Saturday, December 22, 2012

मोदी को मति दे भगवान!

गुजरात में तीसरी बार सरकार बनाने का जनादेश पाते ही मोदी महान के नारे उस दिल्ली तक दोबारा लौट आये हैं जिस दिल्ली को कोई दशक भर पहले मोदी छोड़कर वापस गुजरात चले गये थे। तब वे दिल्ली में बतौर महासचिव भाजपा के भीतर काम करते थे। हिमाचल प्रदेश के प्रभारी भी। आज भले ही अतीत खोजने पर गूगल देव मोदी के अतीत का अता पता न बताते हों लेकिन यह भी कैसा गजब संयोग है कि दशकभर पहले मोदी जिस हिमाचल प्रदेश के प्रभारी थे उस हिमाचल में भाजपा अपनी आबरू लुटा बैठी लेकिन एक दशक मोदी ने जो गुजरात गढ़ा उस गुजरात ने उन्हें एक बार दिल्ली चलो का जनादेश थमा दिया है। और कोई माने या न माने मोदी और मोदी के चरमपंथी समर्थक इस चुनाव परिणाम को देश के लिए जनादेश बताने पर आमादा हैं। हो सकता है कुछ लोगों की नजर में यह अतिवादिता हो लेकिन क्या खुद मोदी ही अतिवादिता के दूसरे नाम रूप नहीं हो गये हैं?

अभिनय अभिनय होता है। प्रबंधन प्रबंधन होता है और कला कला होती है। लेकिन जब इन तीनों को एक साथ मिला दिया जाता है तो वह राजनीति हो जाती है। अभिनय के अपने सिद्धांत और तर्क होते हैं। प्रबंधन के अपने सिद्धांत और व्यवस्थाएं होती हैं और कलाओं के अपने अनुशासन है। आज हम जिसे राजीनीति और राजनीतक नेतृत्व मान रहे हैं उनमें ये तीनों तत्व ही सफलता के सूत्र हैं। किसी सफल नेता में अभिनय कला कूट कूट कर भरी होनी चाहिए। उसका हंसना, रोना, आना जाना, उठना बैठना, चलना बोलना सब कुछ की पटकथा इतनी शसक्त होनी चाहिए कि देखनेवाला थोड़ी देर के लिए ही सही, यह भूल जाए कि वह अभिनय दर्शन कर रहा है। लेकिन केवल अभिनय हो तो भी बात नहीं बनती। अगर ऐसा होता तो अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना और संजय दत्त राजनीतिक दुनिया के भी बड़े स्टार होते। अभिनय के साथ कुटिल प्रबंध तंत्र की भी जरूरत पड़ती है जो इस अभिनय से पैदा हुई आसक्ति और उर्जा को समायोजित करके एक समर्थक वर्ग निर्मित कर सके। दर्शक को समर्थक बना सके। लेकिन इन दो कलाओं में पारंगत होने के बाद भी नेता तब तक पूर्ण आकार ग्रहण नहीं करता जब तक कि उसके अंदर कला के तत्व विकसित न हो जाएं। सोलह कलाओं में जितनी अधिक से अधिक कलाएं वह अपने अंदर विकसित कर लेता है उसकी सफलता का अवसर उतना ही ज्यादा बढ़ जाता है। अभिव्यक्ति और मौन, आक्रमण और आत्मरक्षा, आनंद और अवसाद, पद्म और छद्म जैसी कलाओं में जैसे जैसे व्यक्तिगत सिद्धि मिलती जाती है आज का नेता जननेता बनता चला जाता है।

पिछले एक दशक में आश्चर्यजनक रूप से मोदी ने इन तीनों ही विधाओं में सिद्धियां अर्जित की हैं। एक दशक पहले दिल्ली दरबार में भाजपा और आरएसएस के बड़े नेताओं के आगे 'दुम हिलानेवाले' नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी कोई अपनी योग्यतावश अर्जित नहीं की थी। करीब एक हफ्ते के अपने धरने के बाद वे झंडेवालान से अपने नाम पर सहमति ले आये थे। शंकर सिंह वाघेला के बाद सुरेश भाई मेहता की बगावत के कारण 1998 में आरएसएस और भाजपा को प्रदेश में नये नेता की जरूरत थी। उस वक्त शंकर सिंह वाघेला के बाद सुरेश मेहता ने केशुभाई की फजीहत कर रखी थी और हर हाल में उन्हें कुर्सी से हटाने की मुहिम चल रही थी। इस वक्त तक नरेन्द्र भाई मोदी केशुभाई के समर्थकों में गिने जाते थे और कहा जाता था कि वाघेला की बगावत के बाद अगर दूसरी बार केशुभाई गुजरात के मुख्यमंत्री बन सके तो यह नरेन्द्रभाई और उनकी टीम की मेहनत का परिणाम था। क्योंकि नरेन्द्र मोदी और उनकी टीम ने मेहनत की थी इसलिए नरेन्द्र मोदी अपने पसंद की मंत्री आनंदीबेन पटेल को कैबिनेट दर्जा दिलाना चाहते थे जो केशुभाई पटेल देने के लिए तैयार नहीं थे। आनंदीबेन पटेल का मुद्दा मोदी ने प्रदेश में कुछ इस तरह आगे बढ़ाया कि पूरी भगवा ब्रिगेड मोदी के पाले में आकर खड़ी हो गई। बाकी बचा हुआ काम नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली में पूरा कर लिया और 7 अक्टूबर 2001 को नरेन्द्र मोदी बतौर मुख्यमंत्री गुजरात पहुंच गये।

कुल जमा 49 साल की उम्र में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में वह हासिल कर लिया जो किसी चाय बेचनेवाले लड़के से शायद ही कोई उम्मीद करे। गुजरात के भरे पुरे गरीब पिछड़े परिवार में पैदा होनेवाले नरेन्द्र मोदी ने जब 2001 में मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की तब उन्हें जाननेवाले उनके बारे में बड़े उत्साह से बताते थे कि नरेन्द्र भाई जब आरएसएस के प्रचारक बने थे तभी उन्होंने कहा था कि वे बीस साल बाद इस प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे। उन बीस सालों में न जाने कितने लोगों को यह बात याद रही होगी लेकिन जिस दिन झंडेवालान से अपने नाम की सहमति लेकर नरेन्द्र मोदी गुजरात पहुंचे थे, उस दिन अचानक वह बात लोगों को याद आई होगी। लेकिन यह कोई मोदी की खामी नहीं है कि वे दूरगामी लक्ष्य निर्धारित करके आगे बढ़ते हैं। यह उनकी खूबी है। और पिछले तीस चालीस साल के सामाजिक राजनीतिक जीवन में उन्होंने अपनी इस खूबी का बखूबी इस्तेमाल किया है।

मोदी के राजनीतिक उभार में छद्म अभिनय, निर्मम प्रबंधन तंत्र और कुटिल कलाओं का उपयोग समाहित है। इन विधियों का इस्तेमाल करके जो नेतृत्व गढ़ा जाता है उसमें आभाषीय आकर्षण भले ही कितना हो लेकिन ठोस धरातल पर कुछ नहीं होता। ऐसे छद्म आभाषीय चरित्र अक्सर चरम पर पहुंचते ही चरमराकर टूट जाते हैं।

7 अक्टूबर 2001 से 27 फरवरी 2002 के बीच मोदी ने गुजरात के विकास की कौन सी व्यूह रचना की यह किसी को नहीं मालूम लेकिन 27 अक्टूबर 2007 को गोधरा में हुई भीषण घटना/दुर्घटना ने न सिर्फ गुजरात की दशा और दिशा बदल दी बल्कि उसके बाद जो कुछ हुआ उसने नरेन्द्र मोदी वह होकर उभरे जो अभी तक उनकी छवि में शामिल नहीं था। पिछले पांच छह सालों से राजनीतिक कटुता और अस्थिरता झेल रहे गुजरात ने नरेन्द्र भाई मोदी में भविष्य का अवतार पा लिया था। वैष्णव प्रभुत्ववाले गुजरात में हिन्दू और हिंसा दो विरोधाभासी बातें रही हैं लेकिन 2001 में गुजरात के हिन्दुओं को वह अवतार मिल गया जो वैष्णवों के सबसे बड़े आदर्श राम की तरह 'राक्षसों' का बड़ी बहादुरी से संहार कर सकता है। दिल्ली के टीवी टुडे समूह ने नरेन्द्र मोदी को हत्यारा घोषित करने का अघोषित ठेका ले लिया था और यह टीवी मीडिया का वह उत्कर्ष काल था जब उसे अपनी पैठ गहरी करनी थी। अगर आप याद करेंगे तो पायेंगे कि टीवी टुडे समूह के आज तक की कड़ी मेहनत के बाद आखिरकार मोदी को देश के मुस्लिम वर्ग की नजर में विलेन के तौर पर स्थापित किया जा सका था।

उसके बाद तो मानों मोदी को 'हत्यारा' कहने का मीडिया में फैशन ही चल पड़ा। लेकिन यह सब होते हुए भी मोदी ने कभी वह छवि बदलने की कोशिश नहीं की जिससे उनकी "बदनामी" हो रही थी। मानों यह सब मोदी की योजना का हिस्सा हो। जैसे जैसे मोदी को मीडिया हत्यारा और विलेन साबित करता जा रहा था वैसे वैसे गुजरात के हिन्दू समाज के मन में मोदी के प्रति प्यार और श्रद्धा गहराता जा रहा था। कल तक अनाम और अपरिचित से नरेन्द्र मोदी 2002 के बाद गुजरात की आखिरी उम्मीद बनते चले गये। लोग भूल ही गये कि इस प्रदेश में कोई केशुभाई पटेल भी मुख्यमंत्री रहा है या फिर कांग्रेस नाम की पार्टी भी निवास करती है। पग पग डग डग मोदी जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे गुजरात के दिल में घर करते जा रहे थे। अभिनय में सफल होने के लिए जो ब्रेक चाहिए था, 2002 के गुजरात नरसंहार ने मोदी को वह राजनीतिक ब्रेक दे दिया था।
पिछले एक दशक में मोदी ने गुजरात में ऐसी कोई भी दूब उगने नहीं दी है जो मोदी विरोध की बयार बहाती हो। गुजरात के नागरिकों की क्या बिसात खुद अपनी ही पार्टी के भीतर उन्होंने अपने किसी विरोधी व्यक्ति या विचार को पनपने नहीं दिया है। जिसका कद मोदी की गणना में रंच मात्र भी ऊपर उठता है मोदी उसे जोड़ घटाकर सम कर देते हैं। केशुभाई पटेल ही नहीं बल्कि भाजपा के ही हिरेन पांड्या, मोदी के प्रिय अमित भाई शाह, विश्व हिन्दू परिषद के प्रवीण भाई तोगड़िया और आरएसएस के न जाने कितने प्रचारक इस सूची में शामिल हैं।

2002 में मिले इस राजनीतिक ब्रेक को मोदी ने जाया जाने दिया हो ऐसा नहीं है। गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम से शोक की जो शीत लहर उठी थी उसे ने अपने लिए अवसर में तब्दील कर दिया। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी ने जब अहमदाबाद में मोदी की मौजूदगी में राजधर्म के पालनवाला पाठ पढ़ाया तो मोदी लजाए नहीं बल्कि मुस्कुराये थे। उन्होंने हल्के से कहा था- ''वही तो कर रहा हूं साहब।'' ऊंचा सुननेवाले वाजपेयी ने मोदी की यह बात सुन ली थी और इतने आहत हुए थे कि प्रेस कांफ्रेस बीच में छोड़कर उठ गये थे। न जाने अटल बिहारी वाजपेयी कौन सा राजधर्म मोदी को सिखाना चाहते थे और न जाने मोदी कौन सा राजधर्म पालन कर रहे थे लेकिन इसके बाद फिर वाजपेयी ने भी गुजरात में मुख्यमंत्री बदलने की अपनी मंशा को तिलांजली दे दी। राज्य में पहले ही केशुभाई किनारे हो गये थे और केन्द्र ने उनकी ओर से आंख मूंद ली। इसके बाद मोदी ने अपने राजनीतिक अभियान का तीसरा चरण शुरू किया जिसे कुशल प्रबंधन कहा जा सकता है।

मोदी ने सिर्फ विकास की वीरगाथा का ही कुशल प्रबंधन ही नहीं किया बल्कि उन्होंने अपनी छवि का भी कायाकल्प कर दिया। अब वे कमजोर और मार खानेवाले हिन्दू समाज के सख्त संरक्षक थे। 2002 के नरसंहार के बाद लंबी कानूनी लड़ाई भले ही यह साबित न कर पाई हो कि उन दंगों के पीछे मोदी का कहीं से कोई हाथ था लेकिन गुजरात के हर हिन्दू को न जाने कैसे यह बात पता है कि सब नरेन्द्र भाई के पराक्रम का परिणाम है। नरोडा पाटिया नरसंहार का दोषी वह जो बाबू बजरंगी है, वह भी कैमरे पर यही बोल रहा था कि नरेन्द्र भाई ने उसकी बड़ी मदद की। उसके इसी बोल ने उसे आजीवन कारावास दिला दिया, लेकिन कानून अभी नरेन्द्र मोदी को दोषी करार नहीं दे पाया है। वह समाज भी अब सिर्फ माफी मांग लेने की कीमत पर सब कुछ भूल जाना चाहता है लेकिन प्रदेशभर में सद्भावना का स्वांग करनेवाले नरेन्द्र मोदी के मुंह से माफी के दो बोल कभी नहीं फूटे। शायद यह भी मोदी की लंबी रणनीति का हिस्सा हो कि जब वह वक्त आयेगा तब देखा जाएगा। और वह वक्त कब आयेगा? शायद 2014 में। क्योंकि गुजरात में तीसरी बार जीत दर्ज करके उन्होंने दिल्ली चलो का नारा दे दिया है।

अगर आप इस एक दशक की संक्षिप्त मोदी यात्रा को समायोजित करना चाहें तो वहीं तीन तत्व साफ साफ दिखाई देते हैं जिसकी चर्चा के विस्तार में हमने मोदीत्व को समझने की कोशिश है। अपनी एक दशक की राजनीतिक यात्रा में मोदी के खाते में एक अदद नरसंहार, एक अदद अमेरिकी पीआर एजंसी और एक अकेले दूरगामी मोदी शामिल हैं। यह यात्रा अगर दिल्ली आकर ही दम तोड़नेवाली है तो इतनी प्रार्थना हमें जरूर करनी चाहिए कि मोदी अपनी सफलता का वह फार्मूला दोबारा न दोहराने पायें जो उन्होंने गुजरात में प्रयोग किया है। गांधी जी भी इसी गुजरात से चलकर देश और दिल्ली को मिले थे। वे गुजरात से आये आये थे तो वैष्णव अहिंसा लेकर आये थे। सबको सन्मति का मंन्त्र लेकर आये थे। सबको सन्मति मिले न मिले, कम से कम गांधी के गुजरात से आनेवाले मोदी को यह मति जरूर मिले हिंसा, छद्म और प्रबंधन राजनीति के अनिवार्य अंग नहीं होते। मोदी को भगवान यह मति जरूर दे ताकि गुजरात के बाद अब देश एक बार फिर अविश्वास और आतंक के उस अंधे कुएं में कभी न जाए जहां गिरने में तो क्षणभर लगता है लेकिन निकलने में सदियां गुजर जाती हैं।

Friday, February 3, 2012

टूजी घोटाले के टूटी हुई कड़ियां

टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर फैसला देते हुए अदालत ने बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी की. यह टिप्पणी सॉलिसिटर जनरल की इस दलील पर आया कि कार्यपालिका के नीति निर्धारण के क्षेत्र में न्यायपालिका का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए. इस पर अदालत ने टिप्पणी की कि "राष्ट्र की संपत्तियों की रखवाली का जिम्मा सबका है. इसलिए राष्ट्रीय संपत्तियों का इस्तेमाल राष्ट्र के लिए होना चाहिए, इसका फायदा कुछ निजी लोगों को नहीं पहुंचाया जाना चाहिए. "

टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले में सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है. टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में सारा झगड़ा इसी बात का है कि निजी घरानों को लाभ पहुंचाने के लिए स्पेक्ट्रम आवंटन नीति में मनमानी बदलाव किये गये और कौड़ियों के दाम में अनमोल स्पेक्ट्रम टेलिकॉम कंपनियों को बांट दिये गये. मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश देने शुरू किये. उन निर्देशों के आधार पर सीबीआई को केस रजिस्टर करना पड़ा और उसके बाद क्या कुछ हुआ उसको पूरा देश जानता है. अपने इस आदेश के साथ कि जो लाइसेन्स तत्कालीन संचार मंत्री ए राजा द्वारा आवंटित किये गये थे उन्हें कैंसिल किया जाए और उन कंपनियों पर फाइन लगाया है जिन्होंने गड़बड़झाला करके स्पेक्ट्रम हासिल किया था.

गड़बड़झाले में शामिल सबसे बड़ी कंपनी है एटिसलाट डीबी टेलिकॉम. यह वही कंपनी है जिसके मुखिया शाहिद बलवा तिहाड़ में लंबा वक्त बिताकर मुंबई लौट गये हैं. डीबी रियलिटी के नाम से रियल एस्टेट का कारोबार करनेवाली इस कंपनी ने दुनिया के दूसरे सबसे बड़े मोबाइल मार्केट में इस उम्मीद से कदम रखा था कि वे उसी तरह से भारतीय टेलिकॉम मार्केट में घुसपैठ कर लेंगे जिस तरह से रिलायंस ने किया था. एटिसलाट दुनिया के 19 देशों में मोबाइल सेवा देती है और दुनिया में उसके करीब 10 करोड़ ग्राहक है. जाहिर है कंपनी का भारत में प्रवेश व्यावसायिक उम्मीदों से भरा था. स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में पकड़ में आने से पहले कंपनी ने मुंबई और दिल्ली में चीयर्स मोबाइल के नाम से अपनी सेवाएं देना शुरू भी कर दिया था. उसे आगे चलकर 15 सर्किल में अपनी मोबाइल टेलिफोनी मार्केट का विस्तार करना था. लेकिन इसी बीच घोटाले का बवंडर उठ खड़ा हुआ और कंपनी की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं. अब सुप्रीम कोर्ट ने इस कंपनी पर पांच करोड़ का जुर्माना लगाया है और पूर्व में आवंटित लाइसेन्स कैंसिल कर दिया है.

इसी तरह एक और बड़ी कंपनी यूनीनॉर भी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की दूसरी बड़ी गुनहगार कंपनी है. यूनिनॉर नार्वे की टेलिनॉर और भारत की यूनिटेक कंपनी का संयुक्त उपक्रम है जो देश के कई हिस्सों में मोबाइल टेलीफोनी सेवा दे रही है. इस फैसले से दूसरा बड़ा झटका यूनिनॉर को लगेगा और उसकी सेवाएं बंद हो जाएंगी. एमटीएस नाम से मोबाइल सेवा देनेवाली सिस्टमा श्याम टेलिकॉम भी रूस की सिस्टमा कंपनी के साथ शुरू किया गया संयुक्त उपक्रम था जो इस फैसले से प्रभावित होगी. इस फैसले से प्रभावित होनेवाली एक और कंपनी है विडियोकॉन मोबाइल जो कि विडियोकॉन समूह की कंपनी है. पूर्व में बीपीएल मोबाइल के नाम से सेवा देनेवाली कंपनी जो बाद में लूप मोबाइल हो गयी और जिसका प्राइमरी मार्केट मुंबई है, वह भी इस फैसले से प्रभावित होगी. आदित्य बिड़ला समूह का आइडिया सेल्युलर भी इस फैसले से प्रभावित होगा और उसके कुछ लाइसेन्स निरस्त हो सकते हैं.

टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला कुछ भी हो लेकिन इसे सामने कोई और नहीं बल्कि बड़ी कंपनियां लेकर आई हैं. इस घोटाले की आड़ में बड़ी कंपनियों ने बड़ी चतुराई से छोटी कंपनियों का लाइसेन्स कैंसिल करवा दिया जिसके बाद अब इन बड़ी कंपनियों को सरकार की ओर से 500 मेगाहर्ज्ट का अतिरिक्त स्पेक्ट्रम मिल जाएगा, जिसकी बड़ी कंपनियों द्वारा जिसकी मांग बहुत दिनों से हो रही थी. जिन कंपनियों का लाइसेन्स रद्द किया गया है वे पुनर्विचार याचिका दाखिल करेंगी लेकिन आगे का फैसला उनको तारनेवाला तभी हो सकता है जब वे नये सिरे से मैदान में आने का वचन दें.


क्या यह महज इत्तेफाक है कि देश में टूजी घोटाले की पर्ते उसी वक्त उघड़नी शुरू हुई जब देश के मोबाइल मार्केट में छोटे खिलाड़ी उतरने लगे? या यह भी महज इत्तेफाक ही है कि सिंगल लाइसेन्स और सिंगल सर्किल की दलीलें भी उसी वक्त दी गई जब ये छोटे खिलाड़ी मैदान में उतर रहे थे? और आज एक बार फिर क्या यह महज संयोग ही है कि टूजी घोटाले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद शेयर बाजार में एयरटेल, वोदाफोन और आइडिया सेल्युलर के शेयर मजबूत हो गये और उन छोटी कंपनियों के शेयर लुढ़क गये जिन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ग्रहण लगने के आसार बढ़ गये हैं. एक घोटाले के नाम पर इतने सारे संयोग क्या यूं ही इकट्ठा हो गये या फिर इकट्ठा किये गये हैं? ये वो टूटी हुई कड़ियां है जिस पर सोच विचार होना चाहिए, लेकिन शायद कोई जनहित याचिका इस बारे में किसी कोर्ट में दाखिल नहीं होगी.

पूरे देश में 1,76,000 करोड़ का घोटाला कहकर प्रचारित किये गये टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से बड़ी टेलिकॉम कंपनियां कहीं से प्रभावित नहीं हो रही हैं. असर उन पर पड़ रहा है जो मोबाइल मार्केट में नये नये उतरे थे. शुरू से भारत में मोबाइल मार्केट में विविधता बनाये रखने की कोशिश की गई है ताकि यहां कुछ कंपनियों का प्रभुत्व न स्थापित हो जाए. लेकिन इस शुरूआती नीति में बाद में बदलाव के संकेत मिलने लगे. बड़े होते मोबाइल बाजार को संगठित करने के लिए सिंगल लाइसेन्सिंग और सर्किल का खात्मे पर भी बातें शुरू हो गई थी. क्या इसे महज संयोग ही माना जाना चाहिए कि टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले का केस उस वक्त उठा जब सरकारी स्तर पर सिंगल लाइसेन्स सिस्टम की बयानबाजी शुरू कर दी गई थी? इसे केवल संयोग मानना अतिश्योक्ति होगी.

1994 में जब देश में मोबाइल फोन सेवा की शुरूआत हुई थी तो चार महानगरों में आठ आपरेटरों को लाइसेन्स दिया गया था. आज जबकि देश में 22 मोबाइल सर्किल हैं तब भी हर सर्किल में विविधता बनाये रखने के लिए अलग अलग कंपनियों को लाइसेन्स इसलिए दिये जाते रहे कि बाजार में प्रतिस्पर्धा बनी रहे। लेकिन रिलायंस के इस बाजार में प्रवेश के साथ ही बहुत सारे नियम कायदे बदल दिये गये. रिलायंस को फायदा देने के बहाने सरकार ने नियमों के साथ जो बदलाव किया था उसकी भरपाई के रूप में एयरटेल और हच-एस्सार जैसी कंपनियों ने यूनिफाइड लाइसेन्स और हर सर्किल में जाने की सरकारी इजाजत ले ली. हांगकांग की हचिक्सन टेलिकॉम को ब्रिटिश टेलिकॉम कंपनी वोदाफोन ने खरीद लिया और अब तो एस्सार भी अपनी हिस्सेदारी वोदाफोन से बेच चुका है. एयरटेल, वोदाफोन, रिलायंस, टाटा और आइडिया सेल्युलर ऐसे पांच बड़े आपरेटर हैं जो पूरे देश में मोबाइल सेवा देते हैं. टाटा और रिलायंस को अलग कर दें क्योंकि ये सीडीएमए तकनीकि के आधार पर मोबाइल सेवा देते हैं तो एयरटेल, वोदाफोन और आइडिया संयुक्त रूप से भारत के 57 फीसदी मोबाइल मार्केट पर काबिज हैं. एयरटेल तो देश के मोबाइल मार्केट की बेताज बादशाह है और अकेले एयरटेल के पास मोबाइल मार्केट में 27 फीसदी की हिस्सेदारी है. ये वो कंपनियां हैं जिनको टूजी घोटाले में कोई आंच नहीं आई है. तो क्या पूरा का पूरा टूजी स्पेक्ट्रम घोटाला कुछ बड़ी कंपनियों की पहल पर उठाया गया?

जिन छोटी कंपनियों को शिकार बनाकर सरकार और अदालतें पचास लाख से लेकर पांच करोड का जुर्माना लगाकर न्याय करती दिखाई दे रही हैं क्या उनकी जानकारी में यह बिल्कुल नहीं आया है कि कुछ बड़ी मछलियां बाजार की छोटी मछलियों को खाने के लिए पूरी व्यवस्था का अपने मनमाफिक तरीके से इस्तेमाल कर रही हैं? आज जो दो बड़ी मोबाइल आपरेटर कंपनियां (एयरटेल और वोदाफोन) बाजार की बेताब बादशाह उनकी शुरूआत के वक्त सरकार ने उनको जितनी छूट दी थी, उसके एवज में टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन में सरकार ने कोई रियायत नहीं की है. लेकिन टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले के सामने आने से पहले जिस तरह से लॉबिस्ट और पीआर कंपनियां सूचनाओं का आदान प्रदान पत्रकारों के साथ कर रही थी उस वक्त ही यह साफ हो गया था कि कुछ बड़े मोबाइल आपरेटर छोटे खिलाड़ियों को मैदान से बाहर कर देना चाहते हैं. इसलिए ब्लाग वेबसाइटों के बाद पहली बार अगर किसी अखबार ने यह मामला उठाया तो वह द पायनियर था. द पायनियर अघोषित तौर पर लालकृष्ण आडवाणी का अखबार है क्योंकि एनडीए शासन के गाढ़े वक्त में इस अखबार के संपादक चंदन मित्र को आडवाणी जी ने मदद की थी. और यह भी महज संयोग नहीं हो सकता कि 2009 में लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान आडवाणी एयरटेल कंपनी के मालिक सुनील मित्तल का निजी विमान लेकर पूरा प्रचार अभियान चलाते हैं और चुनाव खत्म होने के बाद पायनियर टूजी घोटाले की परत उधेड़ने लगता है.

एक बार फिर से बड़ी पूंजी लगाकर मैदान में उतरना इन कंपनियों के वश में नहीं होगा और अंतत: इन्हें बाजार से जाना ही होगा. इन छोटी कंपनियों के बाजार से हटने के बाद बाजार में कुछ बड़ी मछलियां ही शेष रहेंगी और जैसे चाहेंगी वैसे बाजार को संचालित करेंगी. तो क्या, सुप्रीम कोर्ट की महान टिप्पणी को हम इसी अर्थ में ले कि राष्ट्र की संपत्तियों राष्ट्र के लोंगों के लिए हैं, निजी हाथों में देने के लिए नहीं? या फिर कहानी कुछ और है जिसे हम शायद कभी जान ही न पायें? पर अब सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना निर्णय सुना दिया है, इसलिए इस महाघोटाले की महासाजिशें और इसके पीछे के बड़े खिलाड़ी हमेशा हमेशा के लिए पर्दे के पीछ छिप जाएंगे. इस घोटाले की टूटी हुई कड़िया कभी मिल नहीं पायेंगी और हम शायद पर्दे पर मंचन किये गये इस महाघोटाले की नौटंकी की सच्चाई कभी जान नहीं पायेंगे.

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