिए विदेशी भूमि से डिग्री पाने के लिए कानून ही सबसे उर्वर जमीन होती थी. भारत के तत्कालीन अधिकांश नेताओं की तरह गांधी के पिता भी उन्हें एक सफल बैरिस्टर बनते हुए देखना चाहते थे. अपने जीवन के शुरूआती दिनों में गांधी अपने पिता के अनुसार सफल जीवन जीते भी रहे लेकिन जल्द ही उनके ऊपर उनके पिता की बजाय सृष्टि के सर्वव्यापी पिता की मर्जी प्रभावी हो गयी. जिस ब्रिटिश प्रणाली में प्रतिष्ठा की खोज करने गांधी विदेश गये थे अब उसी ब्रिटिश साम्राज्य को जड़ से उखाड़ देने के लिए नियति ने उन्हें महात्मा की उपाधि सौंप दी थी.

1915 से 1947 तक कांग्रेस का इतिहास आजादी के आंदोलन के एकमात्र राजनीतिक दल का इतिहास है. लेकिन 1947 के बाद अखिल भारतीय कांग्रेस का इतिहास मात्र एक राजनीतिक दल का इतिहास हो जानेवाला था. संभवत: महात्मा गांधी ने इसीलिए कांग्रेस को विसर्जित करने का भी सुझाव दिया था. ऐसा नहीं है कि 1907 से कांग्रेस में अलग अलग विचारधाराओं का जो टकराव शुरू हुआ वह 1915 के बाद बंद हो गया. फिर भी कांग्रेस बिना किसी संदेह के सबके लिए एक प्रतिनिधि दल था. ब्रिटिश साम्राज्य ने जिस राजनीतिक चेतना को डिफ्यूज करने के लिए कांग्रेस को औजार की तरह चलाया था वही अब अपनी पूरी मारक क्षमता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य पर ही प्रहार कर रहा था. 1947 में ब्रिटिश उपनिवेशवाद से छुटकारा मिलने के बाद कांग्रेस एक राजनीतिक दल के रूप में देश के सामने था. उपनिवेशवाद से मुक्ति के बाद भारत को विरासत में जो कांग्रेस मिली लंबे समय तक लोगों का उसके प्रति जुड़ाव पूरी तरह से भावनात्मक बना रहा. बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक गांव-घर के बड़े बुजुर्ग कांग्रेस को महात्मा गांधी की कांग्रेस ही समझते रहे और दुहाई देते रहे कि जिस पार्टी ने देश को आजाद करवाया आज उसे ही लोग सम्मान नहीं दे रहे हैं. लेकिन इक्कीसवी सदी में अब न वे लोग बचे हैं जो आजादी के आंदोलन से कांग्रेस को जोड़कर खुद भावनात्मक रूप से जुड़े रह सकें और न ही वह झूठ बचा है कि जो उस कांग्रेस और इस कांग्रेस के बीच एक महीन धागे के रूप में जुड़ा हुआ बताया जाता था.

उपनिवेशवाद के खात्मे के साथ ही देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति ने भी आकार लेना शुरू कर दिया. देश में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति पर सोचेंगे तो दो नाम सबसे अहम दिखाई देंगे. एक, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दो, डॉ राममनोहर लोहिया. ये दो नाम ऐसे हैं जो कांग्रेस के धरातल से पूरी तरह दूर जाकर देश में विपक्ष की स्थापना करना चाहते थे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धारा आगे चलकर लगातार मजबूत होती गयी और आज भारतीय जनता पार्टी के रूप में उस धारा का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल देश में मौजूद है जबकि राममनोहर लोहिया की धारा लगातार बिखरती चली गयी. आज जो अपने आप को लोहिया के लोग कहनेवाले भी कांग्रेस के अहाते में ही शरण पाना चाहते हैं. साठ सालों में राजनीति भी विचार और व्यवहार से हटकर सत्ता और सौदेबाजी का सब्जेक्ट हो गया है इसलिए अब गैर कांग्रेसवाद जैसा शब्द उतना आकर्षित नहीं करता जैसा सत्तर और अस्सी के दशक में करता था. अटल बिहारी वाजपेयी जैसा धैर्य भी किसी राजनीतिज्ञ में नहीं दिखता जो लंबे समय तक इस बात की प्रतीक्षा करता है कि उसे देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार देनी है. सच्चे अर्थों में अटल बिहारी वाजपेयी ने यह काम किया और देश को छह साल तक विशुद्ध गैर कांग्रेसी सरकार दिया. लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के युग के अवसान के साथ ही एक बार फिर गैर कांग्रेसवाद किनारे कर दिया गया.

आज कांग्रेस की स्थापना के सवा सौ साल बाद एक बार फिर यह अहम सवाल सामने है कि क्या देश में गैर कांग्रेसवाद है? कांग्रेस की आज जो राजनीति दिख रही है वह केन्द्र में अगली दो सरकारों तक डटे रहने की राजनीति है. कोई चमत्कार न हो तो फिलहाल अगले दो आमचुनाव में कांग्रेस को टक्कर देता कोई दिखाई भी नहीं दे रहा है. विपक्ष के नाम पर जो भी राजनीतिक दल हैं वे सत्ता के जूठन से ज्यादा कोई राजनीतिक सोच नहीं रखते हैं. वामपंथी दलों की अपनी कोई खास निष्ठा नहीं है. वे कांग्रेस के साथ यथास्थितिवाद में ज्यादा विश्वास करते हैं इसलिए उनकी चर्चा करने का कोई तुक नहीं है. और खुद भाजपा कांग्रेस का राजनीतिक विकल्प बनने की बजाय कांग्रेस का राजनीतिक हमशक्ल बनने में ज्यादा दिलचस्पी रखती है. हो सकता है भाजपा के नेता इसी में अपना उद्धार देखते हों. लेकिन सवा सौ साल बाद क्या सचमुच इस देश में गैर कांग्रेसवाद के लिए कोई जगह नहीं बची है? अगर है तो फिर उसे हमारे राजनीतिक दल पहचान क्यों नहीं पा रहे हैं? और अगर नहीं है तो फिर उसे बनाने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे हैं जैसे लोहिया और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने किया था. राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि अगर देश में लोकतंत्र को मजबूती से टिके रहना है तो गैर कांग्रेसवाद को उससे अधिक मजबूती से मौजूद रहना होगा.

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