गूगल की एक महत्वाकांक्षी परियोजना है आर्टीफिसिएल इन्टेलिजेन्स प्रोजेक्ट। वर्चुअल टेक्नॉलाजी हमें जहां ले जा रही है उसका भविष्य। गूगल अब जिस अल्फाबेट कंपनी का हिस्सा है उसका एक हिस्सा बोस्टन डायनमिक्स है। बोस्टन डॉयनामिक्स ऐसे मशीन तैयार कर रहा है जिसमें इंसानों की तरह सोचने समझने और निर्णय लेने की काबिलियत पैदा की जा सके। कुछ कुछ वैसा ही जैसा हॉलीवुड की साइंस फिक्शन फिल्मों में दिखता है। वह स्काईनेट जो आर्नाल्ड की फिल्मों में कल्पना था उसे हकीकत बनाने पर काम चल रहा है।
और यह काम करनेवाला अकेला गूगल नहीं है। अमेरिका की टेसला मोटर्स गाड़ियों को सुपर इंटेलिजेन्ट बनाने के लिए उनमें दिमाग भर रहा है तो बीएमडब्लू, मर्सिडीज और फॉक्सवैगन जैसी यूरोपीय कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। और भी न जाने कहां कहां क्या क्या प्रयोग किये जा रहे हैं। घर में। दफ्तर में। फील्ड में हर जगह अलग अलग कंपनिया हर जगह इस आर्टीफिशिएल इंटेलीजेन्स के प्रयोग कर रही हैं। इसकी एक झलक मोबाइल फोन में फिंगरप्रिंट स्कैन तकनीकि या फिर कम्यूटर लैपटॉप में फेस रिकॉग्निशन है जहां मशीन इस बात का निर्णय लेती है कि आप उसका इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं।
लेकिन मसला ये सब नहीं है। इस पर बात करने के लिए तो बहुत कुछ लिखना समझना पड़ेगा। फिलहाल मसला है यह एक शब्द। आर्टीफिसिएल इन्टेलिजेन्स। अभी तक इन्टेलीजेन्स पर मनुष्य का एकाधिकार था। भारतीय शास्त्र कहते हैं कि खाना, पीना, सोना और मैथुन करना तो पशु पक्षी भी करते हैं। मनुष्य इन सबसे अलग इसलिए है क्योंकि उसके पास बुद्धि है। इन्टेलीजेन्स हैं। इस बुद्धि के दो हिस्से हैं। पहला है विवेक और दूसरा है स्मृति। विवेक हमें सही गलत की पहचान करने की ताकत देता है तो स्मृति हमें पहल करने के लिए प्रेरित करता है। बुद्धि की जटिल संरचना में यह दो ऐसे कार्य हैं जिसे हम आसानी से समझ सकते हैं। तो क्या व्यक्ति के उस इन्टेलिजेन्स को चुनौती मिलनेवाली है?
मिलनेवाली नहीं है। मिल चुकी है। जैसे जैसे तकनीकि बढ़ रही है व्यक्ति का इंटेलीजेन्स घट रहा है। बुद्धि के दोनों हिस्सों स्मृति और विवेक दोनों कमजोर हो रहे हैं जिसका सीधा असर उसके व्यक्तित्व पर पड़ रहा है। बीसवीं सदी का आदमी अगर ज्यादा सुविधा संपन्न होने के बावजूद उन्नीसवीं सदी के आदमी से ज्यादा कमजोर था तो इक्कीसवीं सदी का आदमी बीसवीं सदी के मुकाबले ज्यादा सूचना और जानकारी होने के बाद मानसिक रूप से कमजोर हो रहा है। एक सूचनाग्रस्त दिमाग की स्मृति बहुत सीमित होती जा रही है। जो जितना अधिक तकनीकि के संपर्क में उसका इंटेलीजेन्स उतना कमजोर। होना चाहिए था उल्टा। लेकिन सूचनाग्रस्त आदमी का 'इंटेलीजेन्स' बढ़ने की बजाय कम कैसे हो गया?
तकनीकि का यह गंभीर पहलू है जिस पर कंपनियां नहीं सोचेंगी लेकिन नये दौर के मानवशास्त्र और समाजशास्त्र को इस बारे में सोचना होगा। क्योंकि यह मनुष्य द्वारा मनुष्य के मष्तिष्क पर किया गया अब तक का सबसे भीषण हमला है।
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