Monday, March 28, 2016

इकबाल के पाकिस्तान का आतंक से इस्तकबाल

लाहौर के जिस इकबाल पार्क में मीनार-ए-पाकिस्तान खड़ा है उसी इकबाल पार्क पर रविवार को आतंकवाद ने धावा बोल दिया। एक बीस वर्षीय आत्मघाती हमलावर ने वह कर दिया जिसकी कल्पना शायद अल्लामा इकबाल ने भी कभी नहीं की होगी। इस हमले के बाद पाकिस्तान की नवाज सरकार ने ऐतिहासिक फैसला लिया है। लाहौर में इसाइयों को निशाना बनाकर किये गये आत्मघाती हमले के बाद सेना को कमान सौंपी गयी है कि वह पंजाब में आतंकवाद के खिलाफ अभियान चलाये। रविवार रात से पंजाब रेन्जर्स और खुफिया एजंसियों ने मिलकर अभियान शुरू भी कर दिया है और खबर है कि कुछ लोगों को पकड़ा भी गया है।

राहिल शरीफ ने जो मीटिंग की उसके बाद सेना के अधिकारी के हवाले से एक अखबार का दावा है कि सिर्फ आतंकवाद ही नहीं बल्कि पंजाब से "मजहबी मानसिकता" को नेस्तनाबूत करने का निर्णय भी लिया गया है। अगर यह सच है तो सेना कहे चाहे कुछ लेकिन पंजाब में आतंकवाद के खिलाफ उसका अभियान पाकिस्तान को ऐसी मुसीबत में फंसाने जा रहा है जिसका अंदेशा उसे जरूर होगा।

पाकिस्तान में पंजाब ही आतंकवाद की मदरलैण्ड है। कश्मीर में, अफगानिस्तान में, सिन्ध में और खैबर पख्तूनवा में जहां कहीं जिहादी आतंकवाद फैला है उसकी नर्सरी पंजाब ही रही है। और पंजाब में आतंकवाद का चेहरा सिर्फ आतंकवादी नहीं है बल्कि उसका सियासी, जमाती और खुराफाती चेहरा भी है। नवाज, शाहबाज ही नहीं बल्कि सेना भी इन चेहरों का इस्तेमाल अपनी सुविधा के लिहाज से करते रहे हैं।

पंजाब सिन्ध की तरह सीधी जलेबी नहीं है जहां रेन्जर्स जो चाहेंगे करेंगे और भुट्टो खानदान बयान देकर चुप हो जाएंगे। पंजाब जरा दूसरे तरह की जमीन है। एक पंजाबी आतंकी गुट लश्कर-ए-झांगवी के मलिक इशाक की गलती से एक मुटभेड़ में मौत हो गयी झांगवी के आतंकवादियों ने पंजाब के होम मिनिस्टर को ही उड़ा दिया। इसलिए अगर पंजाब में सेना की कार्रवाई का मतलब सिर्फ अफगानों, पठानों की गिरफ्तारी है तो फिर कुछ हासिल नहीं होनेवाला है। आतंकवाद की नर्सरी चलाने का काम शमी उल हक और हाफिज सईद जैसे लोग करते हैं। और यह बात दुनिया के दीगर मुल्कों से ज्यादा अच्छी तरह से राहिल शरीफ और नवाज शरीफ जानते हैं। तो क्या वे उस नर्सरी को खत्म करने की दिशा में कदम उठायेंगे?

जवाब न तो पूरी तरह हां हो सकता है और न ही ना। लाहौर में हमला इसाइयों पर हुआ है इसलिए चाहकर भी पाकिस्तान वैसी हीला हवाली नहीं कर पायेगा जैसा भारत के साथ करता है। पश्चिमी देश खासकर ब्रिटेन  और अमेरिका ने बीते कुछ समय अपनी पाकिस्तान नीति में बदलाव किया है। कल तक जिहाद की फैक्ट्री लगाने का पैसा देनेवाला अमेरिका अब फैक्ट्री को उजाड़ने के लिए दबाव भी बना रहा है और पैसा भी दे रहा है। इसलिए उसकी तरफ से "सख्त कार्रवाई" का दबाव आयेगा लेकिन जमीनी हालात पाकिस्तान सरकार को रोकेंगे। दारुल उलूम हक्कानिया और लाल मस्जिद जैसे मदरसे जब तक बुनियादी तौर पर सीमित नहीं किये जाते आतंकवाद की मानसिकता पर काबू पाना मुश्किल है।

अगर यह उनका आंतरिक मामला हो तो कम से कम भारत को इसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है लेकिन क्योंकि नफरत की बुनियाद भारत को बनाकर रखी गयी है इसलिए भारत का नजर रखना जरूरी है कि पंजाब में आतंकवाद का ऊंट अब किस करवट बैठता है। याद रखिए पाकिस्तान से भारत के रिश्ते का रास्ता लाहौर होकर ही इस्लामाबाद पहुंचता है।

Sunday, March 27, 2016

लाहौर का मेला चिरागां

रविवार को लाहौर खबरों में तो आया लेकिन बहुत खौफनाक वजह से। लाहौर के इकबाल पार्क में एक आत्मघाती हमलावर ने सत्तर से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया जो वहां ईस्टर की त्यौहार मनाने आये थे। यह इस्लामिक जिहाद और कट्टरता का एक और मजहबी अपराध था जो पाकिस्तान में कभी न थमने वाला सिलसिला बन गया है। लेकिन रविवार को ही लाहौर में एक और मेला शुरू हुआ जो मजहबी एकता की मिसाल है।

यह बात दीगर है कि अब लाहौर में गैर मजहबी लोग बचे ही नहीम है कि उनसे एकता कायम करने की कोशिश करनी पड़े लेकिन जब माधो शाह हुसैन हुए थे तब यहां हिन्दुओं के साथ मेलजोल बढ़ाने के लिए शाह हुसैन ने ऐसी परंपराएं डाली थीं जो आज हिन्दुओं के खत्म हो जाने के बाद अब इस्लामिक परंपरा बन गयी है। वसंत उत्सव, होली, हवनकुंड की आग और दीपावली की तरह दीये का उर्स लाहौर में शाह हुसैन की विरासत हो गयी है।

इस्लाम में आग सिर्फ एक जगह है और वह है दोजख की आग, जहां पापियों को आग में जला दिया जाता है। लेकिन लाहौर के माधो शाह हुसैन की मजार पर हर साल तीन दिन तक जलनेवाली हवनकुंड की आग उतनी ही पवित्र है जितनी कि वह है। इस यज्ञ कुण्ड में हर साल तीन दिनों तक अग्नि जलाकर रखी जाती है और लोग इसकी पूजा करके मन्नतें मांगते हैं।

माधो शाह हुसैन एक नाम नहीं बल्कि दो नाम मिलकर बने हैं। माधोलाल और शाह हुसैन। हजरत शाह हुसैन करीब चार सौ साल पहले जब पैदा हुए थे तब उनका क्षत्रिय परिवार इस्लाम कबूल कर चुका था। शाह हुसैन ने कुरान पढ़ी। और कुरान की पढ़ाई के दौरान ही एक दिन वह इस बात पर रुक गये कि यह संसार एक ख्वाब है और दुनिया में जो कुछ हो रहा है वह खेल तमाशा है। बस यहां से उनके भीतर की आध्यात्मिक शक्तियां प्रकट होने लगी और वे फकीर हो गये।

उन्हीं दिनों शाह हुसैन की मुलाकात एक ब्राह्मण बालक माधोलाल से हुई। कहते हैं शाह हुसैन को माधो से इतनी मोहब्बत थी कि कोई दिन नहीं बीतता था जब शाह हुसैन माधो से मिलते न हों। इस मेल मुलाकात और मुहब्बत पर बातें भी बनीं और माधो के परिवार की बदनामी भी हुई। इसी सबसे बचने के लिए एक बार माधो का परिवार उन्हें लेकर हरिद्वार आना चाहते थे। किसी कारण से माधो नहीं जा पाये जिसके कारण वे बहुत उदास थे। कहते हैं शाह हुसैन ने अपनी चमत्कारिक शक्ति से पलक झपकते ही माधो को हरिद्वार पहुंचा दिया। फिर इसके बाद माधो और शाह हुसैन जैसे एक ही हो गये। माधो के प्रति शाह हुसैन की ऐसी दीवानगी थी कि उन्होंने खुद को माधो का रांझा कहना शुरु कर दिया।

शाह हुसैन पर माधो की मुहब्बत का असर था कि उन्होंने वसंत मेले और रंग के उत्सव होली मनाने की शुरूआत की जो आज भारत और पाकिस्तान के सूफियों में सबसे बड़ा उत्सव होता है। पाकिस्तान के पंजाब में दो सबसे बड़े उत्सव मनाये जाते हैं जिसमें से एक वसंत उत्सव और दूसरा मेला चिरागां है। मेला चिरागां में परंपरा है कि मिट्टी के दिये ही जलाये जाते हैं और उसी से माधो शाह हुसैन के स्थान को रोशन रखे जाते हैं।

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