तहीरुल कादरी वैसे मुसलमान मौलवी नहीं हैं जैसे मौलवी पाकिस्तान में पाये जाते हैं। वे कट्टर सुन्नी जमातों से अलग सूफी मत को माननोवाले हैं और शायद इसीलिए इस साल जब भारत में सूफी कांफ्रेस आयोजित की गयी तो सम्मानित अतिथियों में एक नाम तहीरुल कादरी का भी था।
लेकिन यह जानकर घोर निराशा होती है कि हिन्द के बारे में तहीरुल कादरी भी वही सोचते हैं जो आइएसआई स्पांसर्ड मुल्ला सोचता है। गजवा ए हिन्द (हिन्दुस्तान की फतेह) पर वे भी वही बोलते हैं तो जो कोई भी कुरान और हदीस का जानकार बोलता है। वैसे यह गजवा ए हिन्द भारत के पूरब में नहीं है। पूर्वी बंगाल से बांग्लादेश बनने के बाद अभी मौलवियों की जमात ने हिन्दुस्तान को फतेह करने का कोई फतवा तो नहीं दिया है लेकिन हिन्दुस्तान से पश्चिम में हर रोज यह फतवा दिया जाता है। कभी टीवी पर बैठकर। कभी तकरीरों में। कभी जलसों और जुलूसों में।
हिन्दुस्तान को जीतने के ये फतवे कुरान और हदीस की रोशनी में दिये जाते हैं जब मोहम्मद साहब ने अपने चाहनेवालों से कहा था कि दो फौजें निकलेंगी। एक वहां से पश्चिम जाएंगी और दूसरी हिन्द की तरफ। हिन्द के लिए जो फौज जाएगी वह जीत हासिल करेगी और वहां के राजा या राजाओं को जंजीरों में जकड़कर ले आयेगी। इस जंग में जो कुर्बान होंगे वे जन्नत जाएंगे और जो बच जाएंगे वे नर्क की आग में नहीं फेंके जाएंगे। इस तरह यह जंग आगे चीन तक जाएगी और वहां भी इस्लाम का परचम लहरायेगी और इस तरह इस खित्ते में खिलाफत कायम हो जाएगी।
मोहम्मद साहब को गये जमाना हो गया। इस बीच मोहम्मद बिन कासिम ने सिन्ध पर हमला किया। भारत में इस्लाम फैला। सदियों तक मुस्लिम शासक रहे। मुस्लिम शासकों की पनाह में सूफी संत आये और दोनों ही अपनी अपनी तईं गजवा ए हिन्द का फरमान लागू करते रहे। हजार साल की इन कोशिशों का नतीजा यह हुआ कि हिन्द का आधा हिस्सा मुसलमान हो गया। दो अलग अलग मुल्क बन गये। तीसरा बनने की मांग कर रहा है। दुनिया की कुल मुस्लिम आबादी का चालीस फीसद मुसलमान हिन्द (बांग्लादेश और पाकिस्तान सहित) का वासी हो गया। तो क्या इतना सब होने के बाद भी गजवा ए हिन्द का ख्वाब पूरा नहीं हुआ जो मौलवी हजरात आज भी गजवा ए हिन्द के हुक्म की तामील करने में लगे हुए हैं?
शायद सच्चाई यही है। अभी भी हिन्द की सौ करोड़ की आबादी ने कलमा नहीं पढ़ा है। हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन जैसे मजहब अलग अलग तरह से बुतपरस्ती में लगे हुए हैं जिसे आखिरकार खत्म किया जाना है। तो यह अधूरा काम पूरा कैसे होगा? जवाब पाकिस्तान में बैठे मौलवी और इस्लामिक विचारक देते हैं। वे मानते हैं कि मुहम्मद बिन कासिम ने तो महज जंग की शुरूआत की थी। उस जंग को अंजाम तक पहुंचाना पाकिस्तान का काम है। टीवी पर बैठकर सिर्फ जैद हामिद जैसे मसखरे ही यह दलील नहीं देते। मौलाना मौदूदी और डॉ इसरार अहमद जैसे कट्टर इस्लामिक दार्शनिक भी यही कहते थे और तहीरुल कादरी जैसे उदारवादी मौलवी भी इस बात पर एक राय रखते हैं कि गजवा ए हिन्द अधूरा है जिसे पूरा होना है।
डॉ इसरार अहमद मानते थे कि सिन्ध पर फतेह के साथ ही हुजूर (मोहम्मद साहब) का फरमान पूरा हो गया। लेकिन बाकी मौलवी इससे कम इत्तेफाक रखते हैं। आईएसआई स्पांयर्ड मौलवियों ने इसमें एक और सिरा जोड़ दिया है कि पाकिस्तान की फौज ही वह फौज है जो गजवा ए हिन्द के ख्वाब को पूरा करेगी। अगर आप पाकिस्तानी फौज के घोषित उद्देश्य को पढ़ें तो यह बात उतनी बेतुकी भी नहीं लगती। पाकिस्तानी फौज अरबी में कहती है कि वह "जिहाद फी सबिलियाह।" मतलब, वह अल्लाह के कायदे के लिए जिहाद पर है। अल्लाह का कायदा अर्थात, इस्लाम।
पाकिस्तान के ज्यादातर मौलवी अपनी तकरीरों में अब यही दलील देते हैं कि पाकिस्तान बना ही है गजवा ए हिन्द के लिए। यह इस्लामिक मुल्क पाकिस्तान की जिम्मेदारी है कि वह हिन्दुस्तान के खिलाफ गजवा ए हिन्द की जंग लड़े और मुसलमानों के आका (मोहम्मद साहब) की उस इच्छा को पूरा करे जो उन्होंने हिन्द के बारे में जाहिर की थी। पाकिस्तानी पंजाब के मौलाना इरफान उल हक अपनी तकरीरों में हमेशा यह कहते हैं कि सिर्फ दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जहां बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) जिन्दा है इसलिए मोहम्मद साहब के हुक्म का तालीम करने के लिए जरूरी है कि भारत से बुतपरस्ती और बुतपरस्तों को नेस्तनाबूत कर दिया जाए। अब क्योंकि यह मोहम्मद साहब का हुक्म था इसलिए हर मुसलमान इसी मिशन पर होना चाहिए। जब उनसे पूछा गया कि इसकी चर्चा उस तरह सार्वजनिक रूप से क्यों नहीं होती तो उन्होंने कहा कि कुछ बातें मस्जिद की तकरीर में होती हैं और कुछ बातें मस्जिद में पर्दे के पीछे। गजवा ए हिन्द हर मुसलमान के लिए आका (मोहम्मद साहब) का हुक्म है जिसे उसका तालीम करना है। पूछनेवाले ने उनसे अगला सवाल यह पूछा कि इसमें पाकिस्तान का क्या रोल है तो उन्होंने साफ कहा, "पाकिस्तान बनने का और कोई मकसद ही नहीं है। इसका मकसद ही है गजवा ए हिन्द।"
जाहिर है पाकिस्तान ने अपने वजूद की बुनियाद विकसित कर ली है। पाकिस्तान और भारत में सुन्नी और सूफी भले ही बाकी सभी बातों पर अलग राय रखते हों लेकिन इस बात पर एक राय हैं कि "बुतपरस्ती (मूर्तिपूजा) और बुतपरस्तों को खत्म करना है। तहीरुल कादरी उसी परपंरा को आगे बढ़ा रहे हैं। जबकि बाबा इरफान उल हक इसे पाकिस्तानी फौज से जोड़कर इस वजूद को और मजबूत कर रहे हैं कि असल में पाकिस्तान कोई मुल्क नहीं बल्कि दूसरा मदीना है जिसे मूर्तिपूजकों को खत्म करने के लिए ही अल्लाह की मर्जी से अस्तित्व में लाया गया है।
अगर आप भारत पाकिस्तान के कभी सामान्य न रह पाने वाले रिश्तों को समझना चाहते हैं तो उसकी बुनियाद इसी सोच में है। भारत और पाकिस्तान के बीच समस्या कश्मीर नहीं है। समस्या है दो कौमी नजरिये वाली सोच जो एक मुस्लिम को सभी गैर मुस्लिमों से अलग कर देती है। इरफान उल हक बड़ी साफगोई से बताते हैं कि "यह दो कौमी नजरिया कोई आज वजूद में नहीं आया है। यह दो कौमी नजरिया उस दिन वजूद में आया जिस दिन मक्का में पहला मुसलमान बना। वहां से दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी।" इसी बंटवारे में एक एक करके दुनिया के दूसरे हिस्से को मक्का की तरफ खींचने की कोशिश ही इस्लाम है। इसलिए भारत पाकिस्तान रिश्तों में कश्मीर को पाकिस्तान मुख्य मुद्दा बनाकर रखता है। इसलिए नहीं कि सैंतालिस के बंटवारे में कोई गड़बड़ हो गयी थी, बल्कि इसलिए कि कश्मीर में जब मूर्तिपूजकों को खत्म किया जा चुका है तो फिर उसको हिन्द में रहने का तुक क्या है?
पाकिस्तान के हुक्मरान, बौद्धिक लोग या फिर सेना में भी कुछ लोग भले ही कश्मीर को मुख्य मुद्दा न मानते हों लेकिन वे कश्मीर को भूलने या छोड़ने की बात कभी नहीं कहेंगे। कारण है वही मानसिकता जो गजवा ए हिन्द के रूप में उनके जेहन में जिन्दा है। यह पाकिस्तान का मुद्दा नहीं, मकसद है। इसमें कश्मीर का सूफी आंदोलन उनकी मदद कर रहा है। कश्मीर के बाद यह जंग दूसरे हिस्सों की तरफ आगे बढ़ाई जाएगी। पीढ़ी दर पीढ़ी यह जंग जारी रखी जाएगी और कयामत से पहले वह दिन आयेगा जब हिन्दोस्तान से सभी मूर्तिपूजक खत्म कर दिये जाएंगे और गजवा ए हिन्द की जो गुहार मोहम्मद साहब ने लगायी थी उसे पूरा कर लिया जाएगा। आमीन।
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