बात 1986 की है जब भारत की राजीव गांधी सरकार ने स्वीडेन की बोफोर्स कंपनी के साथ 410 बोफोर्स होवित्जर तोप खरीदने का फैसला किया। सौदे के कुछ समय बाद ही स्वीडिश रेडियो ने खबर दी कि बोफोर्स तोप सौदे में कंपनी ने भारतीय हुक्मरानों को दलाली दिया है। तोप का सौदा हो चुका था और तोप भारत लायी भी गयी लेकिन आते आते अपने साथ राजीव गांधी सरकार को भी ले गयी।
दस साल का समय बीत गया। बोफोर्स दलाली के दलदल से उपजे ईमानदारी के मसीहा वीपी सिंह भी अतीत हो गये। बोफोर्स छाप ईमानदारी के जिस आधार पर भाजपा ने वीपी सिंह सरकार को समर्थन दिया था उनकी सरकार आ गयी। कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ बीजेपी सरकार के गले में अटक गयी। तब उसी बोफोर्स ने बीजेपी सरकार के हलक से कारगिल का कांटा निकालने में सबसे ज्यादा मदद की जिसे कभी बीजेपी ने वीपी सिंह की अगुवाई में कांग्रेस के गले में अटकाया था।
कारगिल वार खत्म हुआ। तब सेना को लगा कि बोफोर्स ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया है इसलिए सेना के पहाड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए और अधिक होवित्जर तोपों की खरीदारी करनी चाहिए। 2001 से कोशिश शुरु हुई और 2009 तक जारी रही लेकिन बेफोर्स का भूत इतना हावी था कि कोई निर्णय नहीं हो सका। आखिरी कोशिश यूपीए सरकार की तरफ से 2010 में हुई लेकिन बात नहीं बनी। कारण? सेना की जरूरतों के मुताबिक सिर्फ एक कंपनी क्वालिफाई कर रही थी। ब्रिटेन की बीएई सिस्टम्स। लेकिन दिक्कत यह थी कि यह बीएई सिस्टम्स सरकार के ब्लैक लिस्टेड कंपनी के दायरे में आ चुकी थी। क्यों? क्योंकि अब बीएई सिस्टम्स स्वीडन की बोफोर्स कंपनी की मालिक थी। इसलिए अगर बीएई को आर्डर दिया जाता है तो फिर बोफोर्स डाल पर बैठ जाएगा। लिहाजा सिंगल वेन्डर की मजबूरी दिखाकर टेन्डर रद्द कर दिया गया।
लेकिन सरकार के तोप खरीदारी की इसी उधेड़बुन में एक बात और पता चली कि बोफोर्स तोप सौदे के साथ तकनीकि हस्तांतरण का समझौता भी हुआ था जो बोफोर्स के भूत के डर से गर्द में फेंक दिया गया था। झाड़ पोछकर उस तकनीकि हस्तांतरण वाले मसौदे से बोफोर्स तोप से बेहतर स्वदेशी होवित्जर तैयार करने का डीसीजन लिया गया। डीआरडीओ को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी। डीआरडीओ ने दो प्राइवेट कंपनियों को साथ लिया, भारत फोर्ज और लार्सन एण्ड टुब्रो। तेजी से काम किया और 2013 तक बोफोर्स से ज्यादा बेहतर 'धनुष' होवित्जर तोप तैयार कर लिया। सेना की तरफ से 114 होवित्जर तोपों का आर्डर भी दे दिया गया जिसकी आपूर्ति भी डीआरडीओ द्वारा शुरू की जा चुकी है। डीआरडीओ धनुष का उन्नत संस्करण (52 कैलिबर) डेवलप कर रहा है जिसके बाद उम्मीद है कि सेना कुल 450 होवित्सर तोप डीआरडीओ से खरीद कर अपनी सचल तोप जरूरत को पूरी कर सकेगा।
यह तो रही 2015 की कहानी। अब आइये 2016 में। केवल सचल तोप से सेना की जरूरतें पूरी नहीं होती। सरकार सेना की एक माउण्टेनरी डिविजन विकसित कर रही है जो पहाड़ी सीमा की सुरक्षा और चीन तथा पाकिस्तान की तरफ से किसी युद्ध की स्थिति के लिए तैयार रहेगी। सरकार इस डिविजन को तैयार करने पर 70 हजार करोड़ रूपये खर्च कर रही है। इस डिवीजन के लिए जिस अल्ट्रालाइट तोप की जरुरत है जिन्हे हेलिकॉप्टर के जरिए यहां से वहां ले जाया जा सके। वह एम-777 तोप अमेरिका से खरीदने का निर्णय किया गया है। वर्तमान भारत सरकार ने उसी बीएई सिस्टम से 145 अल्ट्रा लाइट होवित्जर तोप खरीदने का समझौता कर लिया है जो बोफोर्स की पैरेण्ट कंपनी है। इस समझौते में भारत की किसी सरकारी कंपनी को शामिल करने की बजाय बीएई को अधिकार दिया गया है कि वह भारत में किसी प्राइवेट कंपनी को अपना हिस्सेदार बना सकती है। बीएई ने महिन्द्रा डिफेन्स को अपना भारतीय साझीदार बनाया है जो तोप के निर्माण में मदद के साथ साथ रख रखाव और मरम्मत की जिम्मेदारी उठायेगा। तोप का कारखाना भारत में लगेगा जरूर लेकिन सारा सामान बीएई सिस्टम बाहर से सप्लाई करेगा। उम्मीद है कि उत्पादन में तीस फीसदी हिस्सा लोकल रखा जाएगा।
अब सवाल यह उठता है कि घूमफिरकर अगर बोफोर्स की डाल पर ही बैठना था तो पंद्रह साल की देरी क्यों की गयी? रक्षा सौदों में ईमानदारी और पारदर्शिता अच्छी बात है लेकिन ऐसी ईमानदारी का क्या मतलब जैसा बोफोर्स और आगस्टा वेस्टलैण्ड सौदे में जबर्दस्ती दिखाने की कोशिश की गयी? कई बार रक्षा सौदों में दलाली से उतना नुकसान नहीं होता जितना इस ईमानदारी के तमाशे से होता है। बोफोर्स और आगस्टा वैस्टलैंड इसकी बहुत कड़वी नजीर हैं।
(चित्र: स्वदेश में निर्मित पहली होवित्जर तोप धनुष जिसका उत्पादन शुरू किया जा चुका है।)
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