Saturday, April 17, 2010

खेल के पीछे छिपा खेल

साल 2007 में खेल शुरू होता है जी समूह के सुभाष चन्द्रा द्वारा आईसीएल बनाने से. सुभाष चंद्रा अपना खेल चैनल लेकर आनेवाले थे. मामला अटक गया. बीसीसीआई के दांव से सुभाष चंद्रा पटखनी खा गये. उन्हें क्रिकेट मैचों के प्रसारण अधिकार खरीदने ही नहीं दिये गये. मामला कोर्ट कचहरी तक गया. लेकिन बात नहीं बनी. ऐसे ही वक्त में उन्होंने घरेलू क्रिकेट की टीमों के लिए इंडियन क्रिकेट लीग बना दी.

क्रिकेटरों के खरीद फरोख्त का पहला प्रयोग सुभाष चंद्रा ने ही किया था. फिर क्या था. मानों ललित मोदी को पंख लग गये. बीसीसीआई के बंद बक्से में पड़ा घरेलू क्रिकेट का जिन्न बाहर निकल आया और 2007 में ही आईपीएल का गठन हो गया. जो खेल सुभाष चंद्रा खेलना चाहते थे उसे खेलना शुरु किया ललित मोदी ने. सुभाष चंद्रा खुद टीमों को खरीद रहे थे. ललित मोदी ने खेल खिलाड़ी और असली खिलाड़ियों का ऐसा खाका खींचा कि सितंबर 2007 में क्रिकेट की पहली नीलामी के मौके पर बड़े बड़े व्यावसायिक घराने टीम खरीदने के लिए आ खड़े हुए. मुकेश अंबानी जैसे संजीदे व्यापारी पत्नी के क्रिकेट मोह में खिंचे चले आये तो रंगीले माल्या भी बोली लगाने पहुंचे. पहले ही दौर की नीलामी के बीसीसीआई ने 4500 करोड़ रुपये कमाए. बीसीसीआई के बाजीगर जो अभी तक घरेलू क्रिकेट के रणजी ट्राफी में अटके हुए थे उनके सामने खेल का ऐसा चटकदार रंग उभर आया था जो जो परंपरागत क्रिकेट को पानी पानी कर रहा था. पहले ही दौर में जिन छह टीमों को नीलाम किया गया था उसके लिए सबसे बड़ी बोली लगाई थी मुकेश अंबानी की पत्नी नीता अंबानी ने. उन्होंने मुंबई इंडियन्स के लिए 11 खिलाड़ियों को खरीदने के लिए 383 करोड़ रुपये अदा किये थे. तीन साल पहले जो सबसे बड़ी रकम थी तीन साल बाद उस रकम की कोई कीमत ही नहीं बची. इस साल आईपीएल की जिन दो टीमों को इस लीग में शामिल किया गया उनमें से एक टीम कोच्चि को 1702 करोड़ रुपये में खरीदा गया. सहाराश्री ने भी पुणे की टीम गठित करने के लिए 1533 करोड़ रुपये खर्च कर दिये.

खेल के पीछे छिपा खेल शबाब पर आ गया था. अपने पहले सीजन में कम वस्त्रधारी लड़कियों के कारण नैतिक आलोचना के शिकार बने आईपीएल के तीसरे सीजन आते आते खेल बड़े खिलाड़ियों के चंगुल में चला गया. आईपीएल में ऐसा क्या खास था जो रणजी ट्राफी में नहीं था? आप कहेंगे कि रणजी ट्राफी में ऐसा था ही क्या जो आईपीएल में नहीं है? क्रिकेट खिलाड़ियों के लिए भरपूर पैसा, क्रिकेट के प्रायोजकों को भरपूर दर्शक, टीम के खरीदारों को हार जीत की हर अवस्था में मुनाफे की गारंटी, बीसीसीआई की मोटी कमाई, प्रसारण का अधिकार पाये लोगों की भरपूर गोद भराई, आईपीएल सबको सबकुछ तो दे रहा है. फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि आईपीएल असली खिलाड़ियों के आंख की किरकिरी बन गया. कारण ढूढने के लिए दूर नहीं जाना है. कारण आईपीएल के गठन में ही छिपे हुए हैं.

असल खेल शुरू हो गया है. ललित मोदी ने जिस क्रिकेट को पैसे का कारोबार बनाकर परोसा था वही कारोबार अब उनके गले की हड्डी बन गया है. अति सब जगह वर्जित है और ललित मोदी शायद यह भूल गये कि चोरी से कोकीन रखने के आरोप में दो साल जेल काट लेना आसान है, एक अरब लोगों के साथ धोखाधड़ी करके साफ बच निकलना मुश्किल होता है. देश के समस्त खेलों को खत्म करके स्थापित हुए क्रिकेट को यह आईपीएल खा जाएगा. देखते जाइये, ललित मोदी ने क्रिकेट की जड़ में पूंजी का मट्ठा डाल दिया है. वह अपना काम जरूर करेगा.

आईपीएल के गठन की सबसे पहली और बड़ी भूल यह थी कि इस खेल में सबकुछ होते हुए भी कुछ नहीं है. मसलन, आईपीएल के तहत टीमों के गठन के लिए सात चार की व्यवस्था की गयी है. यानी, सात खिलाड़ी भारत के होंगे जबकि चार खिलाड़ी विदेशों से लाए जाएंगे. यानी एक ही देश का एक खिलाड़ी अगर बैटिंग कर रहा है तो दूसरा खिलाड़ी बालिंग करता है. एक प्रदेश का एक खिलाड़ी इस टीम से खेल रहा होता है तो दूसरा उस ओर से. भारतीय टीम के खिलाड़ी तो मानों पंचूरण की तरह पूरे आईपीएल में बंट गये हैं. अब तक क्रिकेट के दर्शक जिस टीम भावना के वशीभूत होकर क्रिकेट देखते थे वह टीम भावना विधिवत काट पीटकर फेंक दी गयी. लेकिन भारती दर्शक क्रिकेट के नाम पर अगर दीवार पर तीन लाइनें खीचकर स्पंट बना सकते हैं खेल के इस स्वरूप को भी स्वीकार कर लेने में कोई हर्जा नहीं है. पहले साल आईपीएल के शोर में इस खेल की सभी खामियां दब गयीं लेकिन इसके अगले ही साल विवादों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया. लेकिन आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की योजनाएं कहीं से कमजोर नहीं हो रही थीं. छह से आठ और भविष्य दस टीमों का भरा पुरा क्रिकेट परिवार बन चुका आईपीएल बतौर क्रिकेट इतना बड़ा कन्फ्यूजन है कि दर्शक अपने आप को शायद इसके साथ पूरी तरह से जोड़ नहीं पाता है. इस साल जितने भी मैच हुए हैं उसमें अधिकांश मैचों को न तो टीवी पर मनमाफिक टीआरपी मिली है और न ही स्टेडियम में दर्शक. आईपीएल के अंतरविरोध दिखने शुरू हो गये थे.

लेकिन केवल मैदान के अंतरिविरोध ही उभरकर सामने नहीं आ रहे थे. मैदान के बाहर असल खिलाड़ियों के मुनाफे की मानसिकता और अहम का टकराव इसके पतनशील होने का बड़ा कारण साबित हुआ. ललित मोदी ने सगर्व घोषणा की थी इस साल आईपीएल 22000 करोड़ रुपये का कारोबार हो चुका है. टीमों की कमाई के इतर बीसीसीआई को अकेले वर्तमान साल में ही कोई साढ़े चार से पांच हजार करोड़ कमाई की उम्मीद थी. यह कमाई सिर्फ खेलों से है. टीमों की खरीद बिक्री से नहीं. लेकिन इसी बीच अति मुनाफे की मानसिकता आड़े आ गयी. कोच्चि टीम में रुचि रखने के आरोपी शशि थरूर आईपीएल के लपेटे में आ गये. अपने उच्च संपर्कों और अति महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व के शिकार ललित मोदी ने शशि थरूर से अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए खबर लीक करवाई कि कोच्चि टीम में जो खरीदार हैं उसमें सुनंदा नामक मालकिन के पास 70 करोड़ के स्वीट शेयर हैं. यह खबर न बनती अगर सुनंदा का नाम शशि थरूर से न जोड़ा जाता. अब तो शशि थरूर पर बन आयी. वे यह इंकार कैसे कर देंगे कि वे सुनंदा को नहीं जानते और सुनंदा यह इंकार कैसे कर दें कि उन्होंने टीम में स्वीट शेयर हासिल नहीं किये हैं? फिर वे सारे प्रमोटर कौन हैं जो एक दूसरे को नहीं जानते लेकिन आईपीएल की सबसे महंगी टीम मिल जुलकर खरीद लेते हैं? उन सभी लोगों के बीच केन्द्र के रूप में कौन कार्य कर रहा है? ललित मोदी ने शशि थरूर को संकट में डाल दिया था.

लेकिन थरूर भी भला क्यों चुप रहते? कांग्रेस के निशाने पर ललित मोदी पहले से ही बने रहे हैं. इसका एक बड़ा कारण उनका भाजपा नेता वसुंधरा राजे से नजदीक रिश्ता भी है. कांग्रेस के राजीव भाई इस वक्त बीसीसीआई में कांग्रेसी प्रतिनिधि और प्रवक्ता हैं. वे शायद ही कभी चाहें कि भाजपा के करीबी ललित मोदी बीसीसीआई में प्रभावी हों. लेकिन दूसरी ओर शरद पवार हैं जो देश के गरीबों से अधिक चिंता बीसीसीआई के अमीरों की करते हैं. वैसे भी अब वे क्रिकेट की अंतरराष्ट्रीय संस्था के अध्यक्ष हो चुके हैं इसलिए अपने देश की संस्था के स्वाभाविक संरक्षक तो वे हो ही जाते हैं. मामला दोनों ही ओर से उलझता चला गया. बात छापेमारी और जांच पड़ताल तक चली गयी है. इधर भाजपाई शशि थरूर को निशाना बना रहे हैं कि वे इस्तीफा दें तो उधर कांग्रेसी ललित मोदी को निशाना बनाकर उन्हें साफ कर देना चाहते हैं. अफवाहें हैं कि ललित मोदी पर बीसीसीआई का मजबूत शिकंजा कस दिया जाए. ललित मोदी भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं. अगले दो साल तक उन्हें उनके पद से हटाने का मतलब है आईपीएल को ही भंग कर देना. इसलिए कमजोर करने की रणनीति पर ही काम हो रहा है. छापेमारी इसी रणनीति का अहम हिस्सा है. वैसे भी आईपीएल में जितना अनाप शनाप पैसा लगने की खबरें उड़ रही हैं उससे एक बात तो साफ है कि ललित मोदी का दामन बेदाग तो बिल्कुल नहीं होगा. और हमारे देश का आयकर विभाग जब अपने पर उतर आता है तो क्या करता है यह आप हर्षद मेहता को याद करके अंदाज लगा सकते हैं. इसलिए ललित मोदी तो कायदे से नपेंगे इसमें कोई शक नहीं है. लेकिन शांत तो शायद वे भी नहीं बैठेंगे.

Wednesday, April 14, 2010

गांधी कथा के महात्मा गांधी

नारायण भाई देसाई के बारे में अनुपम मिश्र द्वारा दिया जाने वाला परिचय सबसे सटीक है. अनुपम मिश्र कहते हैं - "नारायण भाई ऐसे शख्स हैं जिन्हें पहले गांधी जी ने जाना. उन्होंने तो गांधी जी को बाद में जाना." अनुपम मिश्र बिल्कुल सही कह रहे हैं. गांधी के छायारूप सचिव महादेवभाई देसाई के बेटे नारायण भाई देसाई गांधी की गोद में पलकर बड़े हुए हैं.

 उन्होंने गांधी को एक बड़े पिता के रूप में पाया और कस्तूरबा को मोटी मां (बड़ी मां) के रूप में. इसलिए नारायणभाई देसाई जब महात्मा गांधी के बारे में बोलते हैं तो सुनते हुए मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रहा जा सकता.  गांधी की गोद में पलकर बड़े होनेवाले नारायण भाई देसाई ने दस साल तक सक्रिय रूप में गांधी जी के साथ काम किया है. इसलिए उन्होंने गांधी को दो स्तरों पर जाना समझा है. एक अभिभावक के रूप में भी और एक महानायक के रूप में भी. खुद गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप उन्होंने कोई स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की है लेकिन 85 साल के जीवन में उन्होंने गांधी के कुछ अधूरे कामों को बहुत मनोयोग से पूरा किया है जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है गांधी जी की गुजराती में जीवनी जो कि चार खण्डों में नवजीवन प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. नारायण भाई कहते हैं- "गांधी जी की आत्मकथा तो है लेकिन उनकी जीवनी नहीं है. इसलिए अपने पिता की जीवनी लिखने के बाद मैंने तय किया कि गांधी जी की जीवनी भी लिखूंगा."

गांधी जी के बारे में गुजराती में लिखी जीवनी मारू जीवन एज मारो संदेश के लिखने के दौरान ही उन्हें लगा कि इस तरह से मोटे मोटे ग्रंथ लिख देने से गांधी को आम जनता के बीच नहीं ले जा सकता. इसी बीच गुजरात के दंगे हुए जिसने उन्हें और प्रेरित किया कि गांधी के माध्यम से वे लोगों के बीच शांति के दूत बनकर जाएं. नारायणभाई कहते भी हैं कि "गुजरात के दंगों के लिए जितना नरेन्द्र मोदी दोषी हैं उतना ही दोषी एक गुजराती होने के नाते मैं भी अपने आप को मानता हूं कि यह सब गुजरात में हुआ. इसलिए गांधी कथा एक तरह से गुजरात दंगों का प्रायश्चित है." इन दो प्रकार की परिस्थितियों ने 80 साल की उम्र में 2004 में उन्हें गांधी कथा कहने के लिए प्रेरित किया

लेकिन नारायणभाई के सामने संकट यह था कि वे कथा परंपरा को सिरे से ही नहीं जानते समझते थे. नारायणभाई मानते हैं कि उन्हें कथाकारों की शैली का बिल्कुल ही भान नहीं था. फिर भी एक साल तक छोटे छोटे कथा प्रसंगों के माध्यम से अभ्यास किया और साल 2005 में पहली बार गांधी कथा कही वह भी गुजरात के एक आश्रम में. वहां से गांधी कथा कहने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह आज तक बदस्तूर जारी है. पांच साल की छोटी अवधि में ही वे अब तक 81 गांधी कथा कह चुके हैं. नारायणभाई की गांधी कथा सुनने से पहले सबसे पहले मन में यही सवाल आता है कि क्या गांधी कथा परंपरा के विषय हो चुके हैं जो गांधी कथा सुनने के लिए जाना चाहिए? यही सवाल हमने नारायणभाई से किया. नारायण भाई का जवाब था-"गांधी उस रूप में कथा परंपरा के हिस्से नहीं हैं जो चमत्कार और अवतारवाद से पैदा होती है. गांधी पुरुषार्थ पुरूष के रूप में कथा परंपरा में आते हैं इसलिए गांधी कथा गांधी को पुरुषार्थ पुरूष के रूप में प्रस्तुत करती है."

गांधी कथा के पहले दिन उन्होंने गांधी को एक पुरुषार्थ पुरुष के रूप में ही परिभाषित किया. गांधी कोई चमत्कार नहीं थे बल्कि परिष्कार थे. पूरे जीवन उन्होंने अपने द्वारा की गयी गलतियों को सुधारा और अपने व्यक्तित्व का उन्नयन किया.

ऐसा समझा जाता है कि गांधी ने पहली बार जीवन में प्रयोग अफ्रीका में अपनी बैरिस्टरी के दौरान किया. लेकिन ऐसा नहीं है. नारायणभाई बताते हैं कि गांधी जी जब बैरिस्टर होने के लिए लंदन गये तो उनकी उम्र 19 साल थी. गांधी जी किसी भी तरह से पोरबंदर छोड़ना चाहते थे इसलिए लंदन जाने का प्रस्ताव आया तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया. लेकिन वहां जाने से पहले उनकी मां ने उनसे तीन वचन लिये थे. ये तीन वचन थे कि शराब नहीं पीयेंगे, मांस नहीं खायेंगे और परस्त्रीगमन नहीं करेंगे. गांधी जी ने अपनी मां को ये तीन वचन दिये थे और लंदन में रहते हुए इन तीनों वचन का दृढ़ता से पालन किया. नारायणभाई बताते हैं कि ऐसे कई मौके आये जब उनके ही साथ रहनेवाले लोगों ने उन्हें वचन तोड़ने के लिए बाध्य किया लेकिन गांधी जी अपने वचन पर विनयपूर्वक अडिग बने रहे. नारायणभाई बताते हैं कि गांधी जी ने वचन पालन का पहला दृढ़ प्रयोग लंदन में किया तब जबकि उनकी उम्र महज 19 साल थी. इसलिए यह कहना कि महात्मा बनने की प्रक्रिया दक्षिण अफ्रीका से शुरू होती है, सही नहीं है. नारायणभाई एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि कैसे महात्मा गांधी ने मंहगा शूट खरीदा, डांस और संगीत सीखने की कोशिश की, वायलिन खरीदा ताकि वे लंदन के समाज के साथ अपना तालमेल बिठा सके. लेकिन तीन महीने के भीतर ही उन्हें आभास हो गया कि वे यहां पढ़ने के लिए आये हैं न कि शानो शौकत और दिखावे की जिंदगी जीने के लिए. इसलिए जैसे ही उन्हें यह आभास हुआ उन्होंने अपने आप को इन सब आडंबरों से अलग कर लिया. नारायणभाई बताते हैं कि यह गांधी जी के आत्मचिंतन द्वारा आत्म परिष्कार का पहला प्रयोग था जो आगे पूरे जीवन उनमें दिखाई देता है.

नारायणभाई बताते हैं कि महात्मा गांधी सांख्य से अनंत की ओर की यात्रा हैं. वे एक ऐसे क्रांतिकारी संत थे जिन्होंने चित्तशुद्धि से समाज शुद्धि और समाज शुद्धि से चित्त शुद्धि का प्रयोग किया. एक ही वक्त में वे क्रांतिकारी के रूप में विध्वंस भी कर रहे थे तो निर्माण की तैयारियां भी कर रहे थे. नारायणभाई कहते हैं कि क्रांतिकारी पुरूष और संत के स्वभाव मुख्यरूप से अलग अलग दो तत्व दिखाई देते हैं. संत निजि उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहता है जबकि क्रांतिकारी वह होता है जो समाज की पीड़ा को अनुभव करता है और उनके उत्थान के लिए प्रयास करता है. गांधी के चरित्र में ये दोनों खूबियां एक साथ दिखाई देती हैं.

नारायणभाई इसीलिए गांधी को क्रांतिकारी संत की संज्ञा देते हैं और बताते हैं कि गांधी जी ने अपनी गलतियों को छिपाया नहीं बल्कि उन्हें सार्वजनिक किया ताकि उनका परिष्कार हो सके. निश्चित रूप से नारायणभाई देसाई की गांधी कथा के द्वारा एक नये सरल, सुगम और आसानी से ग्राह्य हो सकने वाले गांधी का प्राकट्य हो रहा है जो सेमिनारी गांधी और सरकारी गांधी समझ से बिल्कुल ही अलग और अनोखा है.

Popular Posts of the week