पहले जरा सरकार का दावा सुन लीजिए। मिड डे मील
जिसे हिन्दी में मध्यान्ह भोजन योजना कहा जाता है, उसके तहत प्रतिदिन
सरकार देश के 12 लाख स्कूलों में 11 करोड़ बच्चों को जरूरी
'पुष्टाहारयुक्त' भोजन मुहैया करा रही है। बहुत महत्वाकांक्षी सफलता है,
यह। केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक सब अपनी अपनी सफलता के ढोल पीटते
हैं। और सिर्फ 11 करोड़ बच्चों को ही पुष्ट आहार नहीं मिल रहा है। 24 लाख
नई नौकरियां भी निकली हैं। उनकी जो भोजन पकाती हैं। ज्यादातर दलित और
पिछड़े वर्ग की महिलाएं। सभ्य लोगों की भाषा में कहें तो अनपढ़ और गंवार
महिलाएं जो स्कूल की सेविकाएं बन गई हैं। 11 करोड़ बच्चों को नियमित भोजन,
24 लाख लोगों को नौकरियां और करीब पौने छह लाख स्कूलों में क्लासरूम के साथ
किचन की स्थापना। सबकुछ कितने सुनहरे भारत की तस्वीर सामने रखता है। लेकिन
इस पुष्टाहार की पोल तब खुलती है जब किसी पोन्टी चढ्ढा पर बच्चों की
पंजीरी चुराकर अमीर हो जाने का आरोप लग जाता है या फिर किसी सुशासन बाबू के
शासन में बच्चों के खाने में पेस्टीसाइड मिलाकर खिला दिया जाता है। कभी
कभी आंख तो खुलती है लेकिन कोढ़ में खुजली करके फिर आंख बंद कर ली जाती है।
बिहार के छपरा में जहां 33 अबोध बच्चे अकाल काल के गाल में समा गये, उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे घर से स्कूल सिर्फ बस्ता और बोरिया ही लेकर नहीं आते थे, बल्कि अपना लोटा थाली भी साथ लाते थे। इस उम्मीद में कि पढ़ाई के छद्म के साथ पेटभर खाना भी मिलेगा। और ऐसा केवल छपरा, मधुबनी और गया के वे बच्चे ही नहीं कर रहे थे जिनके खाने में जहरीला पदार्थ पाया गया है, उस तमिलनाडु में भी पुष्टाहार के नाम पर जहरबुझा खाना खिला दिया गया है जहां आज से नौ दशक पहले पहली बार इस तरह की योजना आधुनिक भारत में शुरू की गई थी। मिड डे मील वास्तव में बच्चों के मौत का मील ही नहीं है बल्कि भ्रष्ट व्यवस्था का पेट भरनेवाला खाना भी साबित हो रहा है।
आज से बहुत पहले करीब नब्बे साल पहले अब के तमिलनाडु और तब के मद्रास प्रेसिडेन्सी में पहली बार इस तरह की योजना पर अमल किया गया था जब 1923 में बच्चों को स्कूल में दोपहर का भोजन देने की शुरूआत की गई थी। करीब तीन दशक बाद जब के कामराज तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने तो उन्होने इस योजना को अल्पसंख्यक स्कूल के बच्चों के लिए भी लागू कर दिया। के कामराज के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एक बार भैंस चरा रहे एक बच्चे से पूछा था कि तुम स्कूल क्यों नहीं जाते? तो बच्चे ने उलटा कामराज से ही पूछ लिया था कि क्या वहां खाना मिलेगा? यह बात कामराज के मन में घर कर गई और उन्होने बच्चों के मध्यान भोजन की योजना शुरू कर दी। लेकिन कामराज की इस योजना को असली आधार दिया एम जी रामचंद्रन ने और उन्होंने 1982 में मध्यान्ह भोजन की यह योजना समूचे राज्य में दसवीं क्लास तक के बच्चों के लिए लागू कर दी, हर स्कूल में।
तमिलनाडु की ही तर्ज पर आंध्र प्रदेश, केरल, गुजरात और मध्य प्रदेश भी अस्सी के दशक से ही कुछ कुछ हिस्सों में अपने स्कूलों में बच्चों को पका पकाया खाना खिलाकर प्राथमिक शिक्षा को सुनिश्चित करा रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर पहला बड़ा प्रयास हुआ सुप्रीम के आदेश के बाद 2001 में जब 21 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राज्यों के लिए अब अनिवार्य होगा कि वे स्कूलों में बच्चों को पौष्टिक और पका पकाया भोजन देने की व्यवस्था करें। अभी तक कुछ राज्य पका पकाया भोजन देने की जगह कुछ किलो की दर से बच्चों को कच्चा अनाज दे देते थे। लेकिन इस आदेश के बाद अब राज्यों के लिए अनिवार्य हो गया कि वे स्कूल जानेवाले बच्चों को पका पकाया खाना खिलाने की व्यवस्था करें। इसके बाद सरकार क्या होती है और सरकारी व्यवस्था क्या होती है, इसे बताने या समझाने की जरूरत नहीं है।
इसलिए अगर बिहार और खुद उस तमिलनाडु से बच्चों के बीमार होने और मरने की खबरें आ रही हैं तो इससे व्यवस्था की कोई कलई खुल रही हो ऐसा भी नहीं है। कलई तो कबसे खुली पड़ी है, हम हैं जो अभी देख पा रहे हैं। मध्यान्ह भोजन योजना को लेकर सारी बहस और चर्चा इस बात पर टिक गई है कि भोजन पकाने की सर्वोत्तम व्यवस्था होनी चाहिए। सरकारी कर्मचारी के तौर पर जब हमारी नियुक्ति होती है तो हमारी मानसिकता कितना सर्वोत्तम कर्म करने की रह जाती है इसे बताने की जरूरत शायद किसी को नहीं है। सरकार का काम यानी हराम का काम। यह हमारी मानसिकता है और पिछले साठ सालों में बदलने की बजाय बलवती ही होती चली गई है। ऐसे में बहस का मुद्दा क्या यह नहीं हो सकता कि आखिर सरकारी स्कूलों में खाना खिलाया ही क्यों जाए? बात थोड़ी अचरज भरी हो सकती है लेकिन संभवत: मीड डे मील को मौत का मील बनाने से बचाने के लिए और दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है।
एक बच्चे का ध्यान कोई कान्वेन्ट में पढ़ानेवाली सुशिक्षित अध्यापिका उतना नहीं रख सकती जितना कि उसकी मां रखती है तो फिर किसी सरकारी स्कूल की सेविका से यह उम्मीद करना बेकार है कि वह बच्चों का इतना ध्यान रखेगी कि उसे पुष्टाहार पकाकर खिलाएगी। फिर सेविका के हाथ में तो सिर्फ चूल्हा होता है। चूहे तो ऊपर से लेकर नीचे तक इस पूरी योजना को कुतर रहे हैं। पोन्टी चड्ढा ने तो बच्चों की पंजीरी चुरा चुराकर शराब के कारोबार से ज्यादा मुनाफा कमा लिया था। राजा भैया और उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार के ऊपर आरोप है कि उन्होंने बच्चों के लिए भरकर लाये जा रहे ट्रकों को उस समय पड़ोसी देशों में बेंच दिया था। करोड़ों का घपला है। शुरूआती जांच पड़ताल में पक्के सबूत भी मिले और मामला हाईकोर्ट में लंबित है। और ऐसा भी नहीं है कि सरकार चलानेवाले यह सब जानते नहीं है। खूब जानते हैं लेकिन सस्ती लोकप्रियता की चूहेदानी में नागरिक को मतदाता बनाकर फंसाने की मंशा ऐसी बलवती है कि योजनाएं रोके नहीं रूकती हैं।
और फिर सरकार की मंशा खाना खिलाने से ज्यादा शिक्षा दर बढ़ाने पर है। कोई भी सरकार जब अपने काम काज की बैलेन्स शीट तैयार करती है तो बड़े शान से बताती है तो उसकी सरकार में कैसे स्कूलों में बच्चों का दाखिला रेट बढ़ा है। फार्मूला कमोबेश वही है जो पहली बार कामराज ने अपनाया था। यह फार्मूला भारत जैसे सामाजिक रूप से सशक्त देश के लिए उपयुक्त नहीं है। बच्चों की भूख यह सरकारी सवाल नहीं है। सामाजिक सवाल है। भारत में खैरात दी जाती है, ली नहीं जाती। किसी बच्चे को स्कूल में मुफ्त का खाना खिलाकर पढ़ाने से वह बहुत जिम्मेदार नागरिक बनकर निकलेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती। मिड डे मील जैसी योजना गरीबों के लिए कल्याणकारी योजना भले नजर आती हों लेकिन यह दीर्घकालिक तौर पर देश के लिए अकाल्याणकारी योजना साबित होगी। ऐसी योजनाओं से पारिवारिक और सामाजिक ताना बाना छिन्न भिन्न होगा और सरकार को परिवार और समाज में हस्तक्षेप बढ़ाने का बेतहाशा मौका मिलेगा। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे सरकारी नेता, नौकरशाह और न्यायाधीश एक ऐसी सरकारी व्यवस्था के हिस्से होते हैं जिनके ऊपर जिम्मेदारी है कि वे समाज को सरकार पर निर्भर बना दें। और ऐसी लोकलुभावन योजनाएं परिवार और समाज में सरकार के हस्तक्षेप को कायम करने का औजार बनती है।
नागरिक को आर्थिक स्तर पर विपन्न करके खैरात से संपन्न करना यह किसी स्वस्थ लोकतंत्र की व्यवस्था नहीं हो सकती। देश में गरीब बच्चों को खाना खिलाना कहने सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन यह सरकारी योजनाकारों की बहुत सोची समझी साजिश है जो सामान्य जन से जीने का हक छीनकर उनके हाथ में खैरात की रोटी का टुकड़ा पकड़ा रहे हैं। वह भी जहरबुझी। बेकार सी। ठेकेदारों और घुसखोरों का हिस्सा बांटने के बाद। एनजीओ बिरादरी को हिस्सेदार बनाते हुए। लूट का ऐसा व्यवस्थित तंत्र जिसमें आखिरकार बच्चों के हिस्से पुष्टाहार के नाम पर निकृष्टाहार ही आनेवाला है। आज भी, कल भी और कभी भी। अच्छा हो कि समाज खुद ऐसी व्यवस्था से अपने आपको अलग कर अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित कर ले।
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