राजनाथ सिंह को मैं भी उतने ही करीब से जानता
हूं जितना आप मुझे। राजनीतिक व्यक्तित्व वैसे भी आप जितने करीब से जानते
जाते हैं उतना ही वह अबूझ बनता चला जाता है। इसलिए राजनीतिक रूप से किसी
व्यक्ति के बारे में सटीक राय कायम करने के लिए बहुत लंबे समय तक आपको उसके
ऊपर नजर रखनी होती है। उसकी गतिविधियों कार्यकलापों, बयानों, भाषणों को
जांचना परखना होता है। वह क्या बोल रहा है और क्या कर रहा है इसकी जांच
पड़ताल के साथ ही उसकी उस राजनीति के बारे में भी कुछ न कुछ मालूमात रखना
होता है जो वह बोलता नहीं सिर्फ करता है।
अगर इन्हीं सारे तथ्यों के मद्देनजर राजनाथ सिंह के राजनीतिक सफरनामें पर सियासत की इबारत पढ़े तो एक बात आपको कभी समझ में नहीं आयेगी कि आखिर राजनाथ सिंह इतनी शिद्दत से नरेन्द्र मोदी का नाम पीएम पद के लिए आगे क्यों बढ़ा रहे हैं? नरेन्द्र मोदी इस देश के पीएम बनना चाहते हैं यह पिछले दो साल से हर वो आदमी जानता है जो थोड़ा भी राजनीतिक या सामाजिक रूप से सक्रिय है। फेसबुक और ट्विटर के जरिए मीडिया को घेरते हुए मीडिया के जरिए उन्होंने पूरी पार्टी को घेरने में कामयाबी हासिल कर ली और अचानक बीते कुछ महीनों में वे पीएम पद के एकमात्र उम्मीदवार बन बैठे।
और कोई तीन चार महीने पहले तक सभाओं में मोदी जिन्दाबाद के नारे लगने पर उखड़ जानेवाले राजनाथ सिंह अचानक ही नरेन्द्र मोदी के भक्त बन गये। उनकी यह भक्ति उस वक्त भी सामने नहीं आई थी जब मोदी विरोधी गडकरी ने उनका नाम अध्यक्ष के लिए प्रस्तावित किया था। उस वक्त न संघ के लिए राजनाथ सिंह बतौर अध्यक्ष पहली पसंद थे और न ही नरेन्द्र मोदी के लिए। लेकिन राजनीति के त्रिमुंड राजनाथ सिंह ने ऐसी बिसात बिछाई कि उनके अलावा दूसरा कोई उम्मीदवार ही नहीं बचा। जो गडकरी कभी गुलदस्ता देकर राजनाथ सिंह का सम्मान करते थे उन्होंने अध्यक्ष का पद सौंपकर आडवाणी से जारी जंग में अपनी जीत की डुगडुगी बजा दी। उस वक्त आडवाणी नितिन गडकरी को नहीं चाहते थे और संघ नितिन गडकरी के अलावा किसी और नाम पर तैयार नहीं था। मोदी अरुण जेटली को अध्यक्ष बनवाना चाहते थे और जेटली नितिन गडकरी के खिलाफ आयकर का अभियान संचालित कर रहे थे। उस वक्त सिर्फ राजनाथ सिंह एक ऐसे व्यक्ति थे जो सबके साथ होते हुए भी किसी के साथ नहीं थे। वे सिर्फ अपने साथ थे और इसी साथ की वजह से वे दूसरी बार अध्यक्ष बनने में कामयाब हुए।
क्यों मैं उन्हें उतना ही करीब से जानता हूं जितना आप मुझे इसलिए क्योंकि उस वक्त भाजपा कार्यालय में अपनी भी उपस्थिति थी। गुनगुनी धूप के बीच भाजपा कार्यालय के पिछवाड़े में राजनाथ सिंह की औपचारिक ताजपोशी देख लेने के बाद सामने की तरफ पहुंचे तो अरुण जेटली दिखे थे। उन्हें चंद कदम चलते हुए देखा था। 11 अशोक रोड से भीतर ही भीतर 9 अशोक रोड तक जाते हुए। चंद कदमों की इस यात्रा को देखते हुए लगा था मानों बुद्ध जा रहे हों। कुर्ता पाजामा और शाल को राजीव गांधी स्टाइल में शरीर से लपेटे हुए बहुत ही निर्विकार भाव से वे वहां से गुजर गये। कुछ पत्रकार उनसे कुछ कुछ जान लेना चाहते थे लेकिन न तो वे किसी को सवाल पूछने से मना कर रहे थे और न ही किसी के पूछे गये सवाल का जवाब दे रहे थे। उनके चेहरे पर निर्वाण प्राप्त कर चुके व्यक्ति की तरह एक हल्की सी मुस्कान थी।
उन्हें वहां से गुजरते हुए देखकर अचानक ही राजनाथ सिंह का वह वचन याद आ गया जो उन्होंने अपने आखिरी इंटरव्यू में इस बंदे से कहा था। वह भी दिसंबर का ही महीना था और तारीख शायद 20 या 22 रही होगी। राजनाथ सिंह की विदाई बेला थी। भाजपा कार्यालय के उसी दफ्तर में वे बैठे हुए थे जिस दफ्तर के बाहर गुलदस्ता देते हुए नितिन गडकरी की एक बड़ी सी फोटो लगी हुई थी। उस वक्त राजनाथ सिंह ने कहा था- राजनीति बहुत निर्विकार भाव से करनी चाहिए। इसलिए दूसरी बार राजनाथ सिंह के अध्यक्ष बनने पर जब अरुण जेटली को बुद्ध पद पर चलते हुए देखा तो एकदम से राजनाथ सिंह का वह उपदेश साकार हो गया। वाणी से न सही, अपने कर्म से राजनाथ सिंह ने अरुण जेटली को बहुत कुछ ऐसा सिखा दिया था कि वे निर्विकार हो चले थे।
रजाकर (कसाई) बहुत निर्दयी होता है। उसकी आंख में शील नहीं होता। रजाकर किसी भी परिस्थिति में अपने शिकार को कत्ल करने में कोई संकोच नहीं करता है। अगर इन्हीं खूबियों का राजनीतिकरण कर दें तो भाजपा के भीतर राजनाथ सिंह राजनीति के बड़े सधे हुए रजाकर नजर आते है। आज मोदी के नाम पर कितनी भी बहस हो जाए। चाहे जिसकी रजा ले ली जाए लेकिन होगा वही जो राजनीति का यह रजाकर चाहेगा।लेकिन यह सब तो दिल्ली की दास्तान है। राजनाथ सिंह ने भाजपा के नेताओं को ही नहीं खुद समूची की समूची पार्टी को उस उत्तर प्रदेश में निर्विकार भाव में ला दिया जहां से भाजपा खड़ी हुई और आगे बढ़ी। ऐसा लग रहा है कि वे केन्द्र की राजनीति में एक बार फिर वही प्रयोग दोहरा रहे जो उन्होंने उत्तर प्रदेश में किया था। कल्याण सिंह के खिलाफ उन्होंने कलराज और टंडन के गुब्बारे में इतनी हवा भर दी कि कल्याण सिंह का फुग्गा तो फूटा ही, कलराज और टंडन भी हवा हो गये। सब जानते थे कि कल्याण सिंह प्रदेश ही नहीं देश में भाजपा के लिए रीढ़ की हड्डी की तरह रहे हैं लेकिन राजनाथ सिंह ने अपनी अनवरत सक्रियता से ऐसा माहौल बनाया कि लोग उस कल्याण सिंह के नाम पर थू थू करने लगे जिस कल्याण सिंह की दहाड़ को शेर की दहाड़ करार देते थे। कुछ कुछ वैसे ही जैसे आज भाजपा के नेता कार्यकर्ता लौह पुरुष आडवाणी के नाम पर थू थू कर रहे हैं।
उस वक्त भी कल्याण सिंह का सारा किया धरा दक्खिन हो गया था और राजनाथ सिंह बंदर की मानिंद न्याय करने में लगे हुए थे। कल्याण सिंह विदा हुए। पार्टी विदा हुई और न कलराज कुछ कर पाये, न टंडन, न रामप्रकाश और न ही खुद राजनाथ सिंह। प्रदेश में पूरी पार्टी को "एल" आकार देकर राजनाथ सिंह दिल्ली आ गये। अटल बिहारी वाजपेयी को पटाकर अध्यक्ष बन गये। तीन साल के भीतर संघ उनसे इतना चिढ़ गया कि अपने रिटायरमेन्ट के तीन पहले ही वे सम्मान नहीं तौहीन महसूस करने लगे थे। संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत उन्हें नापसंद ही नहीं करते, बाकायदा चिढ़ते हैं। लेकिन राजनाथ सिंह सिर्फ भाजपा में ही राजनीतिक उठा पटक से पार्टी के गले में फंदा डालते हों ऐसा नहीं है। संघ के भीतर भी उनका अपना गढ़ है और सुरेश सोनी संघ प्रमुख की बात भी बाद में सुनते हैं पहले राजनाथ सिंह को पूछते हैं।
फिर भी इस सारे विमर्श में एक बात अभी भी अधूरी की अधूरी है और वह यह कि राजनाथ सिंह मोदी के ऐसे प्रचंड समर्थक कैसे हो गये? वसुंधरा की यात्रा शुरू करवाने गये राजनाथ सिंह ने वहां मोदी जिंदाबाद का नारा सुना तो उखड़ गये थे कि इस तरह का नारा क्यों लगा रहे हैं आप लोग। उसके पहले उत्तर प्रदेश की एक रैली में भी वे इसी तरह उखड़ गये थे। लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे मोदी के सबसे कट्टर समर्थक बन गये? राजनीतिक पंडित जो तर्क देते हैं वह यह कि राजनाथ भाजपा में नये राम पैदा करके खुद लक्ष्मण बनना चाहते हैं। ऊपरी तौर पर यह बात सही भी दिखती है लेकिन अगर राजनाथ सिंह का राजनीतिक इतिहास खंगाले तो ऐसा लगता नहीं है। राजनाथ सिंह ने कभी भी लक्ष्मण बनने वाली राजनीति नहीं की है। उत्तर प्रदेश इसका सबसे सफल उदाहरण है। तो क्या राजनाथ सिंह वही प्रयोग केन्द्र में भी दोहराना चाहते हैं?
मोदी नाम पर राजनाथ की रजा तो यही संकेत कर रही है। मोदी को आगे करके पहले वे पार्टी से उनका पत्ता साफ करेंगे जो मोदी के विरोधी हैं और बाद में बचे हुए मोदी को साफ करना उनके लिए बायें हाथ का काम होगा। इस बीच भाजपा के भीतर मची उठा पटक के बीच एकमात्र वे ही ऐसा चेहरा नजर आयेंगे जो हमेशा बीच बचाव करते नजर आयेंगे लेकिन अंदरूनी हकीकत यह होगी कि सारी समस्या उन्हीं के द्वारा पैदा की जाएगी। उत्तर प्रदेश देख लीजिए। दिल्ली देख लीजिए। गोवा बैठक के दौरान आडवाणी की नाराजगी का प्रकरण उठाकर देख लीजिए। अमित शाह का उत्तर प्रदेश का प्रभार जांच लीजिए। यह कोई अनहोनी नहीं। राजनाथ सिंह ने अब तक तो यही किया है। अबकी वे ऐसा नहीं करेंगे इसकी उम्मीद थोड़ा कम है, क्योंकि पकी उम्र में आदमी का स्वभाव और पक्का हो जाता है।
अगर ऐसा न होता राजनाथ सिंह मोदी का अंध समर्थन करने की बजाय इस वक्त आडवाणी के साथ खड़े नजर आते। कारण व्यक्तिगत नहीं बल्कि सैद्धांतिक है। भाजपा के भीतर सवाल आडवाणी और मोदी के नेतृत्व का नहीं है। सवाल है तरीकों का, सिद्धांत का। संघ जिस खास तरीके की राजनीति करना चाहता था और जो वाजपेयी के कारण संभव नहीं हो सका था अब वह उसी खास तरीके से आगे बढ़ना चाहता है जबकि आडवाणी एक बार फिर वाजपेयी के तरीके को आजमाना चाहते हैं। संघ अकेले कट्टर हिन्दुत्व के साथ भाजपा की राजनीतिक उपस्थिति चाहता है तो आडवाणी उदार हो चुकी भाजपा को एकबार फिर एनडीए के अगुवा की बतौर ही पेश करना चाहते हैं। क्योंकि मोदी को पता है कि उनके नाम पर शायद ही कभी कोई एनडीए बने इसलिए वे संघ का साथ दे रहे हैं लेकिन राजनाथ सिंह क्या कर रहे हैं? बतौर अध्यक्ष वे कम से कम इतना तो जानते ही होंगे कि अकेले चलने में विश्वास करनेवाली कांग्रेस चुनाव के छह महीने पहले से ही राज्यों में गठजोड़ तैयार कर रही है। कांग्रेस के रणीतिकार केन्द्र में तीसरी बार कांग्रेस की नहीं बल्कि यूपीए की तीसरी सरकार बनाने की तैयारी कर रहे है। राजनीति के तह की यह हकीकत तो राजनाथ सिंह भी जानते ही होंगे फिर भला वे आडवाणी को निपटाकर एनडीए को समेटने में क्यों लगे हुए हैं? क्या सिर्फ मोदी के लिए? या फिर वे मोदी को आगे करके भाजपा से ज्यादा कांग्रेस को मदद कर रहे हैं क्योंकि हकीकत यह है कि मोदी का उभार भाजपा से ज्यादा कांग्रेस चाहती है। क्या रजाकर को यह पता नहीं है कि मोदी के नाम पर गैर हिन्दूवादी मतों की जो भगदड़ मचेगी उसमें कांग्रेस ही सबसे ज्यादा फायदा बटोरेगी। फिर रजाकर की इस मोदी भक्त राजनीति का राज क्या है?
जवाब इसलिए भी जरूरी होगा क्योंकि भाजपा का भविष्य वह नहीं होगा जो भाजपा के दूसरे नेता चाहते हैं। भाजपा का भविष्य वह भी नहीं हो पायेगा जो खुद संघ चाहता है। भाजपा का भविष्य वही होगा जिसकी पटकथा अपनी दूसरी पारी में राजनीति का रजाकर लिख जाएगा।
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