Friday, August 30, 2013

बाजारवाद के दौर में परिवारवाद

हमारी सभ्यता के जीवाश्म हैं ये लोग जो जहां तहां बिखरे पड़े हैं। कहीं किसी गांव में। शहर के किसी कोने में न जाने कौन सी लड़ाई लड़ते हुए और वह भी न जाने किससे। ठीक ठीक उन्हें भी पता नहीं है कि वे किससे लड़ रहे हैं। लेकिन लड़ रहे हैं। किसके लिए लड़ रहे हैं, इसका भी कोई बहुत सटीक जवाब उनके पास नहीं है, फिर भी लड़ रहे हैं। लड़ते लड़ते वे लड़ाई ही बन गये हैं। इसलिए अक्सर ऐसे लोग सामने आ जाते हैं तो समझना मुश्किल होता है कि आखिरकार वे समझाना क्या चाहते हैं?

और ऐसे लोग दर्जनों की संख्या में एकसाथ एक ही जगह पर मिल जाएं तो भला? बनिया समाज के दान से बने अग्रसेन भवन के उस हाल में ऐसे ही दर्जनों जीवाश्व इकट्ठा थे। आज के इस आधुनिक दौर में इन्हें इंसान कहना थोड़ा मुश्किल इसलिए होगा कि फिर इंसानों को यह समझाना मुश्किल हो जाएगा कि आखिर इंसान क्या होकर रह गया है? इसलिए ऐसे लोगों को हम जीवाश्व ही मानें जो मानव इतिहास में न जाने कैसे दबे कुचले वैसे ही रह गये हैं जैसी सृष्टि के आरंभ में रहे होंगे।


पहली नजर में उनकी बातें निरा नैतिक लेकिन नैतिकता भी निरुद्देश्य। भारतीय समाज में ऐसे जीवाश्मों की संख्या उतनी ही तेजी से घट रही है जितनी तेजी से ग्लेसियर लगातार पीछे खिसक रहे हैं। बाजार की गर्मी दोहरी मार कर रही है। आधुनिक समाज ने सभ्यता का जो मायाजाल गढ़ा है उस गढ़े हुए मायाजाल के ये अनगढ़ जीव अदम्य उत्साह से भरे तो दिखाई देते हैं लेकिन अक्सर उनकी बातें वर्तमान के साथ तालमेल खाती दिखाई नहीं देती। अब देखिए न। आज भी वे लोग किसी परिवार जैसी संस्था के बारे में बात कर रहे थे। करीब सौ सवा सौ लोग और सबकी चिंता यही कि परिवार खत्म हो रहे हैं।  नाना विध नाना प्रकार से एक ही विचार। परिवार टूट रहे हैं और इन्हें बचाना बेहद जरूरी है। हालांकि वे सब एक टीवी कार्यक्रम के लिए अपने विचार रिकार्ड करवा रहे थे लेकिन मंच पर तीन विचारकों और नीचे बिखरे दर्जनों विचारकों की चिंता करीब करीब सामूहिक ही थी। 

तो इस सृष्टिगत चिंता के मूल की मूल चिंता क्या है भला? सृष्टि आई तो समाज कैसा था? अरे समाज तो था ही नहीं। तो परिवार रहा होगा। नहीं भाई परिवार भी बाद में बना। तो व्यक्तिगत ईकाई रही होगी। हां, आदम हौव्वा के किस्से तो सुनते ही रहते हैं। तो दो से शुरू हुई दुनिया अगर हम दो हमारे दो पर आकर सिमट गई है तो इसमें बुराई क्या है? सवाल तो सटीक है लेकिन उनके लिए नहीं जो यहां दिखाई दे रहे हैं। वे तो व्यक्ति, परिवार, समूह, समाज जैसी कोई बात कर रहे हैं।

आदम हौव्वा ने क्या खाया और क्या पचाया यह तो मनु सतरूपा जानें, लेकिन मानवीय विकासक्रम में कुछ तो गड़बड़ हो गई। हम दो ने जब हमारे दो पैदा किये तो परिवार बन गया। उन हमारे दो ने आगे और इसी तरह दो दूनी चार किया तो कोई समूह बन गया होगा। फिर समाज भी ऐसे ही किसी तरह औने पौने दाम में निर्मित कर दिया गया होगा। एकांगिकता अधूरी सी चीज लगी होगी उन्हें। इसलिए सोचा होगा सामूहिकता का समुदाय ज्यादा सही सोच साबित होगी। कुछ इतिहासकार तो यह भी कहते हैं सामूहिकता युद्ध के लिए जरूरी थी। सामूहिकता कोई स्वाभाविक विकास व्यवस्था नहीं थी। यह तो युद्ध की मजबूरी थी। समुदायों के बीच संघर्ष ने सामूहिकता की भावना को बल दिया।

अरे, फिर तो यह तो गड़बड़ हो गई। सामूहिकता के समुदाय युद्ध समुदाय में कैसे तब्दील हो गये? बात इतनी गलत इसलिए भी नहीं लगती कि जीते जागते ये जीवाश्म जिस सुप्त विचार को जागृत कर रहे हैं वह यही कि समुदाय बने ही शांति के साथ सहजीवन के लिए थे। आज का ही उदाहरण देख लीजिए। परिवार की ईकाई कमजोर हो गई तो समुदाय और समाज क्रमश: कमजोर हो गये। बदले में जो मजबूत हुआ वह तो वही युद्धोन्मादी राष्ट्र राज्य है जो सीमारेखा का संरक्षक है। ऐसे कैसे हो गया? दो में से तो एक ही बात सही हो सकती है? हम जैसे इंसानों के लिए सचमुच इसकी तह तक पहुंच पाना बहुत मुश्किल है।

लेकिन जो यहां मौजूद थे, उसमें ऊपर मंच पर एकदम दाहिने जो बैठे थे वे कोई राज सिंह आर्य थे। उनके बारे में बताते हैं कि वे वे आर्य समाज की वंश परंपरा के जीवाश्म हैं जो उत्कृष्ट विचारों के साथ अति आधुनिक काल में न सिर्फ धोती कुर्ता पहनते हैं बल्कि कंधे पर एक दुपट्टा या पट्टा भी रखते हैं जिसके भारत में नाना नाम हैं। यह भेष यह भूषा तो आधुनिकता से कहीं मेल ही नहीं खाती। फिर अगर वे संस्कार जैसी बातें करते हैं तो भला हमारे समय के साथ इन बातों का कहां मेल मिलाप हो सकेगा? सोलह संस्कार में बंधा हुआ जीवन तो दकियानूसी सोच है। आधुनिक सोच असंस्कार की बात करती है। जो कुछ मानव सभ्यता ने विकसित किया है, पहला काम है उसे तोड़ दो। फिर सोचेंगे कि इंसान क्या है और उसे क्या करना चाहिए।

बीच में जो बैठे थे वे रामकथा वाचक हैं, विजय कौशल। वे बोल कम रहे थे, सुन ज्यादा रहे थे। लेकिन जो बोल रहे थे, उसमें कर्तव्य और दायित्व बोध जैसी बातें थीं। सामूहिकता की पुकार और एकांगिकता का पूरी तरह से तिरस्कार था। हम जो आजाद पंछी होकर हवा में उड़ जाना चाहते हैं, हमारे लिए इन बातों का कोई मोल हो भी तो हमें पता नहीं। लेकिन उनके बगल में बायीं तरफ वाले बुजुर्ग बजरंग मुनि बता रहे थे सरकार और सरकार के पैरोकारों ने जानबूझकर परिवार के पैर में कुल्हाड़ी मारी है। ताकि वे बांटकर राज कर सकें। बिल्कुल ब्रिटिश हुक्मरानों की तरह। गांधी के कपूत मैकाले के पूत बन गये।

फिर भी, इस जीवाश्मकालीन विमर्श में एक बात जरूर ऐसी थी जो लौटते हुए भी सोचने को विवश कर रही थी कि धुर बाजारवादी अमेरिका में परिवारवाद क्योंकर बकबकाया जाने लगा है? कहीं ऐसा तो नहीं जिन जीवाश्मों को हम जानना सुनना भी नहीं चाहते उनकी आत्मा अमेरिका के अंदर प्रवेश कर गई है? पता नहीं, यह तो शोध का विषय है लेकिन हमारी आधुनिकता पूरी तरह से अमेरिका से उधार ली हुई है, इसे समझने के लिए तो किसी शोध की भी जरूरत नहीं है।

Saturday, August 10, 2013

हाफिज शहीद

बीते आठ महीने में भारत पाक सीमा पर यह दूसरी बार है जब भारतीय सैनिकों की धोखे से निर्मम हत्या की गई है। इसी साल जनवरी महीने में दो भारतीय सैनिकों के सिर काट लिये गये थे और अब पांच भारतीय सैनिकों को रूटीन गश्त के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। इन दोनों घटनाओं के बाद एक बात समान रूप से सामने आई कि सीमा पर भारतीय सैनिकों के साथ इस तरह का कत्लेआम होने से एक या दो दिन पहले सीमा पर रात गुजारकर लौटा है।

हाफिज सईद सीमा पर आता है और उसके एक या दो दिन बाद पाकिस्तान की ओर से कोई दुस्साहसिक कारनामा अंजाम दे दिया जाता है। तब भी और अब भी। सीधे तौर पर तब भी और अब भी पाकिस्तानी सेना ही सामने दिखाई देती है। दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ता है और फिर कुछ दिनों में सबकुछ सामान्य हो जाता है, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। लेकिन इस दौरान हाफिज सईद न कुछ बोलता है और न कुछ कहता है। ऐसा संभवत: इसलिए कि वह अपनी अगली योजना पर काम करने के लिए आगे निकल पड़ता है।

प्रो. हाफिज मोहम्मद सईद। पाकिस्तान की समाजसेवी संस्था जमात-उद-दावा का अमीर। पंजाब से लेकर सिंध और अब बलूचिस्तान तक एक समान प्रभावी मुस्लिम आक्रांता। उम्र के 63 बसंत पार कर चुका एक ऐसी शख्सियत जो मोहाजिर मुसलमान की संतान होने के बाद भी मोहाजिर नहीं है। एक ऐसा इंसान जो सिर्फ मुसलमान के जीता है और मुसलमानों के नाम पर पूरी इंसानियत को खत्म करने में उसे कहीं से कोई संकोच नहीं होता है। एक ऐसा शख्स जो पिछले 33 सालों से जेहाद के नाम पर कत्लेआम करवा रहा है। एक ऐसा शख्स जिसके जीवन का सिर्फ एक ही मकसद है और वह मकसद है उसके पुरखों की जमीन हिन्दुस्तान का खंड खंड बंटवारा। वह हिन्दोस्तान के इतने टुकड़े कर देना चाहता है कि गिनने वाले थक जाएं। और, पिछले 33 सालों से वह यही काम कर रहा है।

बांग्लादेश में मिली पराजय के बाद पाकिस्तान में हिन्दोस्तान के प्रति नफरत का जो आलम चढ़ा उसी उफान से हाफिज सईद की पैदाइश होती है। उसने यह तो नहीं देखा था कि शिमला से पाकिस्तान जाते हुए रास्ते में उसके कुल कुनबे के 36 लोगों को किसने और कैसे कत्ल कर दिया था लेकिन उसने वह जरूर देखा था जो बांग्लादेश में हुआ था। पाकिस्तान के बंटवारे के बाद उसने 1980 में जिस लश्कर-ए-तोएबा (पवित्र लड़ाकों की सेना) की स्थापना की उसका एक ही मकसद था- हिन्दोस्तान के खिलाफ जेहाद। और उसने यह जेहाद बखूबी जारी रखा, 2008 तक। 2008 में मुंबई हमले से पहले वह कश्मीर से लेकर दिल्ली तक सब जगह अपने आतंकी लड़ाके पहुंचा चुका था। आतंक के अपने तीन दशक के इतिहास में उसने इस्लाम के नाम पर इतना लंबा चौड़ा खाका खींच दिया है जिसमें कश्मीर में आजादी की लड़ाई लड़नेवाले हिजबुल मुजाहीदीन हों कि जैश-ए-मोहम्मद, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाली आतंकी जमात अल-कायदा हो कि सब आतंकी समूहों की पाकिस्तानी आका आईएसआई सब के केन्द्र में यही एक शख्सियत खड़ा नजर आता है।

पाकिस्तान में वह सिर्फ अब जमात-उद-दावा का अमीर भर नहीं है। लश्कर के इस चीफ ने पूरे पाकिस्तान में जमात की लंबी चौड़ी फौज तैयार कर दी है। निहायत व्यवस्थित और संगठित। आज पूरा पाकिस्तान हाफिज सईद के अमीरों से भरा पड़ा है। जिले और तहसील स्तर तक के अमीर। और उन सब अमीरों में सबसे बड़ा अमीर खुद हाफिद सईद है। उसके चाहनेवालों के लिए खुदा की खुदाई। अमीर की बात को पाकिस्तान में कोई टाल नहीं सकता। सेना तो लंबे समय से उसकी शागिर्द है। अब वह घोषित तौर पर राजनीतिक सुधार के लिए काम करता है लिहाजा चुनावों में उसकी जमात के लोग तय करते हैं कि किसे जन प्रतिनिधित्व देना है और किसे बाहर कर देना है। ऐसे में नवाज शरीफ जैसे नेता भी अमीर के शागिर्दों में शामिल नजर आयें तो कोई आश्चर्य नहीं। वह अमीरों का अमीर है। वह सीधे सद्र तो नहीं है लेकिन आज की तवारीख में अगर पाकिस्तान इस्लामिक राष्ट्र है तो उस इस्लामिक राष्ट्र का अघोषित सद्र (राष्ट्रपति) कोई और नहीं बल्कि हाफिज सईद ही है।

लेकिन खुद हाफिज सईद को भी पाकिस्तान में बड़ी खामी नजर आ रही है। इस्लाम के नाम पर मुसलमानों के लिए बना यह देश उसकी अपनी नजर में उतना इस्लामिक नहीं नजर आता जितना होना चाहिए। अभी भी पाकिस्तान में जम्हूरियत का शासन चलता है जो इस्लामिक नियमों के खिलाफ है। इसलिए बीते एक दशक में वह सिर्फ भारत के खिलाफ जेहाद तक ही सीमित नहीं है। वह पाकिस्तान के खिलाफ भी एक जेहाद चला रहा है। पाकिस्तान के खिलाफ चलनेवाला जेहाद वहां की आवाम के लिए है। बीते एक दशक में उसने पाकिस्तान में जितने भी अभियान संचालित किये हैं उन सबके मूल में एक ही बात होती है कि पाकिस्तान में जम्हूरियत (जनतंत्र) जैसी बातें गैर इस्लामिक हैं। इसलिए इस्लामिक नियम कायदों के अनुसार ही शासन व्यवस्था भी बननी चाहिए। हो सकता है, पाकिस्तान के हुक्मरानों को यह लगता हो कि वे जिस पाकिस्तान पर राज करते हैं वह शुद्ध इस्लामिक राष्ट्र है लेकिन अमीर को ऐसा नहीं लगता। इस लिहाज से बीते एक दशक में उसने पाकिस्तान के भी 'शुद्धीकरण' की मुहिम चला रखी है। 'अमीर' सीधे तौर पर सत्ता को अपने हाथ में लेने की तकरीर तो नहीं करता है लेकिन जम्हूरियत और मीडिया को उसकी तरफ से लगातार धमकियां मिलती रहती हैं। यह धमकियां सीधे तौर पर एक ही बात से जुड़ी होती हैं कि अमीर की बात को आखिरी समझो, नहीं तो नतीजे अच्छे नहीं आयेंगे।

अभी अभी तीन चार महीने पहले तक अमीर के लिए अमेरिका दुश्मन नंबर एक था, लेकिन पाकिस्तान में आम चुनाव हो जाने के बाद अचानक ही अमीर का दुश्मन नंबर एक फिर से हिन्दोस्तान बन गया है। पाकिस्तान में आम चुनाव से पहले वह आईएसआई के पूर्व प्रमुख हामिद गुल के साथ मिलकर दिफा-ए-पाकिस्तान का अभियान चला रहा था जो अमेरिकी कुत्तों को वहां से बाहर फेंकने जैसी तकरीरों से भरी होती थीं। लेकिन आम चुनाव हो जाने के बाद बीते कुछ महीनों से अमीर ने एक बार फिर कश्मीर को अपने एजेण्डे पर वापस ले लिया है। ऐसा संभवत: उसने अफजल गुरू को दी गई फांसी का फायदा उठाने के लिए किया है। फरवरी में अफजल गुरू को फांसी दिये जाने के बाद अप्रैल से अब तक उसने जितनी मुस्लिम युनिटी कांफ्रेस की है उसमें सिर्फ और सिर्फ कश्मीर का ही मुद्दा उठाया है। एक बार फिर पाकिस्तानी लोगों के सामने बोलते समय वह कश्मीर की आजादी को ही आखिरी अंजाम बताने लगा है। अफजल गुरू की फांसी के बाद उसने जो संपादकीय लिखा था, उसमें लिखा था कि यह निर्दोष मुसलमानों को कत्ल करने का हिन्दोस्तानी तरीका है। तब से वह अपने मुस्लिम युनिटी कांफ्रेस में बोलते समय पाकिस्तानी नागरिकों को समझाता है कि कैसे हिन्दोस्तान में निर्दोष मुसलमानों को कत्ल कर दिया जाता है। अमीर यह जानता है कि अफजल गुरू की फांसी का फायदा कश्मीर में कैसे और किस तरह से उठाया जा सकता है। इसलिए अगर बीते कुछ महीनों में कश्मीर फिर से आतंकवाद की चौखट पर खड़ा नजर आ रहा है तो समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है कि इन सबके कौन सा अमीर खड़ा है।

भारत के खिलाफ यह अमीर अकेला जितना सक्रिय रहता है उतना तो शायद पूरा पाकिस्तानी हुक्मरान मिलकर भी सक्रिय नहीं रह पाता है। आईएसआई हो कि पाकिस्तानी सेना, भारत के खिलाफ की गई हर कार्रवाई असली कर्ता धर्ता यही अमीर ही होता है। नहीं तो क्या कारण है कि मुंबई हमलावरों को सैन्य कमाण्डरों जैसे ट्रेनिंग की बात सामने आती है और सीमा पर तैनात पाकिस्तानी सेना भी पाकिस्तानी हुक्मरानों को सुनने की बजाय आकाओं के आका की बात सुनती है? इसका सीधा सा मतलब है कि अमीर पाकिस्तान में सबसे अधिक ताकतवर है। इसलिए हिन्दोस्तान जैसे दुश्मन अगर शासन प्रशासन के साथ मेल जोल बढ़ाना भी चाहें तो अमीर के रहते कभी संभव नहीं हो पायेगी। तो क्या भारत सरकार भी किसी ऐसी योजना पर काम करेगी जिससे पाकिस्तान को इस 'अमीर' से छुटकारा दिलाया जा सके? कुछ कुछ वैसे ही जैसे अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन से पाकिस्तान को मुक्त कर दिया था। पाकिस्तान के हुक्मरानों और मीडिया की भाषा बता रही है कि वे भी इस 'अमीर' को नापसंद करते हैं लेकिन वे उसे बचाने के अलावा और कुछ कर नहीं सकते। 'अमीर' उनके जम्हूरियत की मजबूरी बन चुका है। लेकिन किसी 'अमीर' को लेकर हम इतने मजबूर क्योंकर हो कि वह हमें घायल करता रहे और हम रोज रोज अपना लहू बहाकर घाव चाटते रहें? वह भी तब जब एक घाव भरते ही 'अमीर' दूसरा घाव कर देता है। अगर हमारी एकता, अखंडता और भारत पाक रिश्तों के लिए किसी 'अमीर' की शहादत जरूरी जान पड़े तो उसे शहीद का दर्जा देने में संकोच कैसा?

Thursday, August 8, 2013

गालिब की गली में तालिब

राष्ट्र राज्य की सीमा के भीतर रहकर राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत रहना ही चाहिए। अमेरिका भी रहता है और पाकिस्तान भी। फिर भला भारत के लोग अपने सैनिकों को शहीद किये जाने पर राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत होकर हुंकार उठते हैं तो क्या बुरा करते हैं? उनके हुंकारने फुंफकारने की बारी एक बार फिर आ गई है। पाकिस्तान की ओर से पांच भारतीय सैनिकों को शहीद कर दिया गया है। मामला सोमवार रात का है इसलिए मंगलवार को दिल्ली दहल गई। संसद हिल गई। नेता गणों ने सख्त संदेश प्रसारित कर दिया जो मीडिया से होते हुए उस पाकिस्तान तक भी पहुंचा है जिसने ऐसी नापाक हरकत की है। लेकिन सबसे अधिक चौंकानेवाला खुलासा यह है कि पाकिस्तान की ओर से यह काम एक बार फिर वहां के तालिबान ने किया है, सेना का भेष बदलकर।

इस मंगलवार से भी कुछ पहले बीते शनिवार (27 जुलाई) को भी भारत पाक सीमा पर एक बड़ी घटना हुई थी। भारत के लिहाज से तो शायद नहीं लेकिन एक राष्ट्र राज्य के रूप में पाकिस्तान के लिहाज से वहां की मीडिया के लिए उतना ही बड़ा मुद्दा जितना हमारे पांच सैनिकों को शहीद करने का मुद्दा अब यहां है। 27 जुलाई को भारत पाक सीमा पर रावलकोट के नेजापीर सेक्टर में भारतीय सैनिकों की ओर से की गई गोलीबारी में पाकिस्तान का एक सैनिक शहीद हो गया और एक घायल हो गया। पाकिस्तानी सैनिक की इस शहादत पर पाकिस्तान की ओर से गंभीर कूटनीतिक प्रतिरोध दर्ज कराया गया जबकि भारतीय सेना की ओर से कहा गया कि पाकिस्तानी सैनिकों ने अचानक छोटी मिसाइल और मशीनगन दागनी शुरू कर दी जिसके जवाब में भारतीय सैनिकों ने गोलीबारी की थी। पाकिस्तान में उस दिन यह बड़ी खबर थी, भारत में इस घटना का जिक्र भी नहीं हुआ।

क्यों होता? दुश्मन देश के सैनिक की मौत पर हम भला क्योंकर मातम मनाने लगे? हमें तो पता भी नहीं चला कि सीमा पर ऐसा भी कुछ हुआ है। 27 जुलाई की घटना को राष्ट्रवादी सोच के लिहाज से ''भारतीय सैनिकों के विजय का प्रतीक'' कहा जा सकता था, फिर भी भारत में दुश्मन देश के सैनिक हत्याकांड पर कोई खुशी नहीं मनाई गई। 27 जुलाई की उस गोलीबारी के बाद हमारे लिए बड़ी खबर तब सामने आई जब पांच भारतीय सैनिकों को सैनिक भेषधारी आतंकियों ने सीमा पर हमारे सैनिकों को शहीद कर दिया। इसका कोई प्रमाण तो नहीं हो सकता कि इस काम को उसी 27 जुलाई की घटना के विरोध में अंजाम दिया गया है जिसमें एक पाकिस्तानी सैनिक मारा गया था और एक घायल हो गया था, लेकिन जिस तरह से दोनों घटनाएं पुंछ में ही सामने आई हैं उससे इस संभावना को बल मिलता है कि पाकिस्तान ने सैन्य प्रतिक्रिया में भारतीय सैनिकों को शहीद कर किया है। भारत के छह सैनिकों की यह टोली सीमा पर सामान्य पेट्रोलिंग कर रही थी, जिस वक्त इस भारतीय सैन्य टोली को निशाना बनाया गया। पांच सैनिक शहीद हो गये जबकि एक सैनिक अपनी जान बचाने में कामयाब हो गया।

इस सैन्य शहादत से भी अधिक चौंकानेवाली वह जानकारी है जो संसद में रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने सामने रखी है। संसद में दिये गये अपने बयान में एके एंटनी ने कहा है कि जिन 20 लोगों ने भारतीय सैनिकों को शहीद किया है वे सैन्य वेषधारी आतंकवादी थे। एंटनी हमारे देश के रक्षा मंत्री हैं और यह बात वे कहीं और नहीं बल्कि संसद में बोल रहे हैं तो जाहिर है उनके पास इस बात की पुख्ता सूचना होगी कि भारतीय सैनिकों को शहीद करनेवाले इस काम को अंजाम देनेवाले आखिर कौन हैं। और यह कोई नई बात भी नहीं है। पाकिस्तान में कौन तालिब है और कौन सेना का सिपाही इसका फर्क करना बहुत मुश्किल है। कारगिल युद्ध के समय अगर पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी बनकर अंदर घुस आये थे तो अब वहां के आतंकवादी सेना का भेष बदलकर भारतीय सैनिकों पर हमला कर दें तो पाकिस्तान के बारे में यह कोई परेशान करनेवाली जानकारी नहीं है।

दिल्ली में बैठकर कश्मीर को दिल दे बैठे लोग एक बार फिर वही गंभीर चूक कर रहे हैं जिसका फायदा अब तक पाकिस्तान उठाता रहा है और हम खामियाजा भुगतते रहे हैं। तार्कित कूटनीति का रास्ता छोड़कर हम एक बार फिर कश्मीर में अंधी राष्ट्रभक्ति की तोप चलाने चल पड़े हैं। जिससे तात्कालिक तौर पर राजनीतिक दल चाहें तो फायदा उठा लें लेकिन दीर्घकालिक तौर पर नुकसान ही होगा। रणनीतिक तौर पर देखें तो पाकिस्तान भारत से अधिक चालाक है। वह भारत से अपनी छद्म लड़ाई कश्मीर में लड़ता है और हम इतने 'समझदार' हैं कि हम भी पाकिस्तान से अपनी लड़ाई कश्मीर में ही लड़ते रहते हैं।

पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान इतना धूर्त और कुटिल है कि वह आतंकियों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए जैसे चाहे वैसे कर सकता है। और वह करता भी रहा है। पाकिस्तान में हाफिद सईद आतंकियों का सरगना है कि सेना का सर्वोच्च कमांडर इसे समझ पाना खुद पाकिस्तानी सरकार के लिए भी पूरी तरह असंभव है। जब पाकिस्तानी के नव निर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ लश्कर-ए-झांगवी से राजनीतिक तालमेल करते हों और उनके भाई शाहबाज पंजाब के कोषागार से करोड़ों रूपया जमात-उद-दावा के कार्यालय के नवीनीकरण पर खर्च करवा देते हों तो समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि पाकिस्तान में सेना, सरकार और आतंकवादियों का आपसी रिश्ता क्या है और कैसा है? लेकिन एक बड़ा सवाल यहां और उठता है कि आखिर क्या कारण है कि हाल के दिनों में भारत पाकिस्तान सीमा पर भारत पाक रिश्ता फिर से उसी दौर में पहुंचता जा रहा है जहां से निकलने के लिए दोनों ही देशों ने लंबी कूटनीतिक जद्दोजेहद की है?

इस एक सवाल का तात्कालिक जवाब बहुत नाकारात्मक है। संभवत: इस एक सवाल का जवाब उस एक काम से जुड़ा हुआ है जिसे दिल्ली के तिहाड़ जेल में अंजाम दिया गया। हो सकता है अंधी राष्ट्रभक्ति में हम तार्किकता से घटनाओं को देखना बंद कर दें लेकिन हमारे न देखने से घटनाएं घटनी बंद नहीं हो जाती हैं। कश्मीर की श्रीनगर घाटी जितनी कल भारत की विरोधी थी उतनी ही आज भी है। लेकिन बीते कुछ सालों में भारत विरोध की यह आवाज मध्दम जरूर पड़ती जा रही थी। खुद हमारे प्रधानमंत्री अपने फेसबुक वाल पर अपनी उपलब्धियों में इस बात का जिक्र करते रहे हैं कि कैसे कश्मीर में आतंकवाद कमजोर पड़ा है। इसका कारण कोई कूटनीतिक कौशल न भी रहा हो तो भी, कश्मीरी आवाम की अलागववादी आवाज थकान के कारण ही सही, ढलान पर थी। लेकिन दिल्ली के तिहाड़ जेल में हुई एक फांसी ने अचानक से कश्मीर के हालात को बहुत नाटकीय तरीके से बदल दिया। फांसी के विरोध में जो आवाज मुखर होने निकली थीं, उन आवाजों को भी गले से बाहर नहीं आने दिया गया। हम दूर दराज बैठे राष्ट्रभक्त हो सकता है इसे भी एक सही और सख्त प्रशासकीय कदम मानकर अपने अखंडता पर मौज मना लें लेकिन जिन कश्मीरियों के ऊपर यह सब दमन चक्र चला उन्होंने उसी वक्त दबी जुबान में कहा था कि यह फांसी और इस फांसी के विरोध की आवाज को दबाना, दोनों ही भारत को बहुत भारी पड़ेगा।

और यह कोई मनगढ़ंत बात नहीं है कि सर्दियों में दी गई उस फांसी के बाद से ही घाटी में भारतीय सैनिकों, अर्धसैनिक बलों पर हमले बहुत तेज हुए हैं। राष्ट्रीय अखबारों में कश्मीर में घुसपैठ की सुर्खियां दोबारा से लौट आई हैं। पिछले तीन चार महीनों में ही घाटी में अब तक करीब आधा दर्जन बड़ी आतंकी घटनाएं घट चुकी हैं। अर्धसैनिक बलों और स्थानीय लोगों के बीच फिर से नफरत का वही रिश्ता सामने आ गया है जिसे मिटाने के लिए कम से कम श्रीनगर घाटी से सैन्य बंकर मिटा दिये गये थे। पहले से कश्मीर में कमजोर पड़ते जा रहे पाकिस्तान के लिए यह एक ऐसा सुनहरा आतंकी मौका था जिसे पाकिस्तानी सैन्य हुक्मरान कभी छोड़ना नहीं चाहेगा। नहीं तो कोई कारण नहीं था कि लंबे अर्से बाद आतंकियों से मुटभेड़ की खबरें आतीं। पिछले तीन महीने में आतंकियों से तीन बड़ी मुटभेड़ हो चुकी हैं जो सुरक्षाबलों पर घात लगाकर हमला कर रहे थे। ये आतंकी कहां से पैदा हो रहे हैं, अब हमें शायद यह अंदाज लगाने की भी जरूरत नहीं रही और घाटी में फिर से इन आतंकियों को पनाह क्यों मिलने लगी, इसे समझना भी अब उतना मुश्किल नहीं रहा। कश्मीर घाटी के लोग भारत विरोधी नारे लगाते रहें, पाकिस्तान के लिए इससे सुनहरा मौका और क्या हो सकता है? और तिहाड़ की उस फांसी के बाद से पूरी घाटी ने एक बार फिर वही नारा बुलंद कर दिया जिसे सुनकर हम खुद कश्मीरियों को कमीना कहने लगते हैं। लेकिन दिल्ली की उस फांसी से घाटी में जो बात बिगड़ी तो अब तक बिगड़ती ही जा रही है।

इस बात की उम्मीद अब कम है कि भारत पाक सीमा पर आनेवाले कुछ सालों तक कोई शांति आनेवाली है। और सिर्फ सीमा पर ही नहीं बल्कि समूची घाटी के भीतर अलगाववाद और अंशाति का एक नया दौर शुरू हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। इस अशांति पर काबू पाने के लिए भारत सरकार श्रीनगर को एक बार फिर सैन्य बंकरों में तब्दील कर दे, तो इसे राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा माना जाएगा लेकिन भारत सरकार में बैठे रणनीतिकारों को आज नहीं तो कल यह जरूर सोचना होगा कि गड़े मुर्दे उखाड़े तो नहीं जाते लेकिन अगर मुर्दे गफलत की मौत मरें हों तो उनकी रूहें कभी हमारा पीछा भी नहीं छोड़ती हैं। कल को कोई गालिब भी कहीं तालिब बना नजर आये तो क्या उसके लिए भी हम पाकिस्तान को ही दोषी मानकर उस गालिब के सीने पर बंदूक तान देंगे? बिना यह सोचे कि कभी कोई बाप अपने बेटे को आतंकवादी बनाने के लिए गालिब नाम नहीं दिया करता है।

Monday, August 5, 2013

विनाशकाले विपरीत बुद्धि

राजनीति में अड़ जाना भी सही होने का सबूत समझा जाता है। राजनीति का पूरा मुलायम कुनबा दुर्गा शक्ति के नाम पर इस वक्त यही सबूत पेश कर रहा है। एक गलत फैसले को अपने अड़ियलपन से सही ठहराने की कोशिश। भीतर भीतर भले ही दुर्गा शक्ति के निलंबन पर ढेरों बहस चल रही हो लेकिन जब बाहर बोलने की बारी आती है तो सब एक सुर में बोलते हैं- जो किया सही किया और अब फैसले से वापस नहीं लौटेंगे। पहले छुटभैय्ये समाजवादी यह बात बोल रहे थे, आज समाजवादे आला कमान ने भी अपनी बात साफ कर दी।
लखनऊ के राजनीतिक मैदान से जो मैसेज भेजा जा रहा था, आज वही संदेश मुलायम सिंह ने भी संसद के गलियारे में बांच दिया। पत्रकारों से बात करते हुए साफ कर दिया कि दुर्गा शक्ति का निलंबन सही है और निलंबन वापस लेने पर कोई विचार नहीं किया जाएगा। मुलायम सिंह यादव ने पत्रकारों से अपनी बातचीत में दुर्गा के निलंबन को विशेष तौर पर 'अखिलेश सरकार का निर्णय' चिन्हित किया। उनका यह चिन्हित करना चौंकानेवाला है। जब आप किसी बात को विशेष तौर पर चिन्हित करते हैं तो वह अनायास नहीं हुआ करता है। इसलिए इतना तो तय है कि यह निर्णय अखिलेश सरकार का जरूर है लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश कुमार का शायद नहीं।

लेकिन खुद मुख्यमंत्री अखिलेश कुमार भी दुर्गा शक्ति के गलत निर्णय को सही ठहराने से कहां पीछे हट रहे हैं। जिस दिन से निलंबन हुआ है उस दिन से एक ही राग अलाप रहे हैं कि जो किया सही किया और उससे पीछे हटने का सवाल नहीं है। बाप जी और बेटे जी का अड़ियलपन अपनी जगह लेकिन चाचा रामगोपाल जो कि अंदरखाने इस निलंबन का विरोध कर रहे थे और भी मुखर होकर सामने आ गये कि केन्द्र अपने आईएएस अधिकारियों को वापस बुला ले वे बिना आईएएस अधिकारियों के ही काम चला लेंगे। रामगोपाल और मुलायम का ताजा अड़ियल रुख दुर्गाशक्ति के सही या गलत होने से ज्यादा केन्द्र के दखल और सोनिया की उस चिट्ठी के कारण है जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा है कि ईमानदार अधिकारी के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए।

समाजवादी नेताओं का यह अड़ियल रुख साफ तौर पर एक गलत फैसले को सही ठहराने का जरूर है लेकिन इस अड़ियल रुख में क्रमिक कठोरता राजनीतिक मजबूरी की वजह से आती चली गई है। यह तो तय है कि दुर्गा शक्ति का निलंबन सीधे तौर पर खनन माफियाओं को संरक्षण देने के लिए किया गया है। मस्जिद की दीवार गिराने जैसे बहाने तो पैदा किये गये। हकीकत यह है कि समाजवादी सरकार तब भी माफियाओं और गुण्डों की सरकार थी और अब भी उसे माफिया और गुण्डे ही चला रहे हैं। अखिलेश कुमार ने जरूर थोड़ी कोशिश की थी कि समाजवादी पार्टी को नौजवान सभा से जोड़कर साफ सुथरी राजनीति की जाए लेकिन अतीत कभी पीछा नहीं छोड़ता है। अखिलेश की अनिच्छा के बाद भी मुलायम सिंह के दबाव में कई मंत्री ऐसे बना दिये गये जिनका आपराधिक सफरनामा सबके सामने खुला चिट्ठा है। और इन अपराधी मंत्रियों ने आते ही कारनामें भी शुरू कर दिये। राजा भैया और राजाराम पाण्डेय इसी के उदाहरण थे।

किसी भी सरकार में व्यापारी वर्ग ताकतवर स्थिति में रहता ही है क्योंकि सरकार में जो सत्ता तत्व है उसमें व्यापारी बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। उत्तर प्रदेश में जब व्यापार की बात होती है बाहुबल भी साथ में जुड़ जाता है। उत्तर प्रदेश के जितने बाबुबली, माफिया, अपराधी हैं वे सब आला दर्जे के व्यापारी भी हैं। मुख्तार अंसारी, बृजेश सिंह, नंदी, विजय मिश्र, अतीक अहमद, गुड्डू पंडित, धनंजय सिंह, राजा भैया सबने अपने आतंक को चाक चौबंद कारोबार में तब्दील कर लिया है। राज्य में जब जिसकी सरकार रहती है ये अपराधी उसी का संरक्षण हासिल कर लेते हैं। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मुख्यमंत्री मायावती हैं कि मुलायम या फिर अखिलेश कुमार। कुछ देर के लिए भले ही ये अपराधी अपनी बिलों में घुस जाएं लेकिन इनका बाहुबल और जुगाड़ तंत्र इतना तगड़ा होता है कि देर सबेर वे सत्ता की मुख्यधारा में लौट ही आते हैं। दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन इसी बाहुबल वाले सत्ता तंत्र का नतीजा है।

लेकिन तमाशा देखिए कि जिस दुर्गा शक्ति के निलंबन पर समाजवादी पार्टी को घुटनों के बल बैठकर जनता से माफी मांगनी चाहिए थी वह अपनी अनीति पर अडिग खड़ी रहकर यह बताने की कोशिश कर रही है कि लोकतंत्र में कठोर निर्णय लिये जाते हैं। फिर वह कठोर निर्णय भले ही माफियाओं, गुण्डों और बदमाशों के हित में ईमानदारी की कीमत पर ही क्यों न लिए जाएं। लेकिन समाजवादी सत्ताधीशों को अपना बनवास अभी भूला नहीं होगा। भूलना भी नहीं चाहिए। क्योंकि जल्द ही प्रदेश में एक बार फिर आम चुनाव की बयार बहनेवाली है। उनका यह अडिग और अड़ियल रुख उनके लिए कैसी कब्रगाह साबित होगा, इसे देखने के लिए बहुत लंबा इंतजार नहीं करना पड़ेगा। आखिरकार जनता की स्मृति इतनी भी छोटी नहीं हुआ करती कि छह महीने में ही सब कुछ भूल जाए।

जिया उल हक की हत्या और अब दुर्गा शक्ति का निलंबन ये दो ऐसी बड़ी प्रशासनिक चूक हैं जिससे अखिलेश की समाजवादी सरकार और मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी दोनों की चूलें हिल जाएंगी। तिस पर राजा भैया को क्लीन चिट और निलंबन को सही ठहराने जैसी बातें जनता के जले पर नकम छिड़कने का ही काम करेंगी। इन यादवी समाजवादियों को भगवान कृष्ण सत्ता की चलाने की सद्बुद्धि दें, जो खुद अपनी कब्र खोदने में जुटे हुए हैं। इससे ज्यादा कोई और क्या कह सकता है?

Sunday, August 4, 2013

धराशाई हो गई स्काई बस

करीब एक दशक तक हवा में उल्टा लटकाने के बाद स्काई बस को धराशायी करने की घोषणा कर दी गई है। समाचार एजंसी पीटीआई ने खबर करी है कि कोंकण रेलवे अब गोवा में प्रायोगिक तौर पर बने एक मील लंबे रास्ते को जमींदोज कर देगा और इसके साथ ही प्रायोगिक तौर पर शुरू की गई परियोजना प्रायोगिक तौर पर खत्म भी जाएगी। दो डिब्बों वाली वह स्काई बस जो अब तक गोवा में उल्टी लटकी हुई थी, शायद सीधी करके जमीन पर फेंक दी जाएगी। और इसके साथ ही देश के नक्शे से एक ऐसे प्रयोग का नामोनिशान हमेशा के लिए मिट जाएगा जिसके पीछे पूरी तरह से एक भारतीय तकनीशियन का दिमाग और साहस काम कर रहा था। उधार की पूंजी और उधार की तकनीकि के सहारे दुनिया का सिरमौर बनने का दावा करनेवाले इस उभरती महाशक्ति के मुंह पर इसससे करारा तमाचा और क्या हो सकता है?

तब 2003 में गोवा में छुट्टियां बिताने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने गोवा को नये साल का तोहफा दिया था- स्काई बस। गोवा जैसे आधुनिक राज्य के लिए परिवहन की एक ऐसी आधुनिक व्यवस्था दी थी जो कम खर्चीली, पर्यावरण के अधिक अनुकूल और सबसे बढ़कर विशुद्ध भारतीय सोच से उपजी थी। लेकिन 2003 से लेकर 2013 तक यह परियोजना एक मील से आगे नहीं सरक पाई। यह वक्त ठीक वही वक्त था जब उन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी ने साल भर पहले 2002 में दिल्ली मेट्रो के लगभग उतने ही लंबे रूट का उद्घाटन किया था। शाहदार से सीलमपुर। शाहदरा से सीलमपुर वाली वह मेट्रो अब अकेले दिल्ली में परिवहन का सबसे मुख्य साधन हो गई है और उसका कुल रूट विस्तार 190 किलोमीटर हो चला है। इसी एक दशक में दिल्ली मेट्रो दिल्ली से निकलकर यूपी, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश में अपने पैर पसार रही है तो स्काई बस एक मील से आगे का रास्ता तय नहीं कर पाई।

दिल्ली मेट्रो और स्काई बस मेट्रो की तुलना का एक बड़ा कारण दोनों ही रेल प्रणालियों के प्रमुखों का नाम है। दिल्ली मेट्रो परिवहन रेल प्रणाली को आगे बढ़ाने का काम श्रीधरन ने किया जबकि स्काई बस मेट्रो के पीछे बी राजाराम का दिमाग और मेहनत थी। दोनों के हिस्से में एक बड़ी परियोजना की सफलता है। रेलवे की वह महत्वाकांक्षी और बड़ी परियोजना थी कोंकण रेलवे। इसी कोंकण रेलवे के चीफ कभी श्रीधरन हुआ करते थे, लेकिन श्रीधर दिल्ली मेट्रो के चीफ बने तो उसके बाद यह जिम्मा बी राजाराम के पास आ गया। दोनों ही तकनीशियन थे और दोनों के खाते में महत्वाकांक्षी कोंकण रेल परियोजना को पूरा करने का समान सम्मान जाता है। लेकिन एक अगर दिल्ली मेट्रो बनाकर सफलता की सीढ़ियां चढ़ गया तो दूसरा धूल फांकते हुए धूल धूसरित हो गया। ऐसा क्यों हुआ?

ऐसा इसलिए हुआ कि श्रीधरन बड़ी पूंजी के पैरोकार बन गये। उन्होंने एक ऐसी परियोजना को हाथ में ले लिया जिसमें जापान पूंजी निवेश कर रहा था। दिल्ली मेट्रो की तकनीकि ही ऐसी है कि इसका अधिकांश साजो सामान विदेश से लाया जा रहा है। देश में सिर्फ उसकी कोच को असेम्बल कर दिया जाता है वह भी एक जर्मन कंपनी द्वारा। इसलिए दिल्ली मेट्रो की परिवहन प्रणाली को सरकारी और निजी दोनों ही स्तरों पर भरपूर समर्थन और पैसा मिला। 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार जाने के बाद केन्द्र की सरकार ने स्काई बस मेट्रो से अपना ध्यान हटा लिया और पूरा जोर मेट्रो रेल प्रणाली पर ही लगा दिया। बी राजाराम अपने दम पर हाल फिलहाल तक पूरा जोर लगाकर स्काई बस की प्रणाली को उम्दा और जरूरत के लिहाज से सबसे जरूरी जरूर बताते रहे लेकिन उनकी बात पर किसी ने कान नहीं दिया।

कोई उनकी बात सुनता भी तो कैसे? श्रीधरन खुद स्काई बस की निंदा करते थे। तकनीकि कारणों से भी और व्यावहारिक कारणों से भी। श्रीधरन के विरोध को तब बड़ा आधार मिल गया जब गोवा में स्काई बस हादसा हो गया 2004 में। यह प्रायोगिकता के दौरान हुआ हादसा था जिसमें एक मजदूर की मौत हो गई थी। राजाराम कहते रह गये कि यह हादसा तकनीकि की खामी की वजह से नहीं बल्कि तकनीकिशियनों की लापरवाही से हुआ है लेकिन मानों स्काई बस के विरोधियों को इसी हादसे का इंतजार था। इस हादसे के बाद तो स्काई बस की चर्चा ही चलता कर दी गई। बी राजाराम ने तब भी हिम्मत नहीं हारी और देशभर में घूम घूमकर कहते रहे कि मेट्रो के मुकाबले स्काई बस मेट्रो आधे पैसे में तैयार हो सकती है और वह पूरी तरह से भारतीय शहरों की जरूरतों के अनुकूल है। उन्होंने बीते साल चीफ जस्टिस आफ इंडिया से भी गुहार लगाई कि वे अपनी तरह से संज्ञान लेकर सरकार को परियोजना शुरू करने की ताकीद करें लेकिन न सुप्रीम कोर्ट ने सुना और न ही सरकार को कुछ सुनाया।

और आखिर में जो खबर आई वह यह कि अब सरकार मेट्रो के प्रायोगिक ढांचे को धराशायी कर देगी। पचास करोड़ रूपये की लागत से निर्मित इस प्रायोगिक परीक्षण लाइन को ध्वस्त करने पर तीन करोड़ और खर्च किये जाएंगे जिसका जिम्मा भी उसी कोंकण रेलवे पर डाल दिया गया है जिसने यह प्रायोगिक लाइन बनाई थी। लेकिन क्या इस प्रायोगिक लाइन के धराशायी हो जाने से भारत का वह सपना धराशायी नहीं हो जाएगा जिसे कोंकण रेलवे ने बड़ी शिद्दत से बुना था? दुनिया का इतिहास यही है कि बड़ी परियोजनाओं को पूरा करनेवाले साहसिक निकाय आगे चलकर किसी संस्थान में तब्दील हो जाते हैं और वे दुनिया के विकास को अपने तरीकों से विस्तार देते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे दिल्ली मेट्रो के साथ हुआ है। दिल्ली मेट्रो का विस्तार का मतलब है विदेशी पूंजी और तकनीकि का विस्तार। लेकिन अगर यही स्काई मेट्रो का विस्तार होता तो यह तकनीकि के स्तर पर भारत के भीतर भारत की अपनी तकनीकि का विस्तार होता। अब शायद ही कोई राजाराम तकनीकि का ऐसा साहसिक प्रयोग करने की साहस करे जिसका हश्र आखिर में स्काई बस जैसा कर दिया जाए।

Thursday, August 1, 2013

हंस का ध्वंस

सब कुछ देख सुन लेने के बाद यही दो शब्द शेष रह जाते हैं। मुंशी जी ने अपनी प्रिय साहित्यिक पत्रिका का नाम हंस शायद इसीलिए रखा होगा कि हंस के पास ही नीर क्षीर का विवेक होता है। लेकिन 31 जुलाई 2013 को दिल्ली के ऐवाने गालिब सभागार में जो कुछ हुआ वह उसी नीर क्षीर विवेक के लोप की दास्तान बयान करता है जो दूसरे शब्दों में कहें तो हंस का विध्वंस है। तीन दशक से हंस का संपादन कर रहे राजेन्द्र यादव ने आखिर ऐसी कौन सी खता कर दी थी कि उनके अपने ही उनके ऊपर आक्रांता बनकर टूट पड़े हैं?

क्या मुंशी जी का नाम और काम किसी खास पंथ का बंधुआ मजूर बनकर रह गया है जिसे दूसरा कोई निहार भी नहीं सकता है? किसी गोविन्दाचार्य या फिर किसी अशोक वाजपेयी के मौजूद भर रह जाने से कोई वरवर राव या कोई अरुंधती रॉय इतना नाराज क्यों हो जाते हैं कि आने से मना कर देते हैं? क्या मुंशी जी ने अपने पूरे जीवन जो साहित्य रचा उसका यही एक सूत्र था कि उनके नाम पर एक नागरिक दूसरे नागरिक से इतनी घृणा करे कि मेरे नाम पर भी साथ आने को राजी न हों?

मामला दिल्ली का है और मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन पर हंस द्वारा आयोजित 28वे कार्यक्रम से जुड़ा हुआ है। 31 जुलाई को प्रेमचंद को याद करने के बहाने राजेन्द्र यादव साहित्यिक जमावड़ा करते हैं हर साल। इस साल भी किया। लेकिन इस साल उनकी उदारता उनके लिए अभिशाप बन गई। वक्ताओं की सूची में उन्होंने दो नाम ऐसे रख लिये गये जिन्हें उस खेमे का नहीं माना जाता है जिस खेमे के राजेन्द्र यादव माने जाते हैं। ये दो नाम थे- गोविन्दाचार्य और अशोक वाजपेयी। एक राजीनीति से समाज में समा चुका है और दूसरा साहित्य का सरल सा नाम भर है। इन दो नामों का बाकी नामों ने इतना मुखर विरोध किया कि राजेन्द्र यादव के लिए उनके ही समर्थक रजाकर होकर सोशल मीडिया पर टूट पड़े हैं। अरुन्धती रॉय और तेलुगु कवि वरवर राव।
अरुन्धती का आरोप कि उनसे बिना पूछे उनका नाम शामिल कर लिया गया। क्या करें? यह तो साहित्यिक धोखाधड़ी है। इसलिए उन्होंने बहिष्कार कर दिया। यह तो राजेन्द्र यादव जाने कि अरुन्धती के बयान में कितनी सच्चाई है लेकिन तेलुगु कवि कार्यक्रम में शामिल होने के लिए दिल्ली तक आकर ऐवान-ए-गालिब नहीं आये। उनकी चिट्ठी आई। विरोध वाली। लिखा कि ''अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य इस परम्परा के मद्देनजर किसके पक्ष में हैं? राजेन्द्र यादव खुद को प्रेमचंद की परम्परा में खड़ा करते हैं। ऐसे में सवाल बनता है कि वे अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य को किस नजर से देखते हैं? और, इस आयोजन का अभीष्‍ट क्या है?'' विरोध की इस चिट्ठी में वे जिस परंपरा का जिक्र कर रहे हैं वह जनवादी परंपरा है। जनता को जनता से जोड़नेवाली।  वह जनवादी परंपरा जो कारपोरेट कल्चर का विरोध करती है और एक खास उग्रत्व के उभार का निषेध करती है। खुद को आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में प्रतिबंधित जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा के अध्यक्ष बतानेवाले वरवर राव संवेदनशील कवि भी कहे जाते हैं.

वरवर राव के विरोध और बहिष्कार के अपने तर्क हैं और उन तर्कों से वे पूरी तरह सहमत है लेकिन क्या उनके तर्क इतने लोकतांत्रिक हैं कि उनसे हर कोई सहमत हो चले? वरवर राव जिस गोविन्दाचार्य को हिन्दूवादी घोषित करके उसका बहिष्कार कर चले थे, अब तक उन्हें खबर मिल ही गई होगी कि उस हिन्दूवादी ने भी वही बोला जो बर्बर राव शायद उतनी स्वीकार्यता से नहीं बोल पाते। आखिरकार गोविन्दाचार्य ने भी तो यही कहा कि जेपी के जमाने में जो लोग तानाशाही को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करना चाहते थे आज वे लोग भी आंशिक तानाशाही के समर्थक हो चले हैं? यह आंशिक तानाशाही क्या है इसे बताने की जरूरत नहीं है। तब तो और भी नहीं जब खुलेआम गोविन्दाचार्य नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बोलते चले आ रहे हों और गुजरात दंगों के लिए दोषी मानने से भी नहीं हिचकते हों?

और दूसरी बात। वरवर राव आते तो वे भी सुनते कि गोविन्दाचार्य के गुरू भी एक कामरेड थे। काशी के कामरेड मोहनलाल तिवारी। गोविन्दाचार्य भले ही साहित्यकार न हों और प्रेमचंद से उनका रिश्ता पाठक भर का हो लेकिन मोहनलाल तिवारी साहित्यकार थे और उसी धारा के साहित्यकार थे जिस धारा के लोग प्रेमचंद को अपना कॉपीराइट मानते हैं। यह संयोग ही कहा जाएगा कि 30 जुलाई को मोहनलाल तिवारी का जन्मदिन होता है और 31 जुलाई को मुंशी जी का। उनके बेटे विवेक शंकर अपने पिता को याद करते हुए बताते हैं कि हर साल 31 जुलाई लमही में ही बीतती थी, अपने पिता के साथ। राजेन्द्र यादव तो बेचारे लमही जाकर प्रेमचंद को नहीं पुकार पा रहे हैं लेकिन मोहनलाल तिवारी लमही में मुंशी जी को पुकारते थे। और पुकारते ही नहीं थे, उनके पूरे जीवन में वामपंथ ऐसा समाया था कि उनकी साहित्य रचना का आधार समतामूलक समाज ही बना रहा। उन स्वर्गीय मोहनलाल तिवारी का अगर गोविन्दाचार्य ने अपने गुरू के बतौर जिक्र किया तो क्या गुनाह कर दिया?

वरवर राव की चिट्ठी को आधार बनाकर बहुत सारे कामरेड सोशल मीडिया के मैदान में कूद पड़े हैं। उन्हें बहस करने की अच्छी आदत होती है। वे बहस करेंगे। भांति भांति से बहस करेंगे। तर्कों के अंबर तले कुतर्कों का अंबार लगायेंगे लेकिन क्या कोई यह बताएगा कि छूआछूत की यह बर्बर परंपरा उस ब्राह्मणवाद से किस तरह भिन्न है जिसके विनाश के लिए समूचे समतामूलक विचार को धारा में तब्दील कर दिया गया है? अगर धाराएं इतनी संकीर्ण और तंग घाटियों से गुजरती हैं तो विचार के लिए जगह कहां बचेगी? और किसी धारा से विचार ही गायब हो गया तो उस धारा के साथ बहनेवाले वाले लोग बहते हुए कहां चले जा रहे हैं? अगर वरवर राव खुद अपनी चिट्ठी में यह कहते हैं कि अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित किया जा रहा है तो उनका यह बहिष्कार क्या कौन सी स्वीकारोक्ति है? अगर सब अपने अपने दायरे में दूसरों का प्रवेश वर्जित कर सकते हैं तो फिर किसी सिरफिरी सरकार और वरवर राव में फर्क क्या रह जाता है?

हंस तो विवेकशील है। उसको क्या फर्क पड़ता है कि दूध में कितना पानी है कि पानी में कितना दूध है? वह तो क्षीर का साथी है, उसे नीर से भला क्या काम? और अगर हंस का यही विवेक जाता रहा तो वह हंस कितना हंस रह पायेगा? सवाल राजेन्द्र यादव से नहीं लेकिन उन वरवर राव और अरुन्धती राय से जरूर पूछा जाना चाहिए जिन्होंने मुंशी जी के हंस के विध्वंस का काम किया है।

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