Saturday, March 20, 2021

फटी जीन्स वाले फटीचरों पर इतनी चर्चा क्यों?

आखिरकार उत्तराखंड के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री तीर्थसिंह रावत ने माफी मांग लिया है। कुछ दिन पहले उन्होंने बयान दिया था कि न जाने वो कौन लोग हैं जो ऐसी फटी जीन्स पहनते हैं। उनके इस बयान के बाद देशभर के स्वनामधन्य 'फटी जीन्सवाले फटीचरों' में कोहराम मच गया। उन्होंने सोशल मीडिया से लेकर मीडिया तक इतना हंगामा किया कि तीरथ सिंह रावत को माफी मांगनी पड़ी। लेकिन सवाल ये है कि फटी जीन्स पर अपनी राय देकर तीरथ सिंह रावत ने कोई अपराध कर दिया था जो उन्हें माफी मांगनी पड़ी? 

रग्ड जीन्स बीते कुछ सालों से भारत में फैशन बन गया है। रग्ड जीन्स मतलब वह पैण्ट जो कई जगह से रगड़ रगड़ कर फटी हो। एक सीमित वर्ग के लड़कों और लड़कियों दोनों में इसका चलन है। ये रग्ड जीन्स या फिर फटी जीन्स के पीछे का मनोविज्ञान क्या है जिसकी चर्चा भर करने से तीरथ सिंह रावत फटी जीन्स समर्थक फटीचरों के निशाने पर आ गये? 

रग्ड जीन्स या फटी जीन्स के पीछे का मनोविज्ञान समझने के लिए पहले जीन्स की उत्पत्ति और इसका इतिहास समझना पड़ेगा। आज जो जीन्स यूथ आइकॉन बना हुआ है उसकी शुरुआत किसी शापिंग माल से नहीं हुई और न ही इसे शहर के लोगों ने पहनना शुरु किया। इसकी शुरुआत हुई यूरोप से। जीन्स एक मोटा कपड़ा होता है जिसे खेती में काम करनेवाले और कारखानों में काम करनेवाले लोग पहना करते थे। अठारहवीं सदी में पहली बार एक व्यापारी लेवी स्ट्रास ने अपने साथी कारोबारी जैकब डेविस के साथ मिलकर पेटेन्ट करवा लिया। इन्हीं लेवी स्ट्रास के नाम पर लेवीस या लिवाइस जीन्स आज भी मार्केट में लीडर की भूमिका में है। 

लेकिन यहां एक बात महत्वपूर्ण ये हैं कि लेवी स्ट्रास ने जिस कपड़े का आविष्कार करके उसका पेटेण्ट लिया था उसका सूत यूरोप में नहीं बल्कि भारत में बनता था। उसे डूंगरी डेनिम कहा जाता था। ये डूंगरी डेनिम मुंबई के पास डूंगरी गांव में निर्मित होता था। सत्रहवीं सदी से ये कपड़ा ब्रिटेन को निर्यात होता था और मिलों में कामगारों का ड्रेस इसी कपड़े से बनता था। जिन्होंने चार्ली चैप्लिन सीरीज देखी होगी उन्हें याद होगा कि कई एपिसोड में चार्ली चैपलिन डूंगरी ही पहनते थे। आज भी कामगारों के उस खास डिजाइन को डूंगरी ही कहा जाता है लेकिन अब उसे लड़कियों का परिधान कहा जाता है। 

कुल मिलाकर डेनिम की कहानी ये है कि ये मोटे सूत वाला कपड़ा था जिसे मजदूरों और कामगारों के लिए इस्तेमाल किया जाता था। क्योंकि इसका पेटेण्ट एक व्यापारी के पास था इसलिए उसने एक ट्रेन्ड के रूप में दुनिया में इसका व्यापार शुरु किया। धीरे धीरे यूरोप से निकलकर जीन्स अमेरिका और एशिया में एक फैशन स्टेटमेन्ट के रूप में प्रवेश कर गया। रग्ड जीन्स उसी डेनिम जीन्स का विस्तार है। खेती और मेहनत मजूरी करते हुए जब मजदूर की जीन्स फट जाती है तब भी वह अपनी गरीबी के कारण उसे बदल नहीं पाता। जैसे भारत में किसान, मजदूर या गरीब आदमी का कपड़ा फट जाए तो वह अपने चीथड़ों को ही अपने शरीर पर ढोता रहता है। सवाल ये है कि चीथड़े फैशन हो सकते हैं? किसी एक की मजबूरी क्या दूसरे के लिए मनोरंजन बन जाती है? 

बाजारवाद की आंधी में शायद ऐसा ही होता है जहां हंसने गाने से लेकर रोने तक का बाजार तैयार किया जाता है। कपड़ों के मामले में रग्ड जीन्स के साथ भी कुछ ऐसा ही हो गया है। किसी गरीब की मजबूरी को अमीरों का फैशन बना दिया गया। रग्ड जीन्स अंग प्रदर्शन का जरिया बन गया है। वरना फटी जीन्स पहननेवाले कितने लोग हैं जो खेत और खलिहान में जाकर काम करते हैं? कितने लोग हैं जो मिलों फैक्ट्रियों में जाकर अपना खून पसीना बहाते हैं और इतना कम पैसा पाते हैं कि अपनी जीन्स फट जाने के बाद नयी जीन्स नहीं खरीद पाते हैं? उलटे अगर कोई ऐसा दिख जाए तो यही कॉरपोरेट कल्चर वाले लोग उसे फटीचर कहकर खारिज कर देंगे। अगर गरीब फटे कपड़े पहनकर फटीचर हो जाता है तो फिर अमीर फटी जीन्स पहनकर फटीचर क्यों नहीं कहलाएगा? 

कोई दो साल पहले ये मामला एक बार सोशल मीडिया पर उठा था जब मंहगे कपड़ों के ब्राण्ड जारा कलेक्शन ने फटे कपड़ों का एक रेन्ज जारी करते हुए उसे मुंबई के मॉल्स में लांच किया था। तब अभिनेता ऋषि कपूर ने मजाकिया अंदाज में लिखा था कि भीख का एक कटोरा और साथ में दे दिया जाए तो कलेक्शन पूरी हो जाए। उस समय कोई कपड़ावादी ऋषि कपूर के खिलाफ नहीं बोला तो अब तीरथ सिंह रावत ने ऐसा क्या कह दिया जो बाजार के बनाये मापदंडों पर जीनेवाले लोग ऐतराज जता रहे हैं? जो महिलाएं आज अपने कपड़े की आजादी का स्यापा कर रही हैं क्या वो इतना भी नहीं जानती हैं जीन्स पैण्ट पुरुषों का पहनावा है? इसका डिजाइन महिलाओं को ध्यान में रखकर बनाया ही नहीं गया है। अगर उन्हें इतनी बेसिक बात भी नहीं पता है तो निश्चित रूप से ये लोग पूरी तरह से बाजार के नियंत्रण में है जिनके खाने पहनने और जिन्दगी जीने के सारे सिद्धांत बाजार तय करता है। और जिनकी अपनी कोई सोच समझ ही न हो, ऐसे फटीचरों पर चर्चा करना भी क्या मीडिया को शोभा देता है?

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