मौत से दुखद घटना दूसरी कोई नहीं होती लेकिन जवान की मौत हो जाए तो वह मौत बहुत दर्दनाक होती है। अगर यह मौत आत्महत्या हो तो इस दुख की कोई परिभाषा नहीं की जा सकती। देख सुनकर आप निशब्द रह जाते हैं लेकिन उस दुख को कौन सा नाम दें जो किसी ऐसी असह्य मौत पर विचारधाराओं के राजनीति का तांडव करती हो?
रोहित की मौत ऐसी ही त्रासदी है। एक होनहार और संवेदनशील नौजवान ने आत्महत्या कर ली। एक ऐसा नौजवान जो साहित्य सृजन करना चाहता था। उस आखिरी चिट्ठी को पढ़िये जो उसने जाने से पहले लिखा है। हर शब्द से संवेदनशीलता छलकती है। हालांकि उन्होंने यह नहीं लिखा है कि वे आत्महत्या किस विशेष कारण से कर रहे हैं और न ही किसी को दोषी ठहराया है।
यह काम विचारधारा वााले कर रहे हैं और उन्हीं रोहित के नाम पर जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। उन्होंने आत्महत्या इसलिए की क्योंकि उन्हें विश्वविद्यालय के छात्रावास से निकाल दिया गया था। क्यों निकाल दिया गया था इस बहस में जाने की जरूरत नहीं है लेकिन उनकी चिट्ठी से इस बात का कोई संकेत नहीं मिलता है कि उन्हें विश्वविद्यालय से निकाला गया इसलिए वे आत्महत्या कर रहे हैं। उन्होंने इस बात का भी कहीं कोई जिक्र नहीं किया है कि किसी व्यक्ति या समूह विशेष के व्यवहार से पीड़ित थे। उनकी चिट्ठी से जो ध्वनि निकलती है वह यह कि वे हताश हैं और निराशा के किसी ऐसे मुकाम पर हैं जहां से आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। वे लिख रहे हैं "मैं इस वक्त पीड़ा में नहीं हूं. मैं दुखी नहीं हूं. मैं बस खाली हो गया हूं. अपने बारे में चिंताविहीन. यह बहुत शोचनीय बात है. और इसी वजह से मैं ऐसा कर रहा हूं."
सचमुच वह बहुत भयावह स्थिति होती जब आप जिन्दगी में खाली हो जाते हैं, अकेले पड़ जाते हैं या फिर बेमतलब बन जाते हैं। अपने पत्र में वे लिखते भी हैं कि " मेरा जन्म मेरे लिए घातक हादसा है. मैं कभी अपने बचपन के अकेलेपन से उबर नहीं पाया. भूतकाल में मैं कभी प्रोत्साहित न किया जाने वाला एक बच्चा था।" यहां से आगे का एक रास्ता नयी सुबह होने का इंतजार करता है तो दूसरा रास्ता मौत के अंधे कुएं की तरफ खींचकर ले जाता है। हालात चाहे जो रहे हों रोहित ने नयी सुबह को देखने का इंतजार नहीं किया। तो क्या वे विश्वविद्यालय से निकाले जाने के कारण तन से ही नहीं, मन से भी खुले आसमान के नीचे आ गये थे जहां कोई सहारा न बचा था?
उनके विश्वविद्यालय से निकाला जाना एक कारण हो सकता है लेकिन यही एकमात्र कारण रहा होगा यह समझ पाना मुश्किल है। उनकी बेहद संवेदनशील बातों का सिरा जिस निराशा से जुड़ता है वह वैचारिक तिरस्कार से ज्यादा जीवन में प्यार के अभाव का इशारा करता है। अपने आखिरी पत्र में वे ऐसी पंक्ति भी लिख रहे हैं जो बहुत महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं "हमारी मौलिकताएं कृत्रिम कलाओं द्वारा स्वीकृत हैं. सच में यह असंभव हो गया है कि किसी को बिना दुख पहुंचाये भी उसे प्यार किया जा सके." आखिर वह कौन है जिसे रोहित का प्यार भी दुख पहुंचा रहा था? क्या यह समाज? विचारधारा या फिर कोई व्यक्ति?
उनका पत्र पढ़कर इतना तो साफ समझ आता है कि वे संवेदना के सागर थे। वे किसी विचारधारा में सीमित रह जानेवाली संभावना नहीं थे। उनकी कल्पनाओं का आकाश अनंत था और किसी मान्यता के दायरे में बंधे हुए व्यक्ति नहीं थे न ही किसी मान्यता को अंतिम समझने वाले थे। समाज में फैली हुई या फैलायी गयी किसी भी धारणा और मान्यता को खारिज करते हुए वे लिखते हैं " हमारी भावनाएं सेकेंड हेंड हैं. हमारा प्यार गढ़ा हुआ है। हमारी मान्यताएं रंग-रोगन वाली हैं।" यह किसी संवेदनशील व्यक्ति की गहराई का चरम है।
लेकिन रोहित की मौत के बाद जिस तरह से वितारधारा का खेल खेला जा रहा है और एक संवेदनशील सरस हृदय नौजवान की मौत को किसी खास वर्ग और समुदाय के खिलाफ साजिश बताया जा रहा है यह उस अकाल मौत को काल कलवित कर रहा है। रोहित की आखिरी चिट्ठी को गौर से पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि वे दलित विचारधारा के दायरे में बंधे हुए नौजवान नहीं थे भले ही वे उस विचारधारा के बीच रहकर काम कर रहे हों। निश्चित रूप से वे एक उन्मुक्त जीव थे और ऐसे लोग किसी विचारधारा के दायरे में बंधने की बजाय सत्य को समग्रता में समझने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोगों की क्षति किसी विचारधारा की क्षति नहीं और न ही मुद्दा होता है। यह मानवता की क्षति है। समूची इंसानी प्रजाति की क्षति जिसकी कोई पूर्ति नहीं हो सकती। किसी कीमत पर नहीं। किसी सूरत में नहीं।
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