Tuesday, July 30, 2013

तेलंगाना को तथास्तु!

तकनीकि रूप से तो तेलंगाना भले ही अभी भी अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में नहीं आया है लेकिन राजनीतिक रूप से तेलंगाना को अलग राज्य का दर्जा दे दिया गया है। पिछले चार पांच दिनों से कांग्रेस के भीतर चल रही राजनीतिक कवायद को आज दो महत्वपूर्ण बैठकों में अमली जामा पहना दिया गया। पहली बैठक तथाकथित रूप से उस यूपीए की हुई जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं और दूसरी बैठक उस कांग्रेस वर्किंग कमेटी की हुई जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी हैं।

इन दो राजनीतिक बैठकों में अलग तेलंगाना राज्य के गठन पर लगी मोहर के बाद एक तीसरी विशेष बैठक बुधवार को प्रधानमंत्री निवास पर होगी जिसे कैबिनेट  मीटिंग कहा जाता है और उस कैबिनेट मीटिंग में तेलंगाना राज्य को अलग से स्थापित करने की औपचारिक घोषणा कर दी जाएगी। इसके बाद अधिकारियों और कर्मचारियों की अंतहीन बैठकें होंगी जिसमें आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के बीच बंटवारे का हिसाब किताब किया जाएगा।

लेकिन यूपीए, कांग्रेस और कैबिनेट की इन बैठकबाजियों के बीच एक ऐसी आशंका भी आला नेताओं के मन में घर कर गई है कि अलग तेलंगाना कहीं खुद कांग्रेस के गले की फांस न बन जाए। इसलिए आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री किरण रेड्डी को बुलाकर उन्हें समझा दिया गया है कि अलग तेलंगाना क्यों बहुत जरूरी हो चला है और कल तक इस्तीफे की धमकी देनेवाले किरण कुमार रेड्डी आज अपने बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश करने की दलील दे रहे हैं। हो भी सकता है कि रेड्डी के बयान को मीडिया ने तोड़ मरोड़ कर पेश कर दिया हो लेकिन जिस राजनीतिक मकसद को पूरा करने के लिए कांग्रेस ने चुनाव से पहले तेलंगाना राज्य पर अपनी सहमति दी है उसका फायदा मिलना भी शुरू हो चुका है। तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद और तेलुगु की मशहूर अभिनेत्री रह चुकीं विजयाशांति ने घोषणा कर दी है कि वे अब कांग्रेस में जा रही हैं क्योंकि कांग्रेस ने वह कर दिया है जो उसे बहुत पहले कर देना चाहिए था।

अलग तेलंगाना की जो रुपरेखा सामने आई है उसमें कुछ संभावित विवादों को अभी से दरकिनार करने की कोशिश की गई है। जिस वक्त एनडीए शासनकाल के दौरान तीन अलग राज्यों के गठन की घोषणा की गई थी उस वक्त उत्तराखण्ड को निर्मित करते समय दो बड़ी गलतियां कर दी गई थीं। एक, उत्तराखण्ड का नाम उत्तरांचल कर दिया गया था और दूसरा पहाड़ के राज्य में न जाने किस दिमाग से मैदान के दो जिले भी शामिल कर दिये गये थे। एक गलती तो सुधार दी गई लेकिन दूसरी गलती की सजा उत्तराखण्ड आज भी भुगत रहा है। कुछ इसी तर्ज पर पहले रायलसीमा तेलंगाना बनाने की योजना थी, जिसे खारिज कर दिया गया और अब सिर्फ तेलंगाना गठित करने का प्रस्ताव मंजूर किया गया है। इसी तरह हैदराबाद के मुद्दे पर भी जो जानकारी मिल रही है, उसके मुताबिक हैदराबाद को केन्द्र शासित प्रदेश बनाने की बजाय उसकी महानगरपालिका वाली हैसियत बरकरार रखी जाएगी और आंध्र और तेलंगाना के बीच उसका बंटवारा कर दिया जाएगा।

कांग्रेस ने अपने चुनावी मकसद को पूरा करने के लिए जिस तेलंगाना राज्य के गठन को मंजूरी दी है उस तेलंगाना में कुल दस जिले होंगे। ग्रेटर हैदराबाद, रंगारेड्डी, मेडक, नलगोंडा, महबूबनगर, वारंगल, करीमनगर, खम्मम, आदिलाबाद और निजामाबाद। किसी दौर में निजाम का निजाम रहे भारत के प्रस्तावित इस 29वें राज्य की 3.5 करोड़ की आबादी में 85 प्रतिशत से अधिक आबादी हिन्दू है। राम और देवी के प्रति अगाध श्रद्धा रखनेवाले तेलंगाना क्षेत्र में 12 प्रतिशत मुसलमान और 1 प्रतिशत ईसाई हैं। तेलंगाना की मुख्य भाषा तेलुगु है लेकिन यहां 12 प्रतिशत लोग उर्दू भी बोलते हैं लिहाजा उर्दू को दूसरी प्रमुख भाषा का दर्जा प्राप्त है। हिन्दू बहुल आबादी वाला तेलंगाना राज्य उत्सवधर्मी राज्य है और कमोबेश सालभर यहां कोई न कोई धार्मिक उत्सव चलता रहता है। नवरात्रि के दौरान चलनेवाला बथुकअम्मा उत्सव में स्थापित होनेवाला कलश तो तेलंगाना आंदोलन का प्रतीक ही बन गया था जब सात दिनों तक तेलंगाना वासी साक्षात देवी की उपासना करते हैं। अबकी नवरात्रि में जरूर यह उत्सव ज्यादा धूमधाम से मनाया जाएगा।

तेलंगाना के गठन से आंध्र प्रदेश के 294 सदस्यीय विधानसभा से 119 विधायक और 42 सदस्यीय लोकसभा से 17 सांसद कम हो जाएंगे। ये 119 विधायक और 17 सांसद अब तेलंगाना राज्य के तहत जनप्रतनिधित्व करेंगे। सवाल यह है कि तेलंगाना गठन के बाद इन 119 विधायकों और 17 सांसदों से क्या कांग्रेस को वह मिल पायेगा जिसके लिए उसने शेष 175 विधायकों और 25 सांसदों को दांव पर लगा दिया है? राजनीतिक नजरिए से देखें तो सवाल नाजायज नहीं है। क्योंकि राजनीतिक रूप से तेलंगाना सिर्फ तेलंगाना आंदोलन की भारी मांग पर पर स्वीकार नहीं किया है। जिस यूपीए और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की अलग अलग बैठकों ने तेलंगाना के गठन को राजनीतिक मंजूरी दी है उस यूपीए और कांग्रेस के तीसरे कार्यकाल का बहुत कुछ दारोमदार दक्षिण में इसी तेलंगाना पर टिका रहेगा। कोई और जाने न जाने तेलंगाना के मुद्दे पर यूपीए और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठकों की अध्यक्षता करनेवाली सोनिया गांधी इस बात को बखूबी जानती समझती हैं।

Thursday, July 25, 2013

मत दो मिड डे मील

पहले जरा सरकार का दावा सुन लीजिए। मिड डे मील जिसे हिन्दी में मध्यान्ह भोजन योजना कहा जाता है, उसके तहत प्रतिदिन सरकार देश के 12 लाख स्कूलों में 11 करोड़ बच्चों को जरूरी 'पुष्टाहारयुक्त' भोजन मुहैया करा रही है। बहुत महत्वाकांक्षी सफलता है, यह। केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक सब अपनी अपनी सफलता के ढोल पीटते हैं। और सिर्फ 11 करोड़ बच्चों को ही पुष्ट आहार नहीं मिल रहा है। 24 लाख नई नौकरियां भी निकली हैं। उनकी जो भोजन पकाती हैं। ज्यादातर दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाएं। सभ्य लोगों की भाषा में कहें तो अनपढ़ और गंवार महिलाएं जो स्कूल की सेविकाएं बन गई हैं। 11 करोड़ बच्चों को नियमित भोजन, 24 लाख लोगों को नौकरियां और करीब पौने छह लाख स्कूलों में क्लासरूम के साथ किचन की स्थापना। सबकुछ कितने सुनहरे भारत की तस्वीर सामने रखता है। लेकिन इस पुष्टाहार की पोल तब खुलती है जब किसी पोन्टी चढ्ढा पर बच्चों की पंजीरी चुराकर अमीर हो जाने का आरोप लग जाता है या फिर किसी सुशासन बाबू के शासन में बच्चों के खाने में पेस्टीसाइड मिलाकर खिला दिया जाता है। कभी कभी आंख तो खुलती है लेकिन कोढ़ में खुजली करके फिर आंख बंद कर ली जाती है।

बिहार के छपरा में जहां 33 अबोध बच्चे अकाल काल के गाल में समा गये, उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे घर से स्कूल सिर्फ बस्ता और बोरिया ही लेकर नहीं आते थे, बल्कि अपना लोटा थाली भी साथ लाते थे। इस उम्मीद में कि पढ़ाई के छद्म के साथ पेटभर खाना भी मिलेगा। और ऐसा केवल छपरा, मधुबनी और गया के वे बच्चे ही नहीं कर रहे थे जिनके खाने में जहरीला पदार्थ पाया गया है, उस तमिलनाडु में भी पुष्टाहार के नाम पर जहरबुझा खाना खिला दिया गया है जहां आज से नौ दशक पहले पहली बार इस तरह की योजना आधुनिक भारत में शुरू की गई थी। मिड डे मील वास्तव में बच्चों के मौत का मील ही नहीं है बल्कि भ्रष्ट व्यवस्था का पेट भरनेवाला खाना भी साबित हो रहा है।

आज से बहुत पहले करीब नब्बे साल पहले अब के तमिलनाडु और तब के मद्रास प्रेसिडेन्सी में पहली बार इस तरह की योजना पर अमल किया गया था जब 1923 में बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन देने की शुरूआत की गई थी। करीब तीन दशक बाद जब के कामराज तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तो उन्होने इस योजना को अल्पसंख्यक स्कूल के बच्चों के लिए भी लागू कर दिया। के कामराज के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एक बार भैंस चरा रहे एक बच्चे से पूछा था कि तुम स्कूल क्यों नहीं जाते? तो बच्चे ने उलटा कामराज से ही पूछ लिया था कि क्या वहां खाना मिलेगा? यह बात कामराज के मन में घर कर गई और उन्होने बच्चों के मध्यान भोजन की योजना शुरू कर दी। लेकिन कामराज की इस योजना को असली आधार दिया एम जी रामचंद्रन ने और उन्होंने 1982 में मध्यान्ह भोजन की यह योजना समूचे राज्य में दसवीं क्लास तक के बच्चों के लिए लागू कर दी, हर स्कूल में।

तमिलनाडु की ही तर्ज पर आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात और मध्य प्रदेश भी अस्सी के दशक से ही कुछ कुछ हिस्सों में अपने स्कूलों में बच्चों को पका पकाया खाना खिलाकर प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करा रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पहला बड़ा प्रयास हुआ सुप्रीम के आदेश के बाद 2001 में जब 21 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राज्यों के लिए अब अनिवार्य होगा कि वे स्कूलों में बच्चों को पौष्टिक और पका पकाया भोजन देने की व्यवस्था करें। अभी तक कुछ राज्य पका पकाया भोजन देने की जगह कुछ किलो की दर से बच्चों को कच्चा अनाज दे देते थे। लेकिन इस आदेश के बाद अब राज्यों के लिए अनिवार्य हो गया कि वे स्कूल जानेवाले बच्चों को पका पकाया खाना खिलाने की व्यवस्था करें। इसके बाद सरकार क्या होती है और सरकारी व्यवस्था क्या होती है, इसे बताने या समझाने की जरूरत नहीं है।

इसलिए अगर बिहार और खुद उस तमिलनाडु से बच्चों के बीमार होने और मरने की खबरें आ रही हैं तो इससे व्यवस्था की कोई कलई खुल रही हो ऐसा भी नहीं है। कलई तो कबसे खुली पड़ी है, हम हैं जो अभी देख पा रहे हैं। मध्यान्ह भोजन योजना को लेकर सारी बहस और चर्चा इस बात पर टिक गई है कि भोजन पकाने की सर्वोत्तम व्यवस्था होनी चाहिए। सरकारी कर्मचारी के तौर पर जब हमारी नियुक्ति होती है तो हमारी मानसिकता कितना सर्वोत्तम कर्म करने की रह जाती है इसे बताने की जरूरत शायद किसी को नहीं है। सरकार का काम यानी हराम का काम। यह हमारी मानसिकता है और पिछले साठ सालों में बदलने की बजाय बलवती ही होती चली गई है। ऐसे में बहस का मुद्दा क्या यह नहीं हो सकता कि आखिर सरकारी स्कूलों में खाना खिलाया ही क्यों जाए? बात थोड़ी अचरज भरी हो सकती है लेकिन संभवत: मीड डे मील को मौत का मील बनाने से बचाने के लिए और दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है।

एक बच्चे का ध्यान कोई कान्वेन्ट में पढ़ानेवाली सुशिक्षित अध्यापिका उतना नहीं रख सकती जितना कि उसकी मां रखती है तो फिर किसी सरकारी स्कूल की सेविका से यह उम्मीद करना बेकार है कि वह बच्चों का इतना ध्यान रखेगी कि उसे पुष्टाहार पकाकर खिलाएगी। फिर सेविका के हाथ में तो सिर्फ चूल्हा होता है। चूहे तो ऊपर से लेकर नीचे तक इस पूरी योजना को कुतर रहे हैं। पोन्टी चड्ढा ने तो बच्चों की पंजीरी चुरा चुराकर शराब के कारोबार से ज्यादा मुनाफा कमा लिया था। राजा भैया और उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के ऊपर आरोप है कि उन्होंने बच्चों के लिए भरकर लाये जा रहे ट्रकों को उस समय पड़ोसी देशों में बेंच दिया था। करोड़ों का घपला है। शुरूआती जांच पड़ताल में पक्के सबूत भी मिले और मामला हाईकोर्ट में लंबित है। और ऐसा भी नहीं है कि सरकार चलानेवाले यह सब जानते नहीं है। खूब जानते हैं लेकिन सस्ती लोकप्रियता की चूहेदानी में नागरिक को मतदाता बनाकर फंसाने की मंशा ऐसी बलवती है कि योजनाएं रोके नहीं रूकती हैं।

और फिर सरकार की मंशा खाना खिलाने से ज्यादा शिक्षा दर बढ़ाने पर है। कोई भी सरकार जब अपने काम काज की बैलेन्स शीट तैयार करती है तो बड़े शान से बताती है तो उसकी सरकार में कैसे स्कूलों में बच्चों का दाखिला रेट बढ़ा है। फार्मूला कमोबेश वही है जो पहली बार कामराज ने अपनाया था। यह फार्मूला भारत जैसे सामाजिक रूप से सशक्त देश के लिए उपयुक्त नहीं है। बच्चों की भूख यह सरकारी सवाल नहीं है। सामाजिक सवाल है। भारत में खैरात दी जाती है, ली नहीं जाती। किसी बच्चे को स्कूल में मुफ्त का खाना खिलाकर पढ़ाने से वह बहुत जिम्मेदार नागरिक बनकर निकलेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। मिड डे मील जैसी योजना गरीबों के लिए कल्याणकारी योजना भले नजर आती हों लेकिन यह दीर्घकालिक तौर पर देश के लिए अकाल्याणकारी योजना साबित होगी। ऐसी योजनाओं से पारिवारिक और सामाजिक ताना बाना छिन्न भिन्न होगा और सरकार को परिवार और समाज में हस्तक्षेप बढ़ाने का बेतहाशा मौका मिलेगा। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे सरकारी नेता, नौकरशाह और न्यायाधीश एक ऐसी सरकारी व्यवस्था के हिस्से होते हैं जिनके ऊपर जिम्मेदारी है कि वे समाज को सरकार पर निर्भर बना दें। और ऐसी लोकलुभावन योजनाएं परिवार और समाज में सरकार के हस्तक्षेप को कायम करने का औजार बनती है।

नागरिक को आर्थिक स्तर पर विपन्न करके खैरात से संपन्न करना यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र की व्यवस्था नहीं हो सकती। देश में गरीब बच्चों को खाना खिलाना कहने सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन यह सरकारी योजनाकारों की बहुत सोची समझी साजिश है जो सामान्य जन से जीने का हक छीनकर उनके हाथ में खैरात की रोटी का टुकड़ा पकड़ा रहे हैं। वह भी जहरबुझी। बेकार सी। ठेकेदारों और घुसखोरों का हिस्सा बांटने के बाद। एनजीओ बिरादरी को हिस्सेदार बनाते हुए। लूट का ऐसा व्यवस्थित तंत्र जिसमें आखिरकार बच्चों के हिस्से पुष्टाहार के नाम पर निकृष्टाहार ही आनेवाला है। आज भी, कल भी और कभी भी। अच्छा हो कि समाज खुद ऐसी व्यवस्था से अपने आपको अलग कर अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित कर ले।

Tuesday, July 23, 2013

मुलायम के क्लीन चिट का काला चिट्ठा

इससे अच्छा कोई समय हो भी नहीं सकता था। दोनों के लिए। न कांग्रेस के लिए और न ही मुलायम सिंह यादव के लिए। कमोबेश पिछले पांच साल में जब जब केन्द्र की कांग्रेस सरकार पर संकट आया मुलायम सिंह यादव संकट मोचक बनकर खड़े नजर आये। हर बार उन्होंने समझौता किया। विचारधारा से। साथी दलों से। खुद से। लेकिन उन्होंने कांग्रेस का साथ दिया। कारण कुछ और नहीं बल्कि वही एक केस था जो सुप्रीम कोर्ट में दिसंबर 2012 के पहले लटका पड़ा था, फैसले के इंतजार में। दिसंबर 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने उस केस से यह कहते हुए अपना पीछा छुड़ा लिया कि जो करना है सीबीआई करे और जो दिखाना सुनाना है सरकार को दिखाए सुनाए।

यह वह सुप्रीम कोर्ट बोल रहा था जिसने बाद में इस बात पर बवाल कर दिया था कि सीबीआई अपनी जांच रिपोर्ट कानून मंत्री को भला क्यों कर दिखा दी? सीबीआई जांच में पीएमओ का हस्तक्षेप क्योंकर होता है? लेकिन उस वक्त दिसंबर 2012 में विश्वनाथ चतुर्वेदी बनाम यूनियन आफ इंडिया जनहित याचिका क्रमांक 633 (2005) के मामले में दो साल से सुरक्षित रखे फैसले का पिटारा खोला था तो एक तरह से वह रास्ता बना दिया था जो अब सीबीआई करने जा रही है। मुलायम सिंह की आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई की क्लीन चिट।

क्लीन चिट का चिट्ठा बनकर तैयार है और कभी भी मुलायम सिंह की पीठ पर चिपका दिया जाएगा। उसके बाद मुलायम सिंह यादव भी उसी तरह ईमानदार और सामान्य आय वर्ग के नेता बन जाएंगे जिस तरह से बीते साल कांग्रेस को समर्थन देकर मायावती बन गई थीं। मायावती के मामले में वह काम माननीय सुप्रीम कोर्ट ने किया था, मुलायम सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट का कथित तोता वह काम करने के लिए तैयार है। उम्मीद कम है कि इस बार सीबीआई या कि सरकार मुलायम सिंह को क्लीन चिट देने से पीछे हटेगी। कारण बहुत पेचीदा नहीं है।

सरकार अब अपने अंतिम चरण में है। क्योंकि सोनिया गांधी के महत्वाकांक्षी चुनावी खाद्यान्न सुरक्षा विधेयक पर संसद में मुलायम सिंह का साथ चाहिए इसलिए उनकी ओर से मुलायम सिंह को क्लीन चिट दिलवा देने में कोई हर्जा नहीं है। और मुलायम सिंह यादव के लिए हर बार की तरह एक आखिरी बार कांग्रेस की सरकार को संकट से उबार लेने में कोई परेशानी इसलिए नहीं है क्योंकि एक बार उनके सिर से गिरफ्तारी की तलवार हट जाए तो शायद आगामी लोकसभा चुनाव में वे ज्यादा धारदार तरीके से कांग्रेस विरोधी राजनीति कर सकेंगे। कांग्रेस के रणनीतिकार भी इस बात को समझते हैं लेकिन यह सब जानते हुए भी मुलायम को 'बंधक' बनाकर रखने का उनका मकसद पूरा हो चुका है इसलिए मुक्ति दे देने में कोई हर्जा नहीं है।

मुलायम सिंह यादव, विश्वनाथ चतुर्वेदी और कांग्रेस के बीच चली त्रिकोणीय जंग में शामिल एक मध्यस्थ ने तब बहुत विश्वास के साथ कहा था कि सरकार सबसे बड़ी चीज होती है। वह जो चाहती है, वही होता है। चतुर्वेदी जैसे '...तियों' को यह बात समझ नहीं आती है तो यह उनकी प्राब्लम् है। इस देश की माली हालत और व्यवस्थागत बदहाली को देखते हुए उसकी बात सही लगती है। इस भ्रष्ट व्यवस्था में ईमान सबसे बड़ा 'अपराध' है और ईमानदार आदमी सबसे बड़ा 'अपराधी।'

मुलायम सिंह को यह मुक्ति तो उसी वक्त मिल जाती जिस वक्त उन्होंने अपने वामपंथी राजनीतिक साथियों को छोड़कर कांग्रेस की यूपीए सरकार का साथ दे दिया, अमेरिका के साथ परमाणु समझौते के मुद्दे पर। लेकिन यह तो वह विश्वनाथ चतुर्वेदी थे जो न्याय की इस लड़ाई को अंजाम तक ले जाना चाहते थे। इस बीच कई बार ऐसे मौके आये जब कभी सीबीआई ने कहा कि वह जांच नहीं करना चाहती है और फिर कह दिया कि जांच करना चाहती है। 2009 में इस मामले में एफआईआर भी दर्ज हो गया। मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और डिंपल यादव के मामले में सारी कानूनी कवायद पूरी करने के बाद 17 फरवरी 2011 को अपना वह आदेश सुरक्षित रख लिया जिसमें उसे यह तय करना था कि मुलायम सिंह यादव के खिलाफ सीबीआई जांच करे या फिर घर बैठ जाए।

तब से लेकर दिसंबर 2012 तक समय समय पर मुलायम सिंह यादव कांग्रेस की मदद करते रहे और "सुरक्षित फैसले" का इंतजार करते रहे। दिसंबर 2012 में फैसला आया और डिंपल को मुक्ति देने के साथ ही बाकी का काम सरकार के हाथ में सौप दिया गया। मार्च 2007 से दिसंबर 2012 के बीच मुलायम सिंह यादव की आय से अधिक संपत्ति के मामले में पर्दे पर जितना कुछ दिखता रहा वह कुछ नहीं था। पर्दे के पीछे का खेल ज्यादा गंभीर और रोचक था।

जो विश्वनाथ चतुर्वेदी आय से अधिक संपत्ति के मामले में मुलायम सिंह को घेरे बैठे थे, वे पेशे से सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता जरूर हैं लेकिन कांग्रेस के नेताओं से उनके दोस्ताना संबंध है। इस पूरे प्रकरण के दौरान मुलायम सिंह यादव अगर कांग्रेस पर जोर डाल रहे थे तो कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता लगातार विश्वनाथ चतुर्वेदी पर जोर डाल रहे थे कि वे मुलायम सिंह के खिलाफ दायर याचिका को वापस ले लें। उन्हें तोड़ने के लिए कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों ही ओर से इतनी भीषण कोशिश की गई कि पत्थर भी होता तो टूटकर चकनाचूर हो जाता। कहा तो यहां तक जाता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और दस जनपथ तक चतुर्वेदी पर दबाव डाल रहा था कि वे अब मुलायम सिंह यादव को मुक्त कर दें। सत्ता और लाभ की राजनीति करनेवालों ने उनके सामने साम, दाम, दंड, भेद सब हथियार इस्लेमाल किया लेकिन चतुर्वेदी थे कि अड़े रहे।

उन दिनों भी विश्वनाथ चतुर्वेदी उसी तरह यायावर थे, जैसे आज हैं। उनकी जान को भी खतरा था। केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने उनको सख्त सुरक्षा पहरा मुहैया करा रखा था। राजेन्द्र नगर वाले उनके घर की तंग सीढ़ियों पर इतने पुलिसवाले भरे रहते थे कि एकबारगी लगता था कि इतना सुरक्षित आदमी इतनी असुरक्षित सी जगह पर आखिर क्यों रहता है? लेकिन वह दिन भी आया जब उनकी सारी सुरक्षा वापस ले ली गई। फिर भी वे आगे बढ़ते रहे। थोड़े ही समय में लगा कि वे शायद अब अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। बगल में गनर को दबाए, अपनी छोटी सी गाड़ी को खुद ही चलाते हुए लुटियन्स जोन की सड़कों पर दौड़ लगानेवाले विश्वनाथ चतुर्वेदी अपना पीने का पानी और खाने की सुपारी भी घर से साथ लेकर चलते हैं। कुछ ऐसे मौके भी आये जब उनकी इस फांकामस्ती को भी उनके टूटने का आधार बनाया गया लेकिन न जाने कौन सी मिट्टी का बना यह आदमी, हर समय दबाव से अधिक सख्त साबित हुआ।

उस दिन भी जब शुक्रवार को उन्हें फोन किया था। बिहार के मिड डे मील पर आज मीडिया बड़ा हंगामा कर रहा है लेकिन न जाने कितने लोगों को मालूम होगा कि मिड डे मील में सबसे बड़े घोटाले का सबसे बड़ा पर्दाफाश इसी आदमी की देन थी जब उन्होंने मुलायम सिंह यादव सरकार के मंत्री राजा भैया को सीबीआई जांच के लिए अदालत में घसीटा था। लेकिन शुक्रवार को उन्होंने छूटते ही कहा था कि ''अब मुलाकात नहीं होगी। सीबीआई क्लीन चिट देने जा रही है।'' मुलाकात क्यों नहीं होगी यह तो समझ में आया ही, सीबीआई किसको क्लीन चिट देने जा रही है, यह बताने की जरूरत नहीं थी। वे आगे की कानूनी तैयारियों में लग गये थे। कह रहे हैं कि अगर सीबीआई ने क्लीन चिट दिया तो वे क्लीन चिट को सुप्रीम कोर्ट में चैलेन्ज करेंगे। हालांकि ऐसा न करने के लिए उनके ऊपर एक कांग्रेसी मंत्री का कड़ा दबाव भी है।

फिर भी, दबाव में आने की बजाय चतुर्वेदी जी संग्राम करने चल पड़े हैं। यह जानते हुए भी कि एक भ्रष्ट व्यवस्था के सामने किसी अकेले ईमानदार की औकात अदने से अधिक नहीं होती, वे पीछे लौटने को तैयार नहीं है। हो सकता है सीबीआई की इस क्लीन चिट से मुलायम सिंह यादव के घर और कांग्रेस दफ्तर दोनों जगह घी के चिराग जल पड़ें लेकिन उस ईमान का क्या जिसकी दुहाई सब सरकारें और न्यायपालिकाएं दिया करती हैं? उस ईमान का ठेका अकेले किसी विश्वनाथ चतुर्वेदी के ही कंधे पर क्योंकर हो? सवाल किसी कांग्रेस या मुलायम सिंह यादव से ज्यादा उस जनता के लिए प्रासंगिक है जिसे बेईमान और ईमान के बीच किसी एक का चुनाव करना होता है।

Saturday, July 13, 2013

रजाकर की रजा क्या है?

राजनाथ सिंह को मैं भी उतने ही करीब से जानता हूं जितना आप मुझे। राजनीतिक व्यक्तित्व वैसे भी आप जितने करीब से जानते जाते हैं उतना ही वह अबूझ बनता चला जाता है। इसलिए राजनीतिक रूप से किसी व्यक्ति के बारे में सटीक राय कायम करने के लिए बहुत लंबे समय तक आपको उसके ऊपर नजर रखनी होती है। उसकी गतिविधियों कार्यकलापों, बयानों, भाषणों को जांचना परखना होता है। वह क्या बोल रहा है और क्या कर रहा है इसकी जांच पड़ताल के साथ ही उसकी उस राजनीति के बारे में भी कुछ न कुछ मालूमात रखना होता है जो वह बोलता नहीं सिर्फ करता है।

अगर इन्हीं सारे तथ्यों के मद्देनजर राजनाथ सिंह के राजनीतिक सफरनामें पर सियासत की इबारत पढ़े तो एक बात आपको कभी समझ में नहीं आयेगी कि आखिर राजनाथ सिंह इतनी शिद्दत से नरेन्द्र मोदी का नाम पीएम पद के लिए आगे क्यों बढ़ा रहे हैं? नरेन्द्र मोदी इस देश के पीएम बनना चाहते हैं यह पिछले दो साल से हर वो आदमी जानता है जो थोड़ा भी राजनीतिक या सामाजिक रूप से सक्रिय है। फेसबुक और ट्विटर के जरिए मीडिया को घेरते हुए मीडिया के जरिए उन्होंने पूरी पार्टी को घेरने में कामयाबी हासिल कर ली और अचानक बीते कुछ महीनों में वे पीएम पद के एकमात्र उम्मीदवार बन बैठे।

और कोई तीन चार महीने पहले तक सभाओं में मोदी जिन्दाबाद के नारे लगने पर उखड़ जानेवाले राजनाथ सिंह अचानक ही नरेन्द्र मोदी के भक्त बन गये। उनकी यह भक्ति उस वक्त भी सामने नहीं आई थी जब मोदी विरोधी गडकरी ने उनका नाम अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित किया था। उस वक्त न संघ के लिए राजनाथ सिंह बतौर अध्यक्ष पहली पसंद थे और न ही नरेन्द्र मोदी के लिए। लेकिन राजनीति के त्रिमुंड राजनाथ सिंह ने ऐसी बिसात बिछाई कि उनके अलावा दूसरा कोई उम्मीदवार ही नहीं बचा। जो गडकरी कभी गुलदस्ता देकर राजनाथ सिंह का सम्मान करते थे उन्होंने अध्यक्ष का पद सौंपकर आडवाणी से जारी जंग में अपनी जीत की डुगडुगी बजा दी। उस वक्त आडवाणी नितिन गडकरी को नहीं चाहते थे और संघ नितिन गडकरी के अलावा किसी और नाम पर तैयार नहीं था। मोदी अरुण जेटली को अध्यक्ष बनवाना चाहते थे और जेटली नितिन गडकरी के खिलाफ आयकर का अभियान संचालित कर रहे थे। उस वक्त सिर्फ राजनाथ सिंह एक ऐसे व्यक्ति थे जो सबके साथ होते हुए भी किसी के साथ नहीं थे। वे सिर्फ अपने साथ थे और इसी साथ की वजह से वे दूसरी बार अध्यक्ष बनने में कामयाब हुए।

क्यों मैं उन्हें उतना ही करीब से जानता हूं जितना आप मुझे इसलिए क्योंकि उस वक्त भाजपा कार्यालय में अपनी भी उपस्थिति थी। गुनगुनी धूप के बीच भाजपा कार्यालय के पिछवाड़े में राजनाथ सिंह की औपचारिक ताजपोशी देख लेने के बाद सामने की तरफ पहुंचे तो अरुण जेटली दिखे थे। उन्हें चंद कदम चलते हुए देखा था। 11 अशोक रोड से भीतर ही भीतर 9 अशोक रोड तक जाते हुए। चंद कदमों की इस यात्रा को देखते हुए लगा था मानों बुद्ध जा रहे हों। कुर्ता पाजामा और शाल को राजीव गांधी स्टाइल में शरीर से लपेटे हुए बहुत ही निर्विकार भाव से वे वहां से गुजर गये। कुछ पत्रकार उनसे कुछ कुछ जान लेना चाहते थे लेकिन न तो वे किसी को सवाल पूछने से मना कर रहे थे और न ही किसी के पूछे गये सवाल का जवाब दे रहे थे। उनके चेहरे पर निर्वाण प्राप्त कर चुके व्यक्ति की तरह एक हल्की सी मुस्कान थी।

उन्हें वहां से गुजरते हुए देखकर अचानक ही राजनाथ सिंह का वह वचन याद आ गया जो उन्होंने अपने आखिरी इंटरव्यू में इस बंदे से कहा था। वह भी दिसंबर का ही महीना था और तारीख शायद 20 या 22 रही होगी। राजनाथ सिंह की विदाई बेला थी। भाजपा कार्यालय के उसी दफ्तर में वे बैठे हुए थे जिस दफ्तर के बाहर गुलदस्ता देते हुए नितिन गडकरी की एक बड़ी सी फोटो लगी हुई थी। उस वक्त राजनाथ सिंह ने कहा था- राजनीति बहुत निर्विकार भाव से करनी चाहिए। इसलिए दूसरी बार राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने पर जब अरुण जेटली को बुद्ध पद पर चलते हुए देखा तो एकदम से राजनाथ सिंह का वह उपदेश साकार हो गया। वाणी से न सही, अपने कर्म से राजनाथ सिंह ने अरुण जेटली को बहुत कुछ ऐसा सिखा दिया था कि वे निर्विकार हो चले थे।

रजाकर (कसाई) बहुत निर्दयी होता है। उसकी आंख में शील नहीं होता। रजाकर किसी भी परिस्थिति में अपने शिकार को कत्ल करने में कोई संकोच नहीं करता है। अगर इन्हीं खूबियों का राजनीतिकरण कर दें तो भाजपा के भीतर राजनाथ सिंह राजनीति के बड़े सधे हुए रजाकर नजर आते है। आज मोदी के नाम पर कितनी भी बहस हो जाए। चाहे जिसकी रजा ले ली जाए लेकिन होगा वही जो राजनीति का यह रजाकर चाहेगा।लेकिन यह सब तो दिल्ली की दास्तान है। राजनाथ सिंह ने भाजपा के नेताओं को ही नहीं खुद समूची की समूची पार्टी को उस उत्तर प्रदेश में निर्विकार भाव में ला दिया जहां से भाजपा खड़ी हुई और आगे बढ़ी। ऐसा लग रहा है कि वे केन्द्र की राजनीति में एक बार फिर वही प्रयोग दोहरा रहे जो उन्होंने उत्तर प्रदेश में किया था। कल्याण सिंह के खिलाफ उन्होंने कलराज और टंडन के गुब्बारे में इतनी हवा भर दी कि कल्याण सिंह का फुग्गा तो फूटा ही, कलराज और टंडन भी हवा हो गये। सब जानते थे कि कल्याण सिंह प्रदेश ही नहीं देश में भाजपा के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह रहे हैं लेकिन राजनाथ सिंह ने अपनी अनवरत सक्रियता से ऐसा माहौल बनाया कि लोग उस कल्याण सिंह के नाम पर थू थू करने लगे जिस कल्याण सिंह की दहाड़ को शेर की दहाड़ करार देते थे। कुछ कुछ वैसे ही जैसे आज भाजपा के नेता कार्यकर्ता लौह पुरुष आडवाणी के नाम पर थू थू कर रहे हैं।

उस वक्त भी कल्याण सिंह का सारा किया धरा दक्खिन हो गया था और राजनाथ सिंह बंदर की मानिंद न्याय करने में लगे हुए थे। कल्याण सिंह विदा हुए। पार्टी विदा हुई और न कलराज कुछ कर पाये, न टंडन, न रामप्रकाश और न ही खुद राजनाथ सिंह। प्रदेश में पूरी पार्टी को "एल" आकार देकर राजनाथ सिंह दिल्ली आ गये। अटल बिहारी वाजपेयी को पटाकर अध्यक्ष बन गये। तीन साल के भीतर संघ उनसे इतना चिढ़ गया कि अपने रिटायरमेन्ट के तीन पहले ही वे सम्मान नहीं तौहीन महसूस करने लगे थे। संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत उन्हें नापसंद ही नहीं करते, बाकायदा चिढ़ते हैं। लेकिन राजनाथ सिंह सिर्फ भाजपा में ही राजनीतिक उठा पटक से पार्टी के गले में फंदा डालते हों ऐसा नहीं है। संघ के भीतर भी उनका अपना गढ़ है और सुरेश सोनी संघ प्रमुख की बात भी बाद में सुनते हैं पहले राजनाथ सिंह को पूछते हैं।

फिर भी इस सारे विमर्श में एक बात अभी भी अधूरी की अधूरी है और वह यह कि राजनाथ सिंह मोदी के ऐसे प्रचंड समर्थक कैसे हो गये? वसुंधरा की यात्रा शुरू करवाने गये राजनाथ सिंह ने वहां मोदी जिंदाबाद का नारा सुना तो उखड़ गये थे कि इस तरह का नारा क्यों लगा रहे हैं आप लोग। उसके पहले उत्तर प्रदेश की एक रैली में भी वे इसी तरह उखड़ गये थे। लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे मोदी के सबसे कट्टर समर्थक बन गये? राजनीतिक पंडित जो तर्क देते हैं वह यह कि राजनाथ भाजपा में नये राम पैदा करके खुद लक्ष्मण बनना चाहते हैं। ऊपरी तौर पर यह बात सही भी दिखती है लेकिन अगर राजनाथ सिंह का राजनीतिक इतिहास खंगाले तो ऐसा लगता नहीं है। राजनाथ सिंह ने कभी भी लक्ष्मण बनने वाली राजनीति नहीं की है। उत्तर प्रदेश इसका सबसे सफल उदाहरण है। तो क्या राजनाथ सिंह वही प्रयोग केन्द्र में भी दोहराना चाहते हैं?
मोदी नाम पर राजनाथ की रजा तो यही संकेत कर रही है। मोदी को आगे करके पहले वे पार्टी से उनका पत्ता साफ करेंगे जो मोदी के विरोधी हैं और बाद में बचे हुए मोदी को साफ करना उनके लिए बायें हाथ का काम होगा। इस बीच भाजपा के भीतर मची उठा पटक के बीच एकमात्र वे ही ऐसा चेहरा नजर आयेंगे जो हमेशा बीच बचाव करते नजर आयेंगे लेकिन अंदरूनी हकीकत यह होगी कि सारी समस्या उन्हीं के द्वारा पैदा की जाएगी। उत्तर प्रदेश देख लीजिए। दिल्ली देख लीजिए। गोवा बैठक के दौरान आडवाणी की नाराजगी का प्रकरण उठाकर देख लीजिए। अमित शाह का उत्तर प्रदेश का प्रभार जांच लीजिए। यह कोई अनहोनी नहीं। राजनाथ सिंह ने अब तक तो यही किया है। अबकी वे ऐसा नहीं करेंगे इसकी उम्मीद थोड़ा कम है, क्योंकि पकी उम्र में आदमी का स्वभाव और पक्का हो जाता है।

अगर ऐसा न होता राजनाथ सिंह मोदी का अंध समर्थन करने की बजाय इस वक्त आडवाणी के साथ खड़े नजर आते। कारण व्यक्तिगत नहीं बल्कि सैद्धांतिक है। भाजपा के भीतर सवाल आडवाणी और मोदी के नेतृत्व का नहीं है। सवाल है तरीकों का, सिद्धांत का। संघ जिस खास तरीके की राजनीति करना चाहता था और जो वाजपेयी के कारण संभव नहीं हो सका था अब वह उसी खास तरीके से आगे बढ़ना चाहता है जबकि आडवाणी एक बार फिर वाजपेयी के तरीके को आजमाना चाहते हैं। संघ अकेले कट्टर हिन्दुत्व के साथ भाजपा की राजनीतिक उपस्थिति चाहता है तो आडवाणी उदार हो चुकी भाजपा को एकबार फिर एनडीए के अगुवा की बतौर ही पेश करना चाहते हैं। क्योंकि मोदी को पता है कि उनके नाम पर शायद ही कभी कोई एनडीए बने इसलिए वे संघ का साथ दे रहे हैं लेकिन राजनाथ सिंह क्या कर रहे हैं? बतौर अध्यक्ष वे कम से कम इतना तो जानते ही होंगे कि अकेले चलने में विश्वास करनेवाली कांग्रेस चुनाव के छह महीने पहले से ही राज्यों में गठजोड़ तैयार कर रही है। कांग्रेस के रणीतिकार केन्द्र में तीसरी बार कांग्रेस की नहीं बल्कि यूपीए की तीसरी सरकार बनाने की तैयारी कर रहे है। राजनीति के तह की यह हकीकत तो राजनाथ सिंह भी जानते ही होंगे फिर भला वे आडवाणी को निपटाकर एनडीए को समेटने में क्यों लगे हुए हैं? क्या सिर्फ मोदी के लिए? या फिर वे मोदी को आगे करके भाजपा से ज्यादा कांग्रेस को मदद कर रहे हैं क्योंकि हकीकत यह है कि मोदी का उभार भाजपा से ज्यादा कांग्रेस चाहती है। क्या रजाकर को यह पता नहीं है कि मोदी के नाम पर गैर हिन्दूवादी मतों की जो भगदड़ मचेगी उसमें कांग्रेस ही सबसे ज्यादा फायदा बटोरेगी। फिर रजाकर की इस मोदी भक्त राजनीति का राज क्या है?

जवाब इसलिए भी जरूरी होगा क्योंकि भाजपा का भविष्य वह नहीं होगा जो भाजपा के दूसरे नेता चाहते हैं। भाजपा का भविष्य वह भी नहीं हो पायेगा जो खुद संघ चाहता है। भाजपा का भविष्य वही होगा जिसकी पटकथा अपनी दूसरी पारी में राजनीति का रजाकर लिख जाएगा।

Sunday, July 7, 2013

चीन के मोबाइल का चवन्नीछाप कारोबार

ब्लू मोबाइल का माइक्रोमैक्स से घोषित तौर पर कोई कारोबारी नाता नहीं है। एक दूर देश अमेरिका और लैटिन अमेरिका के देशों में ब्लू सीरीज के स्मार्टफोन बेचती है तो दूसरी कंपनी भारत की उभरती हुई स्मार्टफोन मैन्युफैक्चरिंग कंपनी है। लेकिन दोनों ही कंपनियों में अचानक ही एक समानता पैदा हो गई है। अमेरिका के मियामी में रजिस्टर्ड ब्लू मोबाइल पिछले कुछ हफ्तों से जो ब्लू लाइफ वन नाम से बेच रही थी, ठीक वही मोबाइल अब भारत में माइक्रोमैक्स लांच करने की पूरी तैयारी कर चुका है। माइक्रोमैक्स पांच-पांच हजार रूपये में इस कैनवास-4 नामक स्मार्टफोन के लिए अलग से वेबसाइट बनाकर प्रीआर्डर बुकिंग भी ले रहा है। संभवत जुलाई में किसी समय वह इस स्मार्टफोन की डिलिवरी अपने ग्राहकों को देना शुरू कर देगा। लेकिन क्या ठीक वही फोन भारत में लांच करने के लिए ब्लू मोबाइल से कोई समझौता कर लिया है?
इस बात की कोई सार्वजनिक जानकारी नहीं है कि सार्वजनिक या गुपचुप तरीके से ही दोनों कंपनियों में कोई समझौता हुआ है। अगर ऐसा नहीं है तो माइक्रोमैक्स ठीक वही मोबाइल अपने ब्रांड नेम के साथ भारतीय बाजार में बेचकर क्या एप्पल और सैमसंग की तर्ज पर किसी अदालती लड़ाई को आमंत्रण तो नहीं दे रही है? क्या कल ब्लू मोबाइल माइक्रोमैक्स पर किसी पेटेन्ट के उल्लंघन का दावा तो नहीं ठोंक देगी? बिल्कुल ऐसा कुछ नहीं होगा। क्योंकि जो मोबाइल ब्लू लाइफ वन के नाम से बेच रहा है और माइक्रोमैक्स कैनवास-4 नाम से भारत में लांच करने की तैयारी कर रहा है वे दोनों ही इस मोबाइल के मैन्युफैक्चरर नहीं है। यह मोबाइल न तो अमेरिका में बना है और न ही भारत में। इस मोबाइल का निर्माता चीन में बैठा है और पूरी दुनिया के दुकानदारों को इसी तरह ठप्पे लगा लगाकर अपना माल बेचता है।

2003 के आस पास ही जब दुनिया में पहली बार स्मार्टफोन शब्द आकार ले रहा था ठीक उसी वक्त से चीन में स्मार्टफोन मैन्युफैक्सचरर्स मार्केट तैयार होने लगा था। इस बीच चीन के उदार आर्थिक नीतियों के कारण दुनिया की शीर्ष मोबाइल निर्माता कंपनियों के वेन्डर भी चीन में ही सबसे ज्यादा पाये जाने लगे और आज हालात यह है कि दुनिया का सारा स्मार्टफोन कमोबेश अकेले चीन ही बनाता है। ब्लैकबेरी को छोड़ दें तो स्मार्टफोन मार्केट की अन्य दिग्गज कंपनियां सैमसंग, लेनोवो (खुद चीनी कंपनी), एप्पल और एचटीसी के मोबाइल चीन में ही निर्मित होते हैं। अभी अभी चीन के स्मार्टफोन मार्केट के बारे में आई एक रिपोर्ट (चीन में स्मार्टफोन निर्माण उद्योग) में साफ तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया है कि कैसे चीन की स्मार्टफोन मैन्युफैक्चरिंग मार्केट चीन की जीडीपी से भी चार गुणा तेजी से बढ़ोत्तरी कर रही है। पिछले पांच सालों में चीन में स्मार्टफोन मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की ग्रोथ रेट 48.8 फीसदी है। और अगले पांच साल के दौरान इसमें जरूर 20 प्रतिशत की 'भारी गिरावट' आयेगी लेकिन इस 'भारी गिरावट' के बाद भी ग्रोथरेट 28 फीसदी सालाना के दर पर बने रहने की उम्मीद है। यानी चीन की सकल घरेलू उत्पाद दर 8 फीसदी से साढ़े तीन गुना ज्यादा।
चवन्नीछाप उत्पाद बनाने के लिए बदनाम चीन ने यह तरक्की ऐसे ही हासिल नहीं की है। ताजा रिपोर्ट में जो आंकलन बताया गया है उसमें बताया गया है कि 2013 के अंत तक चीन स्मार्टफोन का 55.3 अरब डॉलर का कारोबार करेगा। चीन जितने भी स्मार्टफोन बनाता है उसमें आधे से अधिक संख्या उन चार बड़ी कंपनियों (एप्पल, सैमसंग, लेनोवो और एचटीसी) के हिस्से में जाती हैं जो यहां निर्मित होनेवाले स्मार्टफोन को दुनियाभर के बाजार में बेचती हैं। लेकिन आधा हिस्सा उन छोटे कारोबारियों का है जो हर बड़ी कंपनी के डिजाइन को हूबहू कापी करके नये स्मार्टफोन मॉडल के रूप में पेस्ट कर देते हैं। इन स्मार्टफोन कंपनियों की बाजार हिस्सेदारी 48 प्रतिशत के आसपास है। चीन में बननेवाले कुल स्मार्टफोन का 86.4 फीसदी एक्सपोर्ट होता है। यानी, ठीक वही स्मार्टफोन लैटिन अमेरिका, अफ्रीका के बाजार में अलग अलग ब्रांड नेम से बिकने के लिए चला जाता है जो भारत जैसे उभरते बाजार में किसी घरेलू कंपनी के नाम से बिकता है। इसलिए दुनिया में स्मार्टफोन कहीं भी बिके बनता चीन में ही है फिर वह चाहे किसी ब्रांडेड कंपनी का स्मार्टफोन हो कि चवन्नीछाप कंपनी का स्मार्टफोन। दोनों ही तरह के स्मार्टफोन का अकेला निर्माता चीन ही है।

लेकिन अगर ब्रांडेड कंपनियों के स्मार्टफोन का जिक्र अलग कर दें तो भी चीन में इस वक्त 295 कंपनियां हैं जो स्मार्टफोन बनाने का कारोबार कर रही हैं। आनेवाले पांच सालों में इनकी संख्या में कोई कमी नजर नहीं आ रही है। 2018 तक स्मार्टफोन बनानेवाली कंपनियों की यह संख्या 411 तक पहुंच जाने की उम्मीद है। जाहिर है, हर साल 315 मिलियन स्मार्टफोन बनानेवाली इन कंपनियों के लिए दुनिया के सारे देश बेहतरीन कारोबार के अवसर हैं। लेकिन एक सवाल जरूर उठता है कि इन कंपनियों के लिए यह कैसे संभव हुआ है कि उन्होंने सस्ते मोबाइल निर्मित कर लिये। चीन में लोकल स्मार्टफोन का विकास दो सुविधाओं के कारण जबर्दस्त तरीके से हुआ है। पहला, एन्डराइड का ओपेन सोर्स साफ्टवेयर और दूसरा ताइवानी मीडियाटेक और क्वालकॉम के सस्ते प्रोसेसर। सस्ते प्रोसेसर और मुफ्त साफ्टवेयर की बदौलत चीन के स्मार्टफोन मार्केट ने स्मार्ट मूव हासिल कर लिया है और भारत जैसे बाजार में करीब दर्जनभर कंपनियां ही ऐसी हैं जो एक समय में एक ही जैसा स्मार्टफोन लांच करती हैं और हमारे मोबाइल विशेषज्ञ उसकी जमकर विशेषताएं बताते हैं। लेकिन कोई यह सवाल नहीं उठाता कि आखिर क्या कारण है कि भारत की लावा, माइक्रोमैक्स, झोलो, स्पाइस, सेलकॉन जैसी सड़कछाप मोबाइल कंपनियां एक समय में एक ही जैसे स्मार्टफोन मॉडल क्यों लांच करती हैं?

वह इसलिए एक वक्त में चीन में जिस एक तरह के का माल बन रहा होता है वह अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के देशों में अलग अलग ब्रांड नेम से बिकने के लिए पहुंचा दिया जाता है। इसीलिए कोई एक भारतीय कंपनी अगर एचडी स्क्रीन का स्मार्टफोन लांच करती है तो इसी प्राइसरेंज में दर्जनों एचडी स्क्रीन के मोबाइल मार्केट में पैदा हो जाते हैं। फिलहाल यह वक्त 5 इंच स्क्रीन से आगे जाने का आ गया है इसलिए जैसे ही सैमसंग ने गैलेक्सी मेगा सीरीज के नाम पर 5.8 इंच स्क्रीन साइज का स्मार्टफोन लांच किया चीन में 5.5 इंच स्क्रीन के मोबाइल का नया लॉट बनकर तैयार हो गया। और भारत में लावा मोबाइल हो कि माइक्रोमैक्स सब एक साथ 5.5 इंच एचडी स्क्रीन में क्वाडक्वोर प्रोसेसर के साथ 13 मेगापिक्सल कैमरेवाला स्मार्टफोन लांच करने के लिए तैयार हो गये हैं, यह बताते हुए कि यह उनकी अपनी कंपनी का स्मार्टफोन है।

आश्चर्य चीन के कारोबार पर नहीं बल्कि भारत के कारोबारियों पर होता है जो भारत जैसे उभरते बाजार में सिर्फ चीनी माल बेचकर मुनाफा कमाने की मानसिकता से काम कर रहे हैं। इस वक्त भारत में 7 करोड़ से अधिक स्मार्टफोन यूजर हैं जिनमें अगले पांच सालों में भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा स्मार्टफोन यूजर देश बन जाएगा। ठीक उसी वक्त में जब चीन अपने स्मार्टफोन मैन्युफैक्चरिंग में 28 फीसदी सालाना की दर से बढ़ोत्तरी दर्ज करेगा। तब क्या भारतीय कारोबारियों के सामने यह सवाल खड़ा नहीं होना चाहिए कि भारत जैसे उभरते मोबाइल बाजार में भारत का अपना स्मार्टफोन निर्माण बाजार हो? अगर ताइवान अपनी जरूरतों के हिसाब से सस्ते प्रोसेसर बना सकता है तो यहां की सिलिकॉन वैलियों में बसनेवाले कौन सी घास काट रहे हैं? आईटी और टेक्नॉलाजी में चीन अगर एक दशक में इतना ताकतवर हो गया है कि पूरी दुनिया के सामने उसने बेहतर जीवन का घटिया ही सही, सस्ता विकल्प खड़ा कर दिया है तो भारत का आईटी बूम क्या यूरोप और अमेरिका के लिए साफ्टवेयर बनाने से आगे कभी नहीं सोच पायेगा? दुनिया के उभरते दोयम दर्जे के मोबाइल बाजार में भी क्या हम केवल चवन्नीछाप कारोबारी बनकर ही रह जाएंगे? चीन को सरकारी चुनौती देकर परास्त करने की ख्वाहिस रखनेवाले राष्ट्रभक्त नागरिकों को फुर्सत मिले तो इस बारे में भी जरूर सोचना चाहिए।

महाबोधि मंदिर में इस्लामी आतंकवाद या हिन्दू चरमपंथ?

वर्तमान महाबोधि मंदिर का इतिहास अगर डेढ़ हजार साल से भी अधिक पुराना है तो इस महाबोधि मंदिर में हिन्दू बौद्ध विवाद भी कोई कम पुराना नहीं है। पिछले छह दशक से अधिक समय से बोधगया मंदिर ट्रस्ट पर हिन्दुओं का कब्जा है और इस ट्रस्ट की अकूत धन संपदा के कारण इस ट्रस्ट में होनेवाली नियुक्तियां राजनीतिक नियुक्तियां बनकर रह गई है। पदेन इस ट्रस्ट का अध्यक्ष गया का जिला कलेक्टर ही होता है लेकिन अन्य लोग सामान्य हिन्दू होते हैं। यह महज संयोग ही है कि इस ट्रस्ट में अभी जो दो लोग हैं उनमें से एक के बारे में कहा जाता है कि वह जदयू का समर्थक है जबकि दूसरा भारतीय जनता पार्टी का। लेकिन फिलहाल यह किस्सा अभी अलग।

बोधगया में जो विस्फोट हुआ है उसमें नुकसान के लिहाज से भले ही कोई सिर्फ मेज कुर्सियां टूंटी हों और फूल पत्तियां बिखरीं हों लेकिन इसका सांकेतिक नुकसान छवि के लिहाज से वैश्विक है। महाबोधि मंदिर भगवान बुद्ध की निर्वाण भूमि है और बौद्ध धर्मावलंबी मानते हैं कि संसार का विनाश होने के बाद सिर्फ यही एक स्थान बचा रह जाएगा जहां से सृष्टि दोबारा शुरू होगी। बौद्ध धर्मावलम्बी बोधगया को धरती की नाभि मानते हैं इसलिए दुनियाभर के बौद्धों के लिए यह सबसे पवित्रतम स्थल है। यही कारण है कि दुनिया के 52 देशों ने अपने अपने धार्मिक दूतावास यहां बना रखे हैं जो उनके देश से आनेवाले नागरिकों की देखरेख करते हैं।

गया से दस बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित बोधगया में महाबोधि मंदिर के इतर कुछ भी महत्व का नहीं है इसलिए यहां जो आते हैं वे सिर्फ महाबोधि मंदिर में शीश झुकाने ही आते हैं। इसलिए बोधगया की करीब बीस पच्चीस हजार की सचल आबादी में बड़ा हिस्सा सिर्फ नियमित आनेवाले बौद्धभक्तों का ही होता है। ऐसे में यहां विस्फोट की खबर पूरी दुनिया के लिए एक ऐसी चेतावनी है जिसका सीधा मतलब यह निकलता है कि अब भारत में शांतिप्रिय बौद्धों को भी निशाना बनाया जा रहा है। कूटनीतिक स्तर पर होनेवाले नुकसान का अंदाजा संभवत: भारत सरकार को भी है इसलिए तत्काल जांच के लिए एनआईए टीम को कोलकाता से बोधगया के लिए रवाना कर दिया गया।

अब यह एनआईए के ऊपर है कि वह इस पूरे मामले की तहकीकात करे और बम विस्फोट के पीछे के तार खोज निकाले। लेकिन जिस तरह से स्थानीय पुलिस और दिल्ली पुलिस के अधिकारी दावा कर रहे हैं उससे तो यही लगता है कि महाबोधि मंदिर पिछले कई महीनों से आतंकियों के निशाने पर था और इसकी खुफिया सूचनाएं पुलिस महकमें को मिलती रहती थीं लेकिन क्योंकि कभी कुछ हुआ नहीं इसलिए पुलिस प्रशासन ने कोई खास पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था नहीं की। फिर भी महाबोधि मंदिर में अंदर भले ही सुरक्षा की बौद्ध व्यवस्था हो, बाहर तो बिहार पुलिस का पहरा रहता ही है। जिस तरह के विस्फोट हुए हैं उससे क्या इस बात पर यकीन किया जा सकता है कि कोई बड़ी आतंकी कार्रवाई अंजाम दी गई और बिहार पुलिस भोर की नींद सोती रह गई?  अगर बड़ी आतंकी कार्रवाई ही हुआ करें तो पाकिस्तान की मस्जिदों में होनेवाले विस्फोटों को क्या नाम देना होगा? अगर दिल्ली और बिहार पुलिस यह कह रही है कि उनके पास सूचनाएं थीं, तो कम से कम उनकी 'सूचनाओं के स्तर वाली आतंकी कार्रवाई' यह नहीं हो सकती जिसे अंजाम दिया गया है। इसलिए जो हुआ उसे भूलकर महाबोधि मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था को पुख्ता करना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

लेकिन जो हुआ उसके शुरूआती संकेत यही है कि महाबोधि मंदिर में आतंकी कार्रवाई नहीं बल्कि राजनीतिक रंजिश की कार्रवाई को अंजाम दिया गया। इसके दो संभावित कारण हो सकते हैं। सोशल मीडिया पर भी इस संबंध में गया के ही रहनेवाले एक वकील मदन तिवारी ने सवाल उठाया है कि ये धमाके चौंकानेवाले नहीं बल्कि हंसानेवाले हैं। हमारे लिए इस तरह के बम विस्फोट कोई आतंकी कार्रवाई नहीं हुआ करते हैं। मदन तिवारी सवाल उठाते हैं कि अगर वास्तव में यह कोई इस्लामिक आतंकी कार्रवाई थी तो फिर मंदिर के परिसर को निशाना क्यों बनाया गया? और बम भी इतने शक्तिशाली थे कि मेज कुर्सी तोड़ने के अलावा कुछ नहीं कर सके। हां, दो बौद्ध सन्यासी जरूर घायल हो गये जिनका स्थानीय अस्पताल में ही इलाज भी चल रहा है और ईश्वर की कृपा से उन्हें कोई खतरा नहीं है।

अब आखिर में वही पहलेवाली बात कि क्या महाबोधि मंदिर में विस्फोट का कोई राजनीतिक कनेक्शन भी हो सकता है? क्या हिन्दू बौद्ध विवाद या फिर मोदी नीतीश झगड़े का इस विस्फोट से कोई लेना देना हो सकता है? आखिर क्या कारण है कि भाजपा के एक स्थानीय नेता नीतीश का विरोध करने

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