ऊपर उठ गये तो महिला और पुरुष बराबरी पर आ हो
जाते हों, शायद ऐसा नहीं होता। अगर ऐसा होता तो देश की सबसे बड़ी
व्यावयासिक घरानापतियों की संस्था फिक्की में फिक्की फ्लो पैदा नहीं
होता। फ्लो का मतलब एफएलओ। एफएलओ यानी फिक्की फार लेडीज आर्गेनाइजेशन। इस
फिक्की फ्लो की लेडीज के बीच बोलने के लिए इसकी अध्यक्षा नैनालाल किदवई
खड़ी हुईं औपचारिकतावश लेडीज एण्ड जेन्टलमैन न कह सकीं। उन्होंने हंसते
हुए लेडीज एण्ड लेडीज ही कहा। लेडीज एण्ड लेडीज के बीच यहां किसी लजीज
व्यंजन पर बात नहीं हो रही थी कि देश इनके बारे में जानने सुनने की कोशिश
करता। आज इन लेडीज के बीच मोदीज की भी मौजूदगी थी। मोदीज महोदय लेडीज के
बीच गुजरात गौरव गान करने आये थे और यह बताने भी कि आधी दुनिया का
सशक्तीकरण कैसे हो सकता है।
नैनालाल किदवई कोई छोटी मोटी हस्ती नहीं है। भले ही उन्हें महिला अधिकारों के लिए बने फिक्की के महिला विभाग का अध्यक्ष होना पड़ रहा हो नहीं तो वे भारत में एचएसबीसी बैंक की अध्यक्ष हैं। एचएसबीसी कोई छोटा मोटा बैंक नहीं है। हांगकांग एण्ड संघाई बैंक कारपोरेशन दुनिया का सबसे बड़ा बैंक है। इस लिहाज से नैनालाल किदवई देश में दुनिया के सबसे बड़े बैंक की सर्वेसर्वा हैं। ऐसे लोग क्या बोलेंगे इसे तोलने की जरूरत नहीं होती। जो जितने ऊंचे ओहदे पर होता है उसकी जिम्मेदारियां उतनी ही बड़ी होती हैं। उसे देश चलाना होता है। व्यापार करना होता है। समाज संचालित करना होता है। पॉवर और एम्पावर का खेल करना होता है इसलिए उसके बोलने के लहजे में स्वाभाविक तौर पर वह नहीं होता जो साधारण आदमी की सोच में होता है। ऐसे लोगों की सोच असाधारण हो जाती है। इनकी चिंताएं भी चिता समान हो जाती है जिसमें वे दिन रात जलते हैं। सर्वव्यापी सोच रखने के कारण जग हसें हम रोय वाली हालत हो जाती है। सबकी चिंता इनको खाये जाती है।
मसलन, और बातों के अलावा नैनालाल ने यह भी कहा कि "वी कैन्नाट इग्नोर एग्रीकल्चर।" इनकी चिंता भरी वाणी सुनकर कोई भी सहृदय नागरिक द्रवित हुए बिना नहीं रह पायेगा क्या कि देखो कैसी लेडीज है जो न गांव जानती है, न खेत जानती है, न खलिहान जानती है लेकिन इसको कितनी चिंता है। ऊंचे लोगों की ऐसी चिंताएं बड़ी चिंतित करनेवाली होती है। इसलिए तो मन में दूसरा ही सवाल उठ रहा है। नैनालाल्स होती कौन हैं 'इग्नोर' करने या न करने वाली? उनको किसने यह कहा कि वे हमारे एग्रीकल्चर की चिंता करें? ऐसी चिंताओं की आड़ में वे किसकी चिंता करती हैं, हमें खूब पता है। लेकिन हाय रे हमारी सोच, हम जिस सोच से यह सवाल कर रहे हैं इस सोच की दशा भी बड़ी सोचनीय हो चली है। अब कम लोग हैं जो इस सोच से साबका रखते हैं। जो रखते हैं उनकी सोच सुनने वाला कोई नहीं है। सो, नैनालाल्स जैसे चाहें वैसे सोच सकती हैं, लोकतंत्र उन्हीं की बपौती जो हैं।
फिर चिंतित होने की बपौती अकेले नैनालाल्स की ही हो इतना भर भी नहीं है। मनमोहन्स और मोदीज भी उसी धरा धरातल के आदमी हैं। बिल्कुल सफाचट। साफ। कहीं किसी दाग का नामोनिशान नहीं। न व्यवहार में, न चरित्र में, न सोच में। सब सफाचट। ये उतना ही सोचते हैं जितना सोचने से उनका फायदा होता है। अगर आप मनमोहन्स और मोदीज की आर्थिक धारा और विचारधारा को जांचना परखना शुरू करें तो पायेंगे कि दोनों की सोच असाधारण रूप से एक जैसी है। दोनों ही औद्योगिक सभ्यता, छद्म पूंजीवाद और सत्ता के निरंकुश तंत्र में विश्वास रखते हैं। दोनों का कम से कम आर्थिक चाल, चरित्र, चेहरा और चिंतन हमेशा एक नजर आयेगा। पूरी तरह से पूंजीपतियों को समर्पित। औद्योगिक सबलीकरण से नागरिक निर्बलीकरण की जिस नीति पर मनमोहनॉमिक्स काम करती है, ठीक उसी नीति पर मोदीज का गुजरात भी चमकता दमकता है। ऐसी सोच में नैनालाल्स वाली चिंता उसका मूल तत्व होती है। यानी, वे किसी को इग्नोर नहीं कर सकते। एग्रीकल्चर को भी नहीं। बाजार किसी को तब तक इग्नोर करता है जब तक उसका शोषण पूरा नहीं हो जाता। जैसे ही गन्ने की तरह उसकी चुसाई पिराई पूरी हो जाती है, बाजार नयी संभावनाओं की ओर आगे बढ़ जाता है। जैसे, कल तक पश्चिम में लकदक अमीरी का प्रतीक लम्बोर्गिनी और पोर्स आज भारत में छुछुआते हुए घूम रहे हैं कि कहीं कोई ग्राहक मिल जाए और अपनी चार कारें बेंच लें। कल तक इनकी गाड़ियों के लिए भारत कोई बाजार ही नहीं था, आज उनके लिए भारत और चीन से ज्यादा संभावनाओं वाला कोई बाजार नहीं है, लिहाजा टाटाज भी लैण्डरोवर और जगुआर इसलिए खरीद लेते हैं कि भारत और चीन के बाजार से इस कंपनी को घाटे से उबारा जा सकता है।
साफ है, जहां बाजार है, उसे 'इग्नोर' करके बाजरवादी पूंजीवाद अपनी पूंछ नहीं कटा सकता। बाजारवादी पूंजीवाद की नाक नहीं होती, सिर्फ पूंछ होती है। नाक तो नागरिक और नागरिक समाज की होती है। उन्हें इसकी चिंता हो तो हो, बाजार को नाक की चिंता कभी नहीं होती। सिर्फ पूंछ की चिंता होती है। लेकिन दुनिया में अभी भी इतना लोकतंत्र बचा हुआ है कि अक्सर इस पूंजीवाद की पूंछ कहीं न कहीं फंस ही जाती है। उस अमेरिका में तो इसकी पूंछ काटने के कानून ही बना दिये गये हैं ताकि यह कहीं भी अपनी पूंछ न घुसा सके। लेकिन अभी अपने यहां विकास हो रहा है। इसलिए नाक पूंछ का कोई अता पता नहीं है। नेहरूज ने भी कभी बिना पूंछ वाले विकास की कोशिश की थी। उनके विकास में नाक थी, इसलिए सडांध सामने आ गई। लेकिन गांधीज और मनमोहन्स के मॉडल में जब नाक ही नहीं है तो सड़ांध सूंघने की गुंजाइश ही नहीं है। मोदीज भी विकास के उसी मॉडल को आदर्श मानते हैं। इसलिए उद्योगपतियों के आकार प्रकार को हर प्रकार से दुरुस्त रखना हैं। मोदीज के स्टेट में उद्योगपतियों को जितनी सुविधा दी जाती है उतनी सुविधा बिहार में अब आंदोलनों को भी मिलनी बंद हो गई है। नीतीश कुमार्स भी अब उसी मॉडल में आंदोलन घुसाने की बात कर रहे हैं जिसे दिल्ली से लेकर डलास तक मान्यता मिल रही है।
जाहिर है, अर्थ के शब्द पर मोदीज कुछ ऐसा नहीं सोच रहे हैं जिसे समझने में नैनालाल्स या फिक्कीज को कोई डिक्शनरी उठानी पड़े। वे बहुत सपाट तरीके से समझ सकते हैं कि लेडीज के बीच बतौर लीडर मोदीज जो बोल रहे हैं वह क्या है। वही तो उद्योगपतियों का स्वर्ग है, जिसे मोदीज निर्मित कर रहे हैं। यह तो राहुल गांधी जैसे कुछ नासमझ नेता हैं जो सीआईआई पहुंचकर उद्योगपतियों को नसीहत देने लगते हैं। उन्हें समझाने लगते हैं कि देश की जनता का बड़ा हिस्सा विकास की संभावनाओं से अछूता छूट रहा है। उद्योगपतियों को इस बारे में सोचना चाहिए। बोलने की शैली और हावभाव ऐसा कि वह उद्योगपतियों की चमचागीरी करने की बजाय उन्हें डांट रहा है। हो सकता है ऐसे भाषण सुननेवालों को अच्छा लग भी जाए लेकिन उद्योगपतियों के मन का रियेक्शन होना तय है। अब गांधीज के बोल में बाजार का बैंड बजता है जबकि मोदीज के बोल से बाजार का सांड़ नांक भौं सिकोड़कर फुंफकारते हुए छलांग मारता है। सर्र सर्र सेसेक्स ऊपर की ओर उठता है तो पूंजीपतियों की झोली भरता है। ऐसे में आप ही बताइये इन राहुल गांधीज में संभावना नजर आती है कि उन मोदीज में जो बाजार के सामने पूरे नागरिक समाज को सजा संवारकर पेश करने का आश्वासन देते हों?
लिहाजा, ली मैरीडियन में प्रवचन के बाद फ्लो की लेडीज और मोदीज दोनों अहो धन्यभाव से ग्रस्त हैं तो उसके मूल में एक ही बात है कि फिक्कीज को नेता मिल गया है। सीआईआईज को नेता मिल गया है। पीएचडी चैम्बर्स आफ कामर्स को नेता मिल गया है। अंबानीज से लेकर नैनालाल्स तक को नेता मिल गया है। वह नेता जो बाजार में निखार लाने का वादा करता है। इस देश की लोकतांत्रिक सच्चाई यही है कि नेता जनता तय नहीं करती। वह वही लोग तय करते हैं जिनके बीच अब मोदीज की ही चर्चाएं हैं। जनता तो लंबे समय तक विज्ञापन देखकर सिर्फ ठप्पा लगा आती है, फिर घर बैठकर गालीज देती है। देती रहे। किसे फर्क पड़ता है?
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