जब आप सफलता की सीढ़ी चढ़ रहे होते हैं उस वक्त जाने अनजाने कोई न कोई ऐसी गलती जरूर करते हैं जो एक दिन आपकी असफलता का कारण बन जाती है। सफलता के नशे में चूर भारत की मोदी सरकार भी ऐसी ही एक गलती की तरफ बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है।
मोदी सरकार की उस गलती का नाम है, अमेरिका के साथ सैन्य साझीदारी का समझौता। आनेवाले कुछ महीनों में दोनों देश ऐसा समझौता कर लेंगे जिसके नतीजतन अमेरिका न केवल भारत में सैन्य ठिकाने बना सकेगा बल्कि वह भारत के खुफिया सैन्य सूचनाओं तक आधिकारिक रूप से अपनी पहुंच हासिल कर लेगा। हालांकि यह समझौता दोतरफा है और भारत भी अमेरिका में अपने सैन्य ठिकाने बनाने के लिए स्वतंत्र होगा लेकिन इसका कोई मतलब तब नहीं है जब अमेरिका के बार्डर पर भारत का न कोई दोस्त है न दुश्मन। असल खेल होगा भारत की सीमाओं पर। जहां भारत के एक तरफ चीन है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान है।
साम्यवाद के उभरते पूंजीवादी खतरे से निपटने के लिए अमेरिका कई सालों से कई स्तरों पर सक्रिय है। अमेरिकी मीडिया पहले से ही चीन को एक खतरा घोषित कर रही हैं और सैन्य स्तर पर जापान को मदद करके अमेरिका ने चीन को घेरने की कोशिश की है। अब उसी रणनीतिक हिस्से में उसने भारत को भी शामिल कर लिया है। भारत के साथ सैन्य समझौते के तहत अमेरिका उसी तरह चीन के खिलाफ भारत का इस्तेमाल करेगा जैसे कभी उसने रूस के खिलाफ पाकिस्तान का किया था।
बंटवारे के बाद जहां एक ओर भारत ने नॉन एलायन मूवमेन्ट चलाई वहीं पाकिस्तान अमेरिका के दरवाजे पर जाकर खड़ा हो गया था। पचास के दशक में अमेरिका को लगा कि दक्षिण पूर्व एशिया में सोवियत संघ को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान के एक महत्वपूर्ण केन्द्र हो सकता है तो उन्होंने उसी तरह पाकिस्तान को सैन्य और असैन्य साझीदार बना लिया जैसे वह आज भारत को बना रहा है। चार दशक तक अमेरिका में पाकिस्तान की तूती बोलती रही। जिया उल हक जैसे तानाशाह को भी उन्होंने लाल कालीन बिछाकर स्वागत किया लेकिन वापसी के वक्त एक लाल कपड़ा बांध दिया जिसे लेकर उन्हें अफगानिस्तान में जिहाद की जंग पर जाना था। इकहत्तर के युद्ध में अमेरिका अपने सातवें बेड़े के साथ हमलावर हो ही जाता अगर सोवियत संघ ने भारत का साथ न दिया होता। लेकिन सोवियत संघ के साथ ने भारत को उस वक्त बर्बाद होने से बचा लिया।
लेकिन सोवियत संघ के विघटन और अफगानिस्तान में रूस की पराजय के साथ ही अमेरिका को पाकिस्तान की वह सारी बुराइयां नजर आने लगीं जो लाल कालीन के नीचे दबा दी गयी थीं। जिस सीआईए ने सऊदी अरब के साथ मिलकर पाकिस्तान में तालिबान बनवाया अब उनके एजंटों को आईएसआई के दफ्तरों में तालिबान का नेटवर्क नजर आने लगा। 2011 में एबटाबाद आपरेशन के बाद तो उनकी आंखें फट गयीं कि जिस ओसामा बिन लादेन को वे तोरा बोरा में खोजते रहे वह एबटाबाद की मिलिट्री छावनी में बैठा है। जाहिर सी बात है दक्षिण एशिया में अब उन्हें पाकिस्तान की कोई जरूरत नहीं रह गयी थी क्योंकि वह उनके नये साम्यवादी दुश्मन का गहरा दोस्त बन गया था।
ऐसे हालात में भारत एक बेहतर विकल्प है जिसकी एक बड़ी आबादी पहले ही अमेरिका में घुल मिल गयी है और वह भी उसी तरह अमेरिका और भारत को करीब लाना चाहती थी जैसे कभी पाकिस्तान ने ख्वाहिश पाली थी। पोखरण विस्फोट के बाद भारत के अपने बूते किये सैन्य और असैन्य विकास ने भी अमेरिका को चेतावनी दे दी कि प्रतिबंधों से बहुत असर नहीं पड़ेगा। इसलिए अमेरिका अब भारत को उसी तरह सैन्य कालोनी बनाना चाहता है जैसे उसने कभी पाकिस्तान को बनाया था। अमेरिका की नजर में चीन को बैलेंस करने के लिए यह साझीदारी जरूरी है बदले में अगर पाकिस्तान की कुर्बानी भी देनी पड़े तो उसे नुकसान कुछ नहीं होगा, उल्टे कुछ पैसे ही बच जाएंगे।
लेकिन सवाल अमेरिका की प्राथमिकताओं का नहीं है। सवाल हमारी अपनी प्राथमिकताओं का है। क्या हम भारत की परंपरागत नीति से अलग हटकर कुछ हासिल कर सकेंगे? तात्कालिक तौर पर देखें तो हां। अमेरिका के भारत के साथ मजबूती से खड़े होने का असर पाकिस्तान पर पड़ेगा और वह कमजोर भी होगा लेकिन दीर्घकालिक रूप से देखें तो भारत को इसमें भयावह नुकसान की संभावना ही ज्यादा है। अमेरिका एक देश नहीं बल्कि एक इम्पीरियल सिस्टम है जो पूरी दुनिया में नफे नुकसान के हिसाब से अपनी बिसात बिछाते हैं। खेलते हैं। जीतते हैं। और चले जाते हैं। वे (इजरायल और इंग्लैंड को छोड़कर) दुनिया में न तो किसी के स्थाई दोस्त हैं न दुश्मन। इसके उलट रूस का स्वभाव और व्यवहार दुनिया में हमेशा दूसरा रहा है। उसकी दोस्ती और दुश्मनी स्थाई होती है।
इसलिए यह एक ऐसा वक्त है जब भारत को कोई भी फैसला लेने से पहले देश और संसद दोनों ही जगह पर बहस करनी चाहिए कि वह अमेरिका के साथ सैन्य सहयोग की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए या नहीं? एक ध्रुवीय विश्व में नॉन एलाइन मूवमेन्ट की प्रासंगिकता है या नहीं? चीन उसका पड़ोसी है और पड़ोसी से जंगी जुनून कायम करने की जरूरत है या नहीं? ऐसे वक्त में जब भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान अपने दम पर भारत को सुरक्षा में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सफल कोशिशें कर रहे हैं तब अमेरिकी साझीदारी से फायदा अधिक होगा या नुकसान? हमारे अपने सैन्य विकास पर इसका क्या असर पड़ेगा? अमेरिकी सैन्य ठिकानों का भारत की सेना पर क्या असर पड़ेगा? बिना इन बातों पर पूरी बहस किये हुए सरकार को एक भी कदम आगे नहीं बढ़ाना चाहिए।
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