Sunday, August 28, 2016

बलोचिस्तान का नाम: कितना फायदा कितना नुकसान?

लालकिले से भाषण सुने पखवाड़ा बीत गया लेकिन अभी भी तय कर पाना मुश्किल है कि बलोचिस्तान का नाम लेकर हमें फायदा होगा या नुकसान? बलोच की आजादी से भारत को क्या हासिल होगा? ऐसे वक्त में जब चीन वहां जाकर बैठ गया है तब क्या हम बलोचिस्तान का नाम लेकर किसी युद्ध की तैयारी कर रहे हैं?

अमेरिका से दोस्ती तो ठीक है लेकिन अमेरिका के इशारे पर चीन से दुश्मनी ठीक नहीं। भारत पाकिस्तान के दरम्यान जो बीते दो तीन सालों में जो परिस्थितियां बन रही हैं उसमें चीन और कुछ हद तक रूस भी पाकिस्तान के साथ हैं। अमेरिका पूरी तरह से पाकिस्तान से दूर चला गया है। उसकी दूरी का नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान पूरा का पूरा चीन की गोद में जाकर बैठ गया है। गोटी बोटी का रिश्ता जोड़ लिया है। हालांकि इस गोटी बोटी के रिश्ते के बाद भी चीन पूरी तरह से पाकिस्तान से चौकन्ना है और इस्लामिक कट्टरता का समर्थन केवल पाकिस्तान के भीतर तक ही सीमित है। इस्लामिक कट्टरता का एक कतरा भी वह चीन में घुसने देने के लिए तैयार नहीं और पाकिस्तान में जो निवेश कर रहा है वह सब मंहगा कर्ज है जो आज नहीं तो कल पाकिस्तान को बहुत भारी पड़नेवाला है।

चीन को मध्यपूर्व और यूरोप जाने का रास्ता चाहिए जो बलोचिस्तान के ग्वादर पोर्ट से होकर जाएगा। पोर्ट लगभग तैयार है और उसे शुरु करने के लिए पाकिस्तान ने अपना समूचा अस्तित्व दांव पर लगा दिया है। सेना, प्रशासन सब झोंक दिया है। लेकिन इसी ग्वादर को लेकर बलोचिस्तान खुश नहीं है। बलोचिस्तान की शिकायत है जिस सीपेक के जरिए यह सारा ढांचा खड़ा किया जा रहा है उसमें बलोचिस्तान को कुछ हासिल नहीं होनेवाला है। शिकायत सिन्ध की भी है। पाक अधिकृत कश्मीर में भी जो प्रदर्शन हुए हैं वो इसी बात को लेकर हुए हैं कि सीपेक में उनको हिस्सेदारी नहीं मिल रही है। लेकिन शरीफ खानदान और सेना ने चीन के आगे अपने आपको बिछा दिया है। जैसे भी हो यह सीपेक बनना चाहिए। इसी में पाकिस्तान का भविष्य छिपा हुआ है।

वह भविष्य उजाले से भरा है कि अंधकारमय इसे लेकर पाकिस्तान में ही दो मत हैं। एक वर्ग है जो मानता है कि सीपेक के जरिए पाकिस्तान पर चीन का कब्जा हो जाएगा। जो काम चार दशक पहले सोवियत संघ नहीं कर पाया वह काम चीन चार साल में कर जाएगा। चिंता वही है इस्लाम वाली कि चीन आयेगा तो पाकिस्तान की पहचान इस्लाम खतरे में पड़ जाएगी। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि जो इस्लाम के ठेकेदार हैं वे चीन का माथा को चूमकर पाकिस्तान ला रहे हैं। इसका नतीजा यह हो रहा है कि पाकिस्तान के अंकल यूएई नाराज हो गये हैं। ग्वादर बना तो यूएई का दुबई का बंदरगाह कमजोर पड़ जाएगा। चीन की बढ़त से अंकल सैम को तो खैर खतरा है ही।

इसलिए आप चाहें जिस तरफ से देखें पाकिस्तान एक चक्रव्यूह में फंसता नजर आ रहा है। उसके चारों तरफ सिर्फ एक विकल्प है खाईं। उसके पैरों की जमीन लगातार खिसक रही है और वह इधर की खाईं में गिरने से रोकता है तो उधर की खाईं नजर आने लगती है। कश्मीर के मुद्दे पर वह जानबूझकर अटकता है क्योंकि यहीं से उसे थोड़ी राहत मिलती है। नेशनल लेवल पर भी इंटरनेशनल लेवल पर भी। लेकिन आइने को पलटकर वह कब तक अपनी बदसूरती छिपा पायेगा? पाकिस्तान का के एक पॉकेट में परमाणु बम है तो दूसरे में जिहादी। अभी तो सेना के हाथ दोनों जेब में मजबूती से जमे हुए हैं लेकिन कब तक?

यह वह सवाल है जिसका जवाब दुनिया में किसी के पास नहीं है। "माइग्रेन" बढ़ता जा रहा है इसलिए हो सकता है अमेरिकी चुनावों के बाद सीरिया भूलकर अमेरिका पाकिस्तान पर निगहबान हो जाए। जान मैक्केन कुछ महीने पहले पाकिस्तान का दौरा करके जा चुके हैं। ये वही अमेरिका के सीनेटर जान मैक्केन हैं जिनके सीरिया दौरे के कुछ साल बाद असद विरोधी अभियान शुरू हो गया था और अंतत: कुख्यात आइसिस का जन्म हुआ। ऐसे में समस्या पाकिस्तान की नहीं है, उसकी नियति तो तय है कि उसे आज नहीं तो कल, इधर नहीं तो उधर किसी न किसी खाईं में गिरना ही है। ऐसे में क्या यह होना जरूरी है कि हिन्दुस्तान धक्का देता नजर आये?

कूटनीतिक लिहाज से कहें तो नहीं। बीते सत्तर सालों में युद्ध अब तक भारत की कूटनीति का हिस्सा नहीं रहा है। तो क्या मोदी सरकार ने भारत के परंपरागत पंचशील के कूटनीतिक सिद्धांत को पलट दिया है? लाल किले से अपने भाषण में उन्होंने बलोचिस्तान का नाम लेने से पहले एक और बात कही थी जिस पर शायद किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा था, "हम टालनेवाले नहीं टकरानेवाले लोग हैं।" शुरुआत में जिस सवाल से बात शुरू हुई थी वह इसी वाक्य से निकला है। जिस टकराव को हम अपनी नयी नीति बनाने जा रहे हैं क्या उससे भारत को वह सब कुछ मिल जाएगा जो उसे सत्तर सालों से नहीं मिला है? या फिर वह भी एक युद्धरत देश बन जाएगा जैसा कि टकरानेवालों की नियति होती है? 

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