दस साल पहले की बात है। लेखक योगिन्दर सिकंद पाकिस्तान की यात्रा पर थे। सिन्ध में उनकी मुलाकात सोशलिस्ट लेफ्टिस्ट खुर्शीद कैमखानी से हुई। खुर्शीद ने उनसे एक ऐसी समस्या का जिक्र किया जो आज कमोबेश पूरे बर्रे सगीर में मुसलमानों का संकट बन चुका है। वह संकट है पहचान का संकट।
खुर्शीद ने कहा, "आज पाकिस्तान पहचान के संकट में फंस गया है। हमारी समस्या यह है कि हम अपनी किस पहचान को कायम करें? हम अरब इरानियन सभ्यता के लोग हैं या फिर इंडो-साउथ एशियन सभ्यता हमारी पहचान है?" कैमखानी आगे कहते हैं "एक बात तो पूरी तरह से सच है कि दक्षिण एशिया खासकर उत्तर भारत से हमारी पहचान जुड़ी हुई है जिससे हम इन्कार नहीं कर सकते। हमारी (हिन्दुओं और मुसलमानों) सांस्कृतिक धरोहर साझा है।"
72 साल के कैमखानी खुद राजस्थान से गये एक चौहान मुसलमान थे, और उन्होंने इस पहचान को मुसलमान और सोशलिस्ट होने के बाद भी खोई नहीं थी। कुछ ऐसे ही सवाल पाकिस्तान में हसन निसार भी खड़े करते हैं जो उनकी पहचान को सऊदी अरब से जोड़ने की बजाय पंजाब से जोड़ता है। वे सऊदी अरब से उपजे उस बवाहवियत को पूरी तरह से खारिज करते हैं जो उन्हें इस्लाम के नाम पर एक ऐसी पहचान दे देता है जो इन्डो-साउथ एशियन सभ्यता से जोड़ने की बजाय अरबी-इरानियन सभ्यता की भद्दी फोटोकॉपी बना देता है।
लेकिन मुसलमानों में खुर्शीद कैमखानी या हसन निसार जैसे लोगों की तादात बहुत कम है। एक सामान्य सा चलन हो गया है कि सच्चा इस्लाम वही है जो सऊदी अरब के पैसे पर पलनेवाले मौलवी बताएंगे। बाहर से देखने पर भले ही यह असहज लगे लेकिन खुद इस्लाम के भीतर यह एक प्रकार का "शुद्धीकरण" अभियान है। एक ऐसा शुद्धीकरण जिससे गुजरने के बाद एक मुकम्मल मुसलमान पैदा हो जाता है। दुर्भाग्य बस इतना हो गया है कि इस "शुद्धीकरण" का सबसे ज्यादा फायदा कट्टरपंथी उठा रहे हैं और शुद्ध इस्लाम और सच्चे मुसलमान का ऐसा मुगालता पैदा कर दिया गया है कि मुसलमान खुद दो पाटों के बीच फंस गया है। गालिब के शब्दों में कहें तो "इमां मुझे रोके है जो खीचें हैं मुझे कुफ्र। काबा मेरे पीछे है, कलीसा मेरे आगे।"
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