शायद यही होना था जो हुआ। कबीरपंथी संत रामपाल
की अदालत से अदावत इतनी मंहगी पड़ जाएगी यह संत रामपाल ने सपने में भी
नहीं सोचा होगा। आखिरकार पुलिस प्रशासन ने अदालत के सामने अपनी लाज बचाने
के लिए वह सब कुछ किया जो सामान्य परिस्थितियों में शायद कभी न करती। अदालत
के एक सम्मन के सम्मान में तीस हजार की तादात में सुरक्षाबलों की तैनानी,
आला अधिकारियों का जमावड़ा, लाठी डंडा, आंसू गैस, जेसीबी, क्रशर, बस गाड़ी
और एम्बुलेन्स सबकुछ का इंतजाम करते हुए आखिरकार संत रामपाल तक पहुंचने में
पुलिस कामयाब हुई और संत रामपाल ने भी इसी में भलाई समझी कि अब और खून
खराबा करवाये बिना वे कानून के सामने आत्मसमर्पण कर दें। करीब हफ्तेभर की
दबिश के बाद बुधवार की शाम उन्होंने पुलिस के सामने समर्पण कर दिया और
पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लेकिन इस समर्पण और गिरफ्तारी ने न
सिर्फ भारत में संत परम्परा के सामने बल्कि सामाजिक व्यवस्था और कानून
व्यवस्था के सामने भी कई गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं। इन सवालों का जवाब
बिना यह जाने नहीं जाना जा सकता कि आखिर यह रामपाल हैं कौन और उन्होंने ऐसा
क्या किया है कि कानून के सामने चुनौती बनकर खड़े हो गये?
हरियाणा के दलित समाज में पैदा होनेवाले रामपाल सिंह जाटिन (जतिन, जातिन) कोई ऐसे विख्यात संत न थे कि देश की आधुनिक संत परंपरा में उनका कोई स्थान होता। सोनीपत के गोहाना तहसील में पिता नंदलाल और माता इंदिरा देवी की संतान रामपाल ने आईटीआई की डिग्री लेने के बाद हरियाणा सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर की नौकरी कर ली थी। शुरूआत में एक धर्मनिष्ठ हिन्दू की तरह वे भी हनुमान के भक्त थे और देवी देवताओं की पूजा किया करते थे। लेकिन अपनी जीवनी में संत रामपाल कहते हैं कि देवी देवताओं की पूजा करते हुए भी उन्हें वह मानसिक शांति प्राप्त नहीं हो पा रही थी जो धर्म मार्ग पर चलते हुए वे पाना चाहते थे। इसी उधेड़बुन में नब्बे के दशक में एक बार उनकी मुलाकात के एक कबीरपंथी संत रामदेवानंद से हो गयी। 1994 में रामदेवानंद से हुई इस मुलाकात के बाद रामपाल सिह के जीवन में बहुत क्रांतिकारी बदलाव आया और वे कहते हैं कि रामदेवानंद ने जो उन्हें नामजप का उपदेश किया उससे उन्हें वह मानसिक शांति प्राप्त हुई जिसकी तलाश में वे भटक रहे थे।
रामदेवानंद से मुलाकात के बाद अगले ही साल 1995 में उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह से नाम संकीर्तन और कबीर बाणी के प्रचार और प्रसार के धार्मिक कार्य में लग गये। हालांकि सन 2000 तक सरकार ने उनकी इस्तीफा मंजूर नहीं किया था लेकिन 1995 के बाद से ही वे एक कबीरपंथी संत के रूप में कबीर वाणी और आत्मज्ञान की शिक्षा देने लगे थे। 2000 में सरकार द्वारा इस्तीफा स्वीकार किये जाने से पहले संत रामपाल की इतनी अधिक मान्यता हो चली थी कि 1999 में उन्होंने रोहतक के करौंथा में एक कबीर मठ की स्थापना कर दी। सतलोक नामक इस आश्रम की स्थापना के साथ ही संत रामपाल पर विवादों का साया मंडराने लगा और जल्द ही उनके ऊपर इस बात का दबाव बनने लगा कि वे अपना आश्रम बंद कर दें। सतलोक आश्रम के खिलाफ हरियाणा में जो लोग उठ खड़े हुए थे वे आर्यसमाज से जुड़े लोग थे और उनका कहना था कि संत रामपाल आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती का अपमान कर रहे हैं और आर्य समाज की शिक्षाओं का मजाक उड़ा रहे हैं। संत रामपाल पर यह आरोप भी लगे कि उन्होंंने करौंथा में जो आश्रम बनाया है वह जबरन कब्जा की गयी जमीन पर बनाया है। हालांकि बहुत बाद में 2009 में पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट ने जमीन विवाद में फैसला देते हुए जमीन को वैध ठहरा दिया लेकिन जब तक यह फैसला आया संत रामपाल करौंथा से जा चुके थे।
करौंथा में रहते हुए संत रामपाल की ख्याति पिछड़े और दलित समाज के बीच इतनी बढ़ी कि उनके भक्त उन्हें दूध से नहलाने लगे थे और उसी दूध से खीर बनाकर प्रसाद बांटने लगे थे। रोहतक और झज्जर में उनका प्रभाव और प्रसार तेजी से फैल रहा था जो हरियाणा की अगड़ी जातियों और आर्यसमाज को शायद स्वीकार नहीं था। इसलिए 2006 में सत्यार्थ प्रकाश के अपमान के बहाने पहली बार रोहतक में संत रामपाल के खिलाफ आर्य समाज से जुड़े लोगों ने जमकर उत्पात मचाया था। उस वक्त रोहतक में कई जगह हिंसक प्रदर्शन और पत्थरबाजी हुई थी और करौंथा के आसपास रोडवेज की बसों को आग लगा दी गई थी। आश्रम के बाहर आर्यसमाज और सतलोक आश्रम के समर्थकों के बीच हुई भिड़ंत में एक नौजवान की मौत हो गयी थी जिसके
आरोप में संत रामपाल को भी हत्या का दोषी ठहराया गया था। उस वक्त संत रामपाल की गिरफ्तारी भी हुई थी लेकिन 2008 में जमानत पर छूटने के बाद संत रामपाल फिर लौटकर करौंथा नहीं गये। बरवाला चले आये और यहां नये सिरे से सतलोक आश्रम की स्थापना की।
लेकिन बरवाला में भी न तो आर्य समाज ने संत रामपाल का पीछा छोड़ा और न ही विवादों ने। धर्म और मजहब के बारे में अपनी तल्ख टिप्पणियों की वजह से लोगों को उत्तेजित कर देनेवाले रामपाल के समर्थकों और आर्य समाज के अनुयायियों के बीच 2013 में एक बार फिर भिड़ंत हुई और इस बार तीन लोगों की जान चली गयी। संत रामपाल के समर्थकों और आर्यसमाज के बीच जारी यह अदावत बढ़ते बढ़ते यहां तक पहुंच गई कि आर्य प्रितनिधि सभा किसी भी कीमत पर संत रामपाल को हरियाणा में मौजूद नहीं रहने देना चाहते थे। संत रामपाल पहले ही 2006 में हुए हत्याकांड में आरोपित थे और उनसे जुड़े मामले की सुनवाई स्थानीय अदालतों में चल रही थी। इसी सब के बीच इसी साल मई के महीने में संत रामपाल वीडियो कांफ्रेन्सिंग के जरिए कोर्ट की कार्रवाई में शामिल हुए तो उनके समर्थकों ने कोर्ट परिसर में पहुंचकर हंगामा कर दिया। इसके बाद जुलाई में चंडीगढ़ हाईकोर्ट में भी पहुंचकर समर्थकों ने हंगामा किया तो स्थानीय वकीलों ने अदालत में याचिका दाखिल करके उनके ऊपर अदालत की अवमानना का केस दाखिल कर दिया। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि स्वयं संत रामपाल अदालत के सामने हाजिर हों।
अदालत के आदेश के बावजूद संत रामपाल अदालत के सामने जाने से कतराते रहे और बीमारी का बहाना बनाते रहे। पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने अपने आखिरी आदेश में यहां तक कहा कि अगर वे अवमानना के मामले में अदालत में हाजिर नहीं होते हैं तो उनकी जमानत भी खारिज की जा सकती है, फिर भी रामपाल ने बीमारी के बहाने अदालत में पहुंचने में असमर्थता जता दी। यहीं से मामला बिगड़ गया और अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुए प्रशासन को आदेश दे दिया कि किसी भी तरह से वह संत रामपाल को अदालत के सामने हाजिर करे। अदालत से बार बार मिली फटकार का नतीजा यह हुआ कि प्रशासन ने रामपाल को गिरफ्तार करके अदालत के सामने प्रस्तुत होने के लिए अपनी सारी ताकत झोंक दी। करीब तीस हजार पुलिस और अर्धसैनिक बलों के साथ सतलोक आश्रम की घेरेबंदी कर दी तो उधर संत रामपाल भी इस जिद पर अड़ गये कि वे पुलिस द्वारा गिरफ्तार नहीं होंगे। हालांकि उनके समर्थकों का कहना है कि वे 21 नवंबर को अदालत के सामने प्रस्तुत होने के लिए पहले ही एफिडेविट लगा चुके थे लेकिन जब तक उनकी तरफ से यह किया गया मामला बहुत बिगड़ चुका था। आखिरकार पुलिस प्रशासन ने पूरी ताकत झोकते रामपाल तक पहुंचने में कामयाबी हासिल कर ली।
लेकिन जब तक यह सब हुआ सतलोक आश्रम में पांच निर्दोष जानें चली गईं। संत रामपाल की तरफ से सिर्फ अदालत के सामने ही नहीं बल्कि प्रशासन के सामने भी बहुत ही मूर्खतापूर्ण ढंग से अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया गया। काले कपड़ों में आश्रम की चारदीवारी पर खड़े नौजवान हों कि आश्रण के बाहर भीतर मौजूद उनके भक्त उन सबने यही संदेश दिया कि वे सीधे सीधे कानून व्यवस्था को चुनौती दे रहे हैं। जाहिर है, अगर ऐसा होता है तो कानून किसी भी कीमत पर न्याय की सर्वोच्चता कायम करने के लिए बाध्य है। और प्रशासन ने वही किया। इसलिए इस पूरे मामले में अगर कुछ हद तक प्रशासन की कार्रवाई अतिरंजित लगती है तो कुछ हद तक संत रामपाल का मूर्खतापूर्ण व्यवहार भी समझ से परे है। अपने हठ में उन्होंने वह सबकुछ नष्ट कर दिया जिसे जोर जबर्दस्ती करके बचाना चाहते थे। अगर अदालत के आदेश की अवमानना करने की बजाय वे सीधे सीदे अदालत के सामने प्रस्तुत होते तो शायद न वे खुद सलाखों के भीतर पहुंचते और न ही सतलोक आश्रम इस तरह जमींदोज हो पाता। फिलहाल पुलिस और प्रशासन की कार्रवाई ऐसी है कि अब संत रामपाल का मुसीबतों से बाहर निकल पाना बहुत मुश्किल है। कत्ल के केस के साथ साथ देशद्रोह जैसे गंभीर मामले उन्हें लंबे समय तक फिर जेल के अंदर ले गये हैं।
रामपाल के मामले में अब आगे क्या होगा, यह अदालत तय करेगी लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक बात साफ सामने आ गयी है कि दलित और पिछड़े वर्ग का धार्मिक या सामाजिक एकीकरण आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। हरियाणा और पंजाब के पिछड़े वर्ग में लोकप्रिय हो चले संत रामपाल आखिर आर्यसमाज को इतना क्यों खटक रहे थे जबकि दोनों की शिक्षाओं में आश्चर्यजनक रूप से बहुत अधिक समानता है? खटक शायद इसीलिए रहे थे कि जिन शिक्षाओं के बल पर उत्तर में अस्तित्वहीन हो चुका आर्यसमाज हरियणा में जड़ जमाए बैठा है, वह भला किसी नये पंथ को क्योंकर उभरने देता? झगड़ा वही है जो अकालियों और गुरमीत बाबा राम रहीम के बीच है। इसलिए संत रामपाल की गिरफ्तारी का स्वागत करते समय जो लोग कानून और व्यवस्था की जीत को बधाई दे रहे हैं वे यह न भूलें कि आखिरकार कानून और व्यवस्था सामाजिक हित के लिए होते हैं, अहित के लिए नहीं। रामपाल की कुछ मूर्खतापूर्ण हरकतों के लिए उन्हें दोषी कहा जा सकता है लेकिन रामपाल के नाम पर पूरे सतलोक आश्रम को जिस तरह बर्बाद किया गया है और कबीरपंथियों को ठिकाने लगाने की कोशिश की गई है उसके सामाजिक दुष्परिणाम सामने नहीं आयेंगे, इसका आश्वासन कौन देगा? आश्वासन की जरूरत भी नहीं है। सरकार, कानून और मीडिया के लिए रामपाल की गिरफ्तारी एक ''मिशन'' हो गयी थी, और गिरफ्तारी के साथ ही हरियाणा के मुख्यमंत्री ने साफ संदेश दिया कि ''मिशन पूरा हुआ''। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के इस संदेश का यह ''मिशन'' क्या सिर्फ कानून व्यवस्था के नाम पर रामपाल की गिरफ्तारी ही था? या फिर इस गिरफ्तारी के साथ ही हरियाणा के जातीय और वर्गीय समीकरण को समतल करने का कोई और मिशन था, जिसे सतलोक आश्रम को जमींदोज करके पूरा कर लिया गया है?
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