Tuesday, April 12, 2016

सरकारी नाकामियों की ट्रेन

ट्रेन में सफर करते हुए ऐसे गोल मटोल डिब्बे हमें जहां तहां ट्रेन की पटरियों पर दौड़ते या खड़े होकर सुस्ताते हुए दिख ही जाते हैं जिन्हे देखकर हमारे जेहन जो पहला ख्याल आता है वह होता है, पेट्रोल। इन डिब्बों का इस्तेमाल होता भी उसी काम के लिए है। इन डिब्बों में पेट्रोल डीजल भरकर देशभर में पहुंचाया जाता है।

लेकिन अबकी ऐसा नहीं हुआ है। तेल के इस कनस्तर में पानी भरा गया है और उसे सीधे उस लातूर तक पहुंचाया गया है जहां करीब बीस दिन से पानी पर धारा 144 लगी हुई है। अगर किसी भी कुएं, बावड़ी के पास एकसाथ पांच दस लोग इकट्ठा हो गये तो पुलिस तत्काल कार्रवाई करने के लिए आजाद है। पता नहीं इस ट्रेन पर कौन सी धारा लगाकर लातूर भेजा गया है लेकिन इस ट्रेन की जलधारा से लातूर की प्यास बुझ जाएगी इसकी कोई गारंटी किसी के पास नहीं है।

दुश्मन के "खून से प्यास" बुझानेवाला मराठवाड़ा बीते एक दशक से पानी की प्यास नहीं बुझा पा रहा है, दिनों दिन सूखता जा रहा है। हर साल किसी न किसी कुएं और बावड़ी की तलछटी में पानी कांछते इंसानों के फोटो हम देखते रहते हैं। जैसे डांगर पर गिद्ध मंडराते हैं वैसे ही पानी पर मराठवाड़ा मंडराता है। ऐसे में वह दृश्य  ज्यादा शुकून देनेवाला है जो पेटभर पानी लेकर प्यास बुझाने जा रहा है। सरकार यही कर सकती है। इसलिए बहुत उदारता से यह कर भी रही है।

सरकार पानी नहीं पैदा कर सकती। वह पानी निकाल सकती है लेकिन पानी पैदा करने का उसने अपने यहां कोई डिपार्टमेन्ट बनाया नहीं है। अगर आप सरकार से यह उम्मीद करते हैं कि वह पानी की खेती करे तो उसके पास ऐसा कोई विभाग नहीं है जो पानी पैदा कर सके। अगर होता, तो निश्चित रूप से वह विभाग जरूर लातूर में काम कर रहा होता। सरकार के जितने विभाग हैं वे पानी पीनेवाले विभाग हैं। मंत्रालय की फाइल से  लेकर  पटवारी के बहीखाते तक पानी का जो हिसाब किताब होता है उसमें पानी के वितरण का किस्सा दर्ज रहता है और जिस दिन सरकार वितरण में नाकाम हो जाती है उस पूरे इलाके को डार्क जोन घोषित करके अपना पिंड छुड़ा लेती है।

इसीलिए पानी से भरी ट्रेन की फोटो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने अपने फेसबुक पेज पर कामयाबी की ट्रेन बताकर प्रकाशित किया है। अच्छा होता कि सरकार इसे अपनी नाकामयाबी की ट्रेन बताती। इससे उनका एक ईमानदार चेहरा सामने आता कि कोई तो सरकार है जो अपनी नाकामियों को छिपाने की बजाय उसे उघाड़ रही है। लेकिन वर्तमान राजनीतिक माहौल में किसी भी राजनीतिक दल से ऐसी ईमानदारी की उम्मीद करना लातूर में पानी खोजने के बराबर है। लेकिन यह नाकामयाबी तो है। सरकार कोई भी रही हो, योजना कैसी भी बनी हो लेकिन मराठवाड़ा की प्यास सरकार की नाकामयाबी ही है।

समाज के पास पानी का बड़ा समृद्ध विभाग था। पूरे देश के समाज ने बिना कोई ट्रेन चलाये उसका बड़ा समान वितरण कर लिया था। मरुभूमि से लेकर महाराष्ट्र तक।  जहां जैसी जलवर्षा वहां वैसी व्यवस्था। पानी का विभाग समाज ने कभी किसी सरकार को दिया नहीं। यह डिपार्टमेन्ट उसने हमेशा अपने हाथ में रखा। लेकिन सरकार ने उसे समाज से छीनकर समाज को पानी विहीन कर दिया। जैसे जैसे योजनाएं बनती गयीं, पानी सूखता गया। अजीत पवार ने क्या कम योजनाएं बनायी थीं? लेकिन आखिर में वे भी पेशाब करने पर ही उतर आये।

ऐसा नहीं है कि पानी ने ट्रेन से मराठवाड़ा आने की कोई कसम खा रखी थी। वह तो वैसे ही आता रहा जैसे पूरी दुनिया में आता है लेकिन मराठवाड़ा में अपने लिए ठौर नहीं पाया तो चला गया। वह हर साल आता रहा और अपना ठौर न पाकर बहकर दूर जाता रहा। फिर उसने आना कम कर दिया। पानी का एक चक्र होता है। वह जितना आता है अगर उसकी समानुपातिक मात्रा में रोक लिया जाए तो अगली बार उससे ज्यादा ही आता है, कमी नहीं करता। लेकिन इस चक्र में अगर व्यवधान आ जाए तो वह दुश्चक्र में बदल जाता है। अकाल और दुश्काल पैदा कर देता है। मेहमान बार बार आये और ठौर न पाये तो आखिर क्या करेगा? मराठवाड़ा में पानी ने भी वही किया।

हो सकता है कल पानी ट्रेन में सफर करने से भी मना कर दे। जब कुएं और बावड़ी लूटे जा सकते हैं तो ट्रेन में पानी को कोई खतरा नहीं होगा इसकी गारंटी कौन लेगा? तब पानी को हवाई जहाज और हेलिकॉप्टर यात्रा की सुविधा देनी होगी। हो सकता है वह दिन सरकार के लिए आज से ज्यादा बड़ी कामयाबी का दिन हो और जहाज से पानी पहुंचाने के इस काम को अंजाम देनेवाली सरकार ज्यादा बड़ी कामयाबी का जश्न मनाए। अगर ट्रेन में पेट्रोल की जगह पानी भरना ही हमारी सफलता है तो इस सफलता का चरमबिन्दु भी आज नहीं तो कल जरूर आयेगा। तो क्या हम सरकार को सफल बनाने के लिए इसी तरह  समाज को असफल करते रहेंगे ताकि वह हमें ट्रेन से पानी पहुंचाती रहे?

Sunday, April 10, 2016

इमां मुझे रोके है, जो खींचे है मुझे कुफ्र

दस साल पहले की बात है। लेखक योगिन्दर सिकंद पाकिस्तान की यात्रा पर थे। सिन्ध में उनकी मुलाकात सोशलिस्ट लेफ्टिस्ट खुर्शीद कैमखानी से हुई। खुर्शीद ने उनसे एक ऐसी समस्या का जिक्र किया जो आज कमोबेश पूरे बर्रे सगीर में मुसलमानों का संकट बन चुका है। वह संकट है पहचान का संकट।

खुर्शीद ने कहा, "आज पाकिस्तान पहचान के संकट में फंस गया है। हमारी समस्या यह है कि हम अपनी किस पहचान को कायम करें? हम अरब इरानियन सभ्यता के लोग हैं या फिर इंडो-साउथ एशियन सभ्यता हमारी पहचान है?" कैमखानी आगे कहते हैं "एक बात तो पूरी तरह से सच है कि दक्षिण एशिया खासकर उत्तर भारत से हमारी पहचान जुड़ी हुई है जिससे हम इन्कार नहीं कर सकते। हमारी (हिन्दुओं और मुसलमानों) सांस्कृतिक धरोहर साझा है।"

72 साल के कैमखानी खुद राजस्थान से गये एक चौहान मुसलमान थे, और उन्होंने इस पहचान को मुसलमान और सोशलिस्ट होने के बाद भी खोई नहीं थी। कुछ ऐसे ही सवाल पाकिस्तान में हसन निसार भी खड़े करते हैं जो उनकी पहचान को सऊदी अरब से जोड़ने की बजाय पंजाब से जोड़ता है। वे सऊदी अरब से उपजे उस बवाहवियत को पूरी तरह से खारिज करते हैं जो उन्हें इस्लाम के नाम पर एक ऐसी पहचान दे देता है जो इन्डो-साउथ एशियन सभ्यता से जोड़ने की बजाय अरबी-इरानियन सभ्यता की भद्दी फोटोकॉपी बना देता है।

लेकिन मुसलमानों में खुर्शीद कैमखानी या हसन निसार जैसे लोगों की तादात बहुत कम है। एक सामान्य सा चलन हो गया है कि सच्चा इस्लाम वही है जो सऊदी अरब के पैसे पर पलनेवाले मौलवी बताएंगे। बाहर से देखने पर भले ही यह असहज लगे लेकिन खुद इस्लाम के भीतर यह एक प्रकार का "शुद्धीकरण" अभियान है। एक ऐसा शुद्धीकरण जिससे गुजरने के बाद एक मुकम्मल मुसलमान पैदा हो जाता है। दुर्भाग्य बस इतना हो गया है कि इस "शुद्धीकरण" का सबसे ज्यादा फायदा कट्टरपंथी उठा रहे हैं और शुद्ध इस्लाम और सच्चे मुसलमान का ऐसा मुगालता पैदा कर दिया गया है कि मुसलमान खुद दो पाटों के बीच फंस गया है। गालिब के शब्दों में कहें तो "इमां मुझे रोके है जो खीचें हैं मुझे कुफ्र। काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे।"

Saturday, April 9, 2016

मेरे गांव में आया सऊदी अरब से इस्लाम

सब ठीक ही था। स्कूल तक नियाज अहमद सबसे जिगरी दोस्त भी रहा। राजबली और साथी रामलीला में ढोलक हारमोनियम भी बजाते रहे। किस दिन रामलीला में कब कहां कौन सा प्रसंग आयेगा और उस पर कौन सी धुन बजानी है यह सब राजबली ही तय करते थे। उन्हीं की धुन पर रामलला की आरती होती थी।

नियाज और राजबली मुसलमान हैं इसका हमें कभी भान भी न हुआ। वे तो भांट हैं। इतना ही जानते थे। जैसे गांव के इकलौते मोती भांट वैसे ही बाजार के राजबली। उनकी ताजिया में मेला लगता था तब हम सब भी भागकर चाट खा आते थे। गांव के मोती का ताजिया तो बनता ही था हिन्दू के घर में और गांव के चंदे से। उठता था चौरा मंदिर से और पूरा गांव जहां नीम चौरा पर जल चढ़ाने जाता था वहीं इकट्ठा होकर मोती भांट का ताजिया भी विदा करता था।

लेकिन फिर जैसे कुछ बदला। एक डॉक्टर आने लगा। थोड़ी दूर से। उसने वहीं गांव के बाजार में एक डिस्पेन्सरी खोली। डॉ शकील। उसके बोलचाल की भाषा शैली कुछ अलग थी। वह खड़ी हिन्दी ही बोलता था लेकिन उसमें भी शब्दों को थोड़ा खींचकर। कुछ दिन में उसकी डॉक्टरी जम गयी तो उसने लोगों का पाजामा ऊपर खींचना शुरू किया। अपना भी पैंट चार इंच ऊपर ही उठाकर रखता था। मुझे याद है नियाज उसका पक्का चेला हो गया था। वैसे तो लोगों के सामने वह कोई ऐसी वैसी बात नहीं करता था लेकिन कई दफा नियाज से कुछ कहते हुए सुनता था तो बड़ा अजीब लगता था। अब ठीक से याद तो नहीं कि वास्तव में वह कहता क्या था लेकिन इतना याद है कि वह नियाज सहित समूचे बाजार के भांटों को समझा रहा था कि तुम लोग इस्लाम का पालन ठीक से नहीं कर रहे हो। तुम्हें एक सच्चे मुसलमान की जिन्दगी जीना चाहिए जो ईमान का पाबंद हो। इससिए वह उन्हें दाढ़ी, टोपी, ऊंचा पाजामा और लंबे कुर्ते में लपेटकर सच्चा मुसलमान बना रहा था।

मुझे याद है लड़के जब उसको सुनते थे तो कान के साथ साथ मुंह भी खोल लेते थे जो इस बात का संकेत होता था कि तुम कुछ कह तो रहे हो, लेकिन मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन अब तो यह सब दो दशक से भी ज्यादा पहले की बात हो गयी है। दो दशक में नियाज कहां गया, राजबली हैं कि मर गये, पता नहीं। न हमारा गांव से कोई संपर्क बचा न नियाज से। लेकिन दूरी तो उसी समय आनी शुरु हो गयी थी। कल तक जो नियाज कभी अहमद नजर नहीं आया अब उससे उतना मन न मिलता था। कुछ तो था, जो उसके अंदर बदल गया था। या फिर यह भी कह सकते हैं कि उस डॉक्टर ने बदल दिया था। अब वह कुछ खिंचा खिंचा सा रहने लगा था।

उस समय तो समझ में नहीं आता था लेकिन अब समझ में आता है कि डॉक्टर ने कहां क्या बदलाव किया था। डॉक्टर के कस्बे के ज्यादातर लोग अरब के देशों में रहते थे। डॉक्टर जो इस्लाम हमारे बाजार में ले आया था, असल में वह इस्लाम उसके घर में सऊदी अरब से आया था। उसने हमारी माटी के इस्लाम में सऊदी अरब की रेत भर दी जिसका आखिरी नतीजा क्या हुआ, यह कभी घर जाऊंगा तभी देख पाऊंगा।

लेकिन एक बात तो साफ दिख रही है कि मेरे गांव में कल तक जो समाज का इस्लाम था उसकी जगह सऊदी अरब का इस्लाम आ गया है। समकालीन भारत को देखें तो साफ दिखता है कि मेरे गांव में ही नहीं समकालीन भारत में हर जगह परंपरागत मुसलमानों के साथ इस्लाम के नाम पर छेड़छाड़ हुई है। यह छेड़छाड़  करनेवाले लोग कुछ तो ऐसा कर रहे हैं जो शायद उन्हें नहीं करना चाहिए।

सच्चा इस्लाम क्या है?

इस्लाम असल में एक बाइपोलर व्यवस्था है जिसमें एक साथ दो विरोधाभाषी बातें कही जाती हैं और दोनों ही कुरान का हवाला दे रहे होते हैं। मसलन एक तरफ मुसलमानों का एक वर्ग है जो कहता है कि किसी की जान लेना गैर इस्लामिक है तो ठीक उसी वक्त में एक दूसरा वर्ग इस्लाम के नाम पर लोगों की जान ले रहा होता है।

अब सवाल है कि सही इस्लाम कौन सा है? वह जो किसी की जान लेने को सबसे बड़ा गुनाह बता रहा है या फिर वह इस्लामिक जिहाद के नाम पर लोगों की जान ले रहा है? अगर आप जवाब जानना चाहते हैं और इस्लाम की सर्वोच्च किताब के हवाले से जानना चाहते हैं तो जवाब होगा, दोनों सही है। यह उन दोनों का विरोधाभाष नहीं है बल्कि उस किताब का विरोधाभाष है जो एक ही किताब में दोनों बात कहती है और उस किताब को आसमानी किताब का खिताब देकर उस पर किसी बहस से पूरी तरह रोक लगा देती है।

आखिर क्या कारण है कि बीते हजार बारह सौ सालों में हर एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने इस्लाम के नाम पर बड़े से बड़ा कत्लेआम किया और आज भी कर रहे हैं। जबकि ठीक इसके उलट इस्लाम के भीतर दूसरा वर्ग उसी किताब के हवाले से यह भी साबित करता है कि कैसे यह कत्लेआम गैर इस्लामिक है। हमास के एक नेता का बेटा याकूब जब इस्लाम से अलग हुआ तो आज से कुछ साल पहले यही सवाल बार बार टीवी चैनलों से बात करते हुए उठाया था। आज सीरिया और इराक के वे मुसलमान जो भागकर किसी पश्चिमी देश में शरण लेते हैं और अगर इस्लाम से खुद को अलग कर लेते हैं तो वे भी यही सवाल उठाते हैं।

याकूब का वह इंटरव्यू काफी चर्चित हुआ था जिसमें उसने किताब के गॉड (अल्लाह) को सबसे बड़ा आतंकवादी करार दिया था। उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था और अब वह बतौर ईसाई एक गुमनाम लेकिन आजाद जिन्दगी जी रहा है। हो सकता है अल्लाह को सबसे बड़ा आतंकवादी करार देने के पीछे उसकी मानसिकता यह रही हो कि आखिरकार सारी आतंकवादी वारदात किसके नाम पर की जाती हैं? अगर किसी के नाम पर की जाती हैं तो निश्चित रूप से वह सब आतंकवादियों का सरगना होगा।

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