दो साल में यह तीसरा ऐसा मौका है जह "अभिव्यक्ति की आजादी" की सुरक्षा की जा रही है। पहले दादरी में। फिर हैदराबाद में और अब जेएनयू में। तीसरी आजादी की ये तीनों ही शुरुआत सोशल मीडिया से हुई फिर मुख्यधारा की मीडिया के जरिए जनता तक पहुंच गयी। अच्छा है। लोकतंत्र के लिए बहुत ही अच्छा कि अब विपक्ष की शून्यता के दौर में 'जनता' विपक्ष बन गयी है।
अभिव्यक्ति की आजादी के इन तीनों "इवेन्ट" की समीक्षा करें तो दो तीन बातें सामान्य तौर पर दिखती हैं। पहली, तीनों मुहिम के पीछे वामपंथी बुद्धिजीवी हैं। दूसरा तीनों ही इवेन्ट में मुस्लिम वामपंथी गठजोड़ है और तीसरा तीनों ही इवेन्ट वैचारिक विरोधी सरकार को प्रैक्टिकल ग्राउण्ड पर घेरने की बजाय आइडियोलॉजिकल ग्राउण्ड पर घेरने की कोशिश है। हालांकि विरोध क्रमश: मजबूत होने की बजाय कमजोर हुआ है क्योंकि दादरी का जितना जोर था, उतना हैदराबाद का नहीं रहा। हैदराबाद में वे गफलत में फंस गये और जेएनयू में आकर तो उन्होंने खुद के ही पैर पर कुल्हाड़ी मार लिया। लेकिन वामपंथ के जनवादी वैचारिक विरोध के तीसरे इवेन्ट में ही हवा क्यों निकल गयी? हालात अभिव्यक्ति की आजादी से भारत की बर्बादी तक कैसे पहुंच गये, आइये थोड़ा समझते हैं।
याद करिए मिडिल इस्ट का वह स्वर्णकाल जब सोशलिस्ट मूवमेन्ट ने ईरान, इराक, सीरिया अफगानिस्तान और मिस्र को इतना प्रगतिशील बना दिया था कि पश्चिम भी उनके आगे पानी भरता था। लेकिन फिर सत्तर के दशक से पासा पलट गया। शुरुआत 'ईश्वर के अंश' खोमैनी ने की लेकिन समय और राजनीति की करवटों ने अदलते बदलते समूचे मिडिल इस्ट को बीसवीं सदी से खींचकर दोबारा दो सौ साल पीछे खड़ा कर दिया।
बाथिस्ट सोशलिस्ट मूवमेन्ट को अमेरिका और सऊदी अरब की जोड़ी ने उखाड़कर फेंक दिया। एक सीरिया बच गया था उसे भी बर्बाद किया जा रहा है। मिडिल इस्ट के प्रगतिशील सोशलिस्ट रेडिकल इस्लामिस्ट बन गये और अब उसी के लिए जंग लड़ रहे हैं कभी जिसके खिलाफ खड़े हुए थे।
इधर भारत में वही हुआ लेकिन तरीका जरा अलग था। यहां कम्युनिस्ट विचारधारा पर इस बात का कोई दबाव नहीं था कि वे रेडिकल इस्लाम को कबूल करते लेकिन आजादी के बाद की शुरूआती नाकामियों ने उन्हें शायद मजबूर कर दिया होगा कि वे सेकुलरिज्म के आदर्श को वोटबैंक की तरह इस्तेमाल करें। इसलिए स्टेट का सेकुलरिज्म उन्होंने पॉलिटिक्स आइडियोलॉजी बना दिया और सरकार से नहीं बल्कि राजनीतिक दलों को सेकुलर और कम्युनल में चिन्हित करना शुरू कर दिया। दिखाने के लिए तो यह काम हिन्दूवादी दल या संगठन के खिलाफ था लेकिन उनके इस काम के मूल में कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति काम कर रही थी। वामपंथ के इस सेकुलर तुष्टीकरण से मुस्लिम वोटबैंक सधता था लिहाजा समूचे उत्तर भारत में हर छोटे बड़े दल ने इसे अपना लिया।
तो जिस सेकुलर तुष्टीकरण का इस्तेमाल वामपंथी अपना वोटबैंक बढ़ाने के लिए करना चाहते थे वह भी उनके हाथ से निकल गया। लेकिन तब तक वामपंथी दलों, छात्र संगठनों, वैचारिक समूहों ने मुस्लिम तुष्टीकरण को सेकुलरिज्म के बतौर इतना स्थापित कर दिया था कि वे अब पीछे नहीं लौट सकते थे। नब्बे के दशक की राजनीति बड़ी सफलता से उन्होंने इसी एक गलतफहमी के सहारे संचालित की। लेकिन जैसा कि प्रकृति का नियम है अतिवाद विपरीत को आकर्षित करता है वैसा ही वामपंथियों के मुस्लिम तुष्टीकरण के साथ भी हुआ। जिस "फासीवाद" और "कम्युनल" आइडियोलॉजी के खिलाफ मुस्लिम तुष्टीकरण को राजनीतिक विचारधारा बना़या वह फासीवाद इन्हीं के लिए भस्मासुर बन गया। पहली बार केन्द्र में उनकी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बन गयी।
तब से अब तक लगातार वामपंथ वैचारिक विपक्ष के रूप में सक्रिय है। और वह आनेवाले समय में भी निष्क्रिय नहीं होगा। पर सवाल यह है कि क्या वामपंथ वैचारिक पुनर्जागरण कर रहा है या फिर अपने ताबूत में आखिरी कील मार रहा है? पुनर्जागरण की गुंजाइश जरूर रहती लेकिन वामपंथ वैचारिक अतिवाद के ऐसे पायदान पर जा खड़ा हुआ है जहां उसके साथी के रूप में सिर्फ रेडिकल लोग ही बचे हैं। फिर चाहे वो रेडिकल इस्लाम हो कि रेडिकल ईसाईयत। भारत में आज वामपंथ मुस्लिम तुष्टीकरण से भी आगे निकलते हुए वहाबियत का सबसे बड़ा राजनीतिक पैरोकार बन गया है। वही बहावियत जिसने मिडिल इस्ट से सोशलिस्ट मूवमेन्ट को उखाड़कर फेंक दिया।
भले ही मिडिल इस्ट में बहावियों ने सोशलिस्टों के सामने नस्लीय संकट पैदा कर दिया हो लेकिन यहां वामपंथी खुद ही बहावियों के साथ गठजोड़ करके अपने अस्तित्व को खतरे में डाल रहे हैं। लेकिन वामपंथ अभी ऐसी कोई भी बात कहने पर उसे नकार देगा। यह बात उनको उस दिन समझ आयेगी जिस दिन विचार करने के लिए भरी सभा में वह अकेला रह जाएगा। तब तक अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की बर्बादी का उनका पसंदीदा "कैण्डीक्रश सागा" खेल जारी रहेगा। उन्हें कभी यह समझ नहीं आयेगा कि चाहे जितने "इन्वीटेशन" भेज दें वे लोग यह खेल नहीं खेलना चाहते जिनके नाम पर ये खेलना चाहते हैं।
(जेएनयू में भारत की बर्बादी का नारा लगानेवाला आरोपी नौजवान उमर खालिद)
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