जिन तालिबों को कभी पाकिस्तान ने बंदूकें थमाकर अफगानिस्तान जंग करने के लिए भेजा था, अब उन्हीं बंदूकधारी तालिबानों को बातचीत की टेबल पर बुलाना चाहता है। बुलाना क्या चाहता है, बुला लिया है। शुरूआत घर से की गयी और नवाज शरीफ की नयी सरकार बनने के बाद 2014 में तालिबान और पाकिस्तान सरकार के बीच जो बातचीत शुरु हुई थी अब उसे अफगानिस्तान तक पहुंचा दिया गया है।
तालिबान से बात करने के लिए जिन चार देशों का स्वर्णिम चतुर्भुज बना है उसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान और अमेरिका के स्वाभाविक किरदारों से अलहदा एक चौथा किरदार भी शामिल किया गया है, चीन। संभवत: अफगानिस्तान के खनन कारोबार में उतरे चीन को इसलिए शामिल किया गया है कि बातचीत की टेबल पर महाशक्तियों का क्षेत्रीय संतुलन बनाकर रखा जाए। लेकिन इस बातचीत से भारत को दूर रखा गया है।
पाकिस्तान ने घर में जिस तालिबान से बातचीत शुरु की थी उसमें मौलाना शमी उल हक और मौलाना अजीज शामिल थे जो कि क्रमश: दारुल उलूम हक्कानिया और लाल मस्जिद के चीफ आफ कमांड हैं। ये सभी वार्ताकार किसी दौर में तालिबान पैदा करने की फैक्ट्री चलाते रहे हैं और आज भी उनका मकसद लोकतंत्र नहीं बल्कि इस्लामिक शरीया और खलीफा का शासन है। अपनी बातचीत में वे शायद ही शरीया और जिहाद से पीछे हटें। फिर सवाल ये है कि बातचीत के लिए पाकिस्तान यह स्वर्णिम चतुर्भुज बनाकर चाहता क्या है?
तालिबान के लिए अफगान सत्ता में हिस्सेदारी। जो मुकाम पाकिस्तान मुल्ला उमर के जरिए जंग के मैदान में हासिल करके गंवा चुका है अब वही काम वह वार्ता की टेबल पर करना चाहता है। पाकिस्तान को पंजाबी तालिबानों से आज भी कोई परेशानी नहीं है क्योंकि वे इंडिया के खिलाफ इस्तेमाल होते हैं लेकिन उसकी समस्या हैं वे अफगानी तालिबान जो आईएसआई के नियंत्रण से बाहर चले गये हैं। यही तालिबान पाकिस्तान के लिए दोहरा संकट है। एक तरफ जहां वह इन अफगानी तालिबानों के खिलाफ देश के भीतर जर्ब-ए-अज्ब की जंग लड़ रहा है तो दूसरी तरफ वह बातचीत के जरिए जहां पाकिस्तान के अफगान इलाकों में शांति प्रयास करना चाहता है तो दूसरी तरफ अफगानिस्तान में उन्हें सत्ता का हिस्सेदार बनाना है।
इस पूरी कवायद के पीछे पाकिस्तान हर लिहाज से सिर्फ अपना हित साधना चाहता है। अपनी ऐतिहासिक गलतियों सुधारने की बजाय सिर्फ पैबंद लगाकर वह समस्याओं को सुलझाना चाहता है। पाकिस्तान की तरफ से जिस तरह की चालाकियां दिखाई दे रही हैं उससे लगता नहीं है कि बातचीत की इस टेबल पर किसी का पेट भरेगा।
(फोटो: अफगान बार्डर पर सुरक्षा करता अफगान जवान)
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