इधर भारत में बैठे मीडिया के लोग हाफिद सईद और मसूद अजहर के बारे में इस तरह की तस्वीर पेश करते हैं जैसे वे लोग पाकिस्तान के मुजरिम हैं, और पाकिस्तान उन्हें गिरफ्तार करके फांसी दे देगा इस तरह आतंकवाद के खिलाफ उसकी कार्रवाई का वादा मुकम्मल हो जाएगा। लेकिन वे पाकिस्तान के मुजरिम नहीं बल्कि हीरो हैं। मौलाना हैं। अमीर है। उनका जो जुर्म हमारी नजरों में उन्हें मुजरिम बनाता है उन्हीं जुर्मों की बदौलत वे पाकिस्तान के एक बड़े वर्ग में सम्मान की नजर से देखे जाते हैं। वे लोग वह काम कर रहे हैं जो करने का हुक्म उनकी कुरान में हैं। जो काम उनके नबी मोहम्मद साहब ने किया, उसी "पवित्र काम" को वे भी आगे बढ़ा रहे हैं। जिहाद के नाम पर हथियार उठाने के हुक्म उनके आका (मोहम्मद साहब) ने उन्हें दिया है इसलिए वे जो कुछ आतंकी वारदात करते हैं वह शुद्ध इस्लामिक है। अगर कोई मुस्लिम या गैर मुस्लिम उनको इस काम से रोकता है तो वह नबी के फरमान के साथ नाफरमानी करता है।
मौलाना मसूद अजहर हो या फिर मौलाना हाफिज सईद। ये दोनों ही इस्लामिक अध्ययन के बड़े विद्वान हैं। हाफिज सईद तो सेना में दीनी तालिम देता था जबकि मसूद अजहर ने भारत के खिलाफ अपना जिहादी कैरियर भी बतौर आलिम शुरु किया था। अफगानिस्तान के जिहादी जंग से घायल होकर लौटने के बाद उसने कश्मीर में सक्रिय होने के लिए एक इस्लामिक अखबार निकालना शुरु किया था। आज भी अपना नियमित मुखपत्र (माउथपीस) प्रकाशित करता है और आधा दर्जन से अधिक किताबें लिख चुका है। हाफिज सईद के नाम में हाफिज लफ्ज लगा ही इसलिए क्योंकि उसको कुरान कंठस्थ है। इसलिए पाकिस्तान में "गुड तालिबान" के बारे में बात करते समय आप इस तरह से मत सोचिए कि वास्तव में वे बैड तालिबान ही होंगे।
हाफिज सईद हो कि मसूद अजहर। वे जिहाद के जिस रास्ते पर चल रहे हैं, उनके मुताबिक उन्हें यह रास्ता उनकी कुरान और नबी ने ही दिखाया है। अपनी तकरीरों के दौरान वे अपनी हर बात और आतंकी वारदात को कुरान और नबी के नाम पर ही जायज ठहराते हैं। अपनी एक तकरीर में मौलाना मसूद अजहर कहता है "जब तक दुनिया में कुरान है तब तक जिहाद रहेगा।" जिहाद के लिए हथियार उठाने का विरोध करनेवाले मुसलमानों को भी वह लानत भेजता है और कहता है कि जो मुसलमान हमें गलत ठहरा रहे हैं असल में वे खुद गलत रास्ते पर हैं।
ये एक मुसलमान के लिए बहुत दुविधा की स्थिति पैदा करती है। अगर आप इंटरनेट पर मौजूद मसूद अजहर और हाफिज सईद की तकरीरों को सुनेंगे तो महसूस करेंगे कि वे अपने समर्थकों के ऊपर कुरान और नबी के नाम पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाते हैं कि कैसे वे जो कर रहे हैं या कह रहे हैं वही सुन्नत (इस्लामिक परंपरा) है। तो क्या ये लोग सचमुच वही बोलते हैं जो कुरान में लिखा है या नबी ने कहा है?
यह बहुत जटिल सवाल है और यह सवाल कोई आज पैदा नहीं हुआ है। यह सवाल मुहम्मद साहब के जाने के साथ ही पैदा हो गया था जो समय के साथ और बड़ा तथा जटिल होता गया है। इस्लाम के भीतर उभरा हर संप्रदाय इसी सवाल का जवाब पाने की प्रक्रिया में पैदा होता गया है और आज इस्लाम के भीतर फैले करीब 850 संप्रदाय इसी सवाल का जवाब दे रहे हैं कि कुरान में जो लिखा है उसका अर्थ क्या है और खुद मोहम्मद साहब की परंपरा क्या है। मौलाना मसूद अजहर और मौलाना हाफिज सईद जैसे कट्टरपंथी अतिवादियों ने इस्लाम और नबी के नाम पर कुछ तो घालमेल किया है और गैर मुस्लिमों के साथ साथ उस मुसलमान को भी अपना दुश्मन बना लिया है जिसकी नुमाइंदगी का वे दावा करते हैं।
अगर हम केवल पाकिस्तान को देखें जो खुद को भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों का नुमाइंदा समझने की भूल करता है तो वहां भी हाफिज सईद या फिर मसूद अजहर जैसे मौलानाओं को पैदा करनेवाली विचारधारा को माननेवाले अल्पसंख्यक हैं। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में बीते कुछ दशकों ने जो आतंकवाद देखा है उसके मूल में बहावी विचारधारा के लोग रहे हैं। यह बहुत चौंकानेवाला तथ्य हो सकता है कि भारत का दारुल उलूम देओबंद एक तरफ भारत मेें स्वतंत्रता संघर्ष का हिस्सा बनता है और टू नेशन थ्योरी को खारिज करता है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान बन जाने के बाद उसी विचारधारा को माननेवाले मदारिस मुजाहीदीन पैदा करने की फैक्ट्री बन जाते हैं। संभवत: यह धर्म में राज्य के प्रवेश का दुष्परिणाम हो लेकिन यह हुआ है।
लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ईसाईयत हो कि इस्लाम दोनों के धार्मिक ठेकेदार अपने आपको असुरक्षित महसूस करते हैं। ईसाईयत ने करीब दो सौ सालों में चर्च और प्रशासन की सीमारेखा निर्धारित कर ली लेकिन इस्लाम के लिए यह कर पाना इतना आसान नहीं है। इसलिए दुनिया के जिन देशों में प्रगतिशील सोच के साथ इस्लाम को बदलते दौर के साथ ढालने की कोशिश की गयी तो कट्टरपमथियों ने इस्लाम के नाम पर उसे असफल करने की कोशिश भी की। कहीं वे कामयाब हुए तो कहीं नाकाम लेकिन "सच्चे इस्लाम" के नाम पर न कभी बंद हुआ और न शायद कभी बंद होगा। पाकिस्तान भी इसी कशमकश में उलझा एक नया मुल्क है जहां एक तरफ करीब अस्सी फीसदी आबादी रोजमर्रा की शांतिपूर्ण जिन्दगी चाहती है और एक ऐसी लोकतातंत्रिक व्यवस्था जो उनके लिए बेहतर जिन्दगी का अवसर उपलब्ध करा सके तो दूसरी तरफ बीस फीसद ऐसे फसादी खड़े हैं जो "सच्चे इस्लाम" को दुनिया में लाना चाहते हैं।
इन अतिवादियों के सच्चे इस्लाम का एकमात्र मकसद है सत्ता। वह सत्ता जो अभी जनता के बाथ में है, उसे वे इस्लाम के नाम पर हासिल करना चाहते हैं। पाकिस्तान में अतिवादी विचारधारा का वही वर्ग हाफिज सईद का भी समर्थक है और मसूद अजहर का भी। वही वर्ग लाल मस्जिद का भी बचाव करता है और दारुल उलूम हक्कानिया का भी। इन सबने बीते तीन चार दशक में अपनी सुविधा का एक इस्लाम गढ़ लिया है जो उनके आतंकवाद का समर्थन करता है। क्योंकि इनसे इनेमी स्टेट के रूप में भारत को काउंटर करने में पाकिस्तान के हुक्मरानों को मदद मिलती है इसलिए एक तरह से उनको पाकिस्तान सैन्य प्रतिष्ठान का भी समर्थन प्राप्त है। इसलिए ज्यादा खुशफहमी पालने की जरूरत नहीं है कि पाकिस्तान हाफिज सईद या फिर मसूद अजहर के खिलाफ इनेमी स्टेट को खुश करने के लिए कोई बड़ी कार्रवाई करने जा रहा है। इसके लिए पहले दोनों मुल्कों को एक दूसरे को फ्रेन्डली स्टेट का दर्जा देना होगा। और जैसे जैसे यह काम आगे बढ़ेगा अल्पसंख्यक कट्टरपंथी विचारधारा के लोग कमजोर होते जाएंगे और जैसे जैसे वे कमजोर होंगे मौलाना मसूद अजहरों और मौलाना हाफिज सईदों या फिर मौलाना अजीजों को समर्थन मिलना अपने आप बंद होता जाएगा। फिलहाल तो आतंकवाद से निपटने का बातचीत वाला रास्ता यही है बाकी दोनों इनेमी स्टेट चाहें तो युद्ध में भी उतर सकते हैं उससे आतंकवाद तो शायद खत्म हो जाए लेकिन उनके खात्मे का वह तरीका भी उन्हीं के रास्तों की जीत होगी।
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