अढ़तालीस साल के सज्जाद गनी लोन फिलहाल कश्मीर
की सूबाई राजनीति में अपने आपको इतना स्थापित नहीं कर पाये हैं कि वे
कश्मीर में बनाम की राजनीति का हिस्सा हो सकें। लेकिन इस बार वे हैं। खुद
सज्जाद भी न कभी अलगाववादी नेता रहे हैं और न ही मुख्यधारा के राजनीतिज्ञ
कि कश्मीर पर बात करते समय उनका जिक्र करना जरूरी हो। लेकिन इस बार जरूरी
हैं। कश्मीर की राजनीति में अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन के दो बेटों में
से एक सज्जाद गनी लोन दूसरी बार विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में
हैं और जम्मू कश्मीर में घाटी की महज 19 सीटों पर मैदान में उतर रहे हैं।
फिर भी उनका जिक्र जरूरी है। उनके जरिए इस बार पूरे जम्मू कश्मीर का जिक्र
जरूरी है।
अब्दुल गनी लोन साठ के दशक में जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करके वापस कश्मीर लौटे तो उन्होंने कांग्रेस की राजनीति शुरू की थी। वे एक बार विधायक भी रहे लेकिन एक दशक के भीतर ही उन्हें कश्मीर की आजादी की कसक सताने लगी और उन्होंने 1978 में पीपुल्स कांफ्रेस की स्थापना कर आजादी की हिमायत शुरू कर दी। करीब डेढ़ दशक तक कश्मीर की आजादी की अलग लगाने के बाद नब्बे के दशक में उन्हें यह अहसास हो गया गया कि वे जिसे कश्मीर की आजादी कह रहे हैं वह असल में पाकिस्तान की गुलामी है। इसलिए उन्होंने अपना राजनीतिक रास्ता अलगाववादियों से धीरे धीरे अलग करना शुरू कर दिया। और इस अलगाव की पहली कीमत उन्हें चुकानी पड़ी 1996 में जब उनकी कार पर हमला हुआ और बम मारकर उन्हें मारने की कोशिश की गई। वे बच तो गये लेकिन उस हुर्रियत कांफ्रेस के निशाने पर हमेशा बने रहे जो कश्मीर की आजादी के लिए पाकिस्तान की गुलामी की हिमायत करता था।
पाकिस्तान से आनेवाले आतंकियों और आईएसआई के खिलाफ वे अपनी आवाज बुलंद करते रहे और उन्हें मेहमान आतंकी कहकर संबोधित करते रहे। शायद यही कारण है कि 2002 में जब वे मीरवाइज मोहम्मद फारुख की बरसी में शरीक होने के लिए पहुंचे तो पांच हजार लोगों के बीच आतंकियों ने पुलिस भेष में पहुंचकर उनकी हत्या कर दी। उस वक्त भी और आज भी अब्दुल गनी लोन के बेटे सज्जाद गनी लोन अपने पिता की मौत के लिए दो लोगों को जिम्मेदार मानते थे। पहला पाकिस्तान की खुफिया एजंसी आईएसआई और दूसरा कश्मीर की आजादी के पैरोकार और हुर्रियत नेता सैय्यद अली शाह गिलानी। उन्होंने सार्वजनिक रूप से गिलानी का नाम तो कभी नहीं लिया लेकिन पिता की मौत के करीब एक दशक बाद एक अखबार से बात करते हुए सज्जाद ने साफ साफ कहा कि ''मेरे पिता की हत्या सफेदपोश लोगों ने करवाई है। उन्होंने कहा कि मैंने हत्यारों के बारे में बहुत कुछ संकेत दे दिया है लेकिन अब मैं सार्वजनिक रूप से कुछ कहना नहीं चाहता। सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि अगर उन्हें रोका नहीं गया तो कश्मीर में और भी हत्याएं हो सकती हैं।" यह गिलानी के खिलाफ सज्जाद का गुस्सा ही था कि उन्होंने अपने पिता के क्रियाकर्म में गिलानी को मौजूद नहीं रहने दिया था।
पिता की हत्या के करीब छह साल बाद सज्जाद गनी लोन ने उसी पीपुल्स कांफ्रेस के जरिए अपनी राजनीतिक यात्रा दोबारा शुरू की जिसकी शुरुआत अब्दुल गनी लोन ने कश्मीर की आजादी के लिए किया था। 2008 में उन्होंने पीपुल्स कांफ्रेस की तरफ से पहली बार चुनावी मैदान में हाथ आजमाया और कुछ नहीं पाया। ऐसा स्वाभाविक भी था। कश्मीर घाटी में नेशनल कांफ्रेस और पीडीपी के मौजूद रहते पीपुल्स कांफ्रेस के लिए अपनी जगह बना पाना इतना आसान भी नहीं है। लेकिन 2008 में सज्जाद गनी लोन ने जो शुरूआत की वह राजनीतिक असफलताओं के साथ 2009 और 2014 में भी जारी रहा। वे अपने सीमित समर्थन के साथ चुनावी मैदान में डटे हुए हैं और शायद केन्द्र की सत्ता में दशकभर बाद लौटी बीजेपी को कश्मीर में ऐसे ही किसी साथी की तलाश थी जो जम्मू कश्मीर में एक दूसरे की जरूरतें पूरी कर सकें।
जम्मू कश्मीर में बीते विधानसभा चुनाव में इकाई से दहाई का आंकड़ा पार कर चुकी बीजेपी का मुख्य जोर जम्मू की 36 और लद्दाख की 4 सीटों पर ही रहा है। कश्मीर घाटी की 47 सीटों पर 'कश्मीर विरोधी' बीजेपी का कोई नामलेवा नहीं है। जम्मू कश्मीर विधानसभा में बहुमत के लिए अगर 44 सीटों का आंकड़ा जुटाना है तो बिना कश्मीर में मजबूत मौजूदगी के किसी के लिए भी सरकार बनाने का सपना पूरा कर पाना मुश्किल है। शायद यही कारण है कि बीजेपी ने सज्जाद का साथ पकड़ना जरूरी समझा। संघ के रणनीतिकारों ने सज्जाद गनी लोन से संपर्क बढ़ाया और बीजेपी के बड़े नेताओं की तरफ से बातचीत शुरू कर दी गई। जो सहमति बनी वह मिलकर चुनाव लड़ने की नहीं थी बल्कि चुनाव बाद समझौता करने की थी। यूपीए सरकार के कार्यकाल में भी दिल्ली से नजदीकी रखनेवाले सज्जाद गनी लोन के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार से वास्ता रखना इतना मुश्किल काम नहीं था। इसलिए दोनों के बीच बात बन गयी। सज्जाद गनी लोन को जम्मू कश्मीर में मुख्यमंत्री की कुर्सी दिख रही है जबकि केन्द्र की बीजेपी सरकार इस चुनाव में 'कश्मीर समस्या का समाधान' खोज रही है।
और कश्मीर समस्या का वह समाधान कुछ और नहीं बल्कि गिलानी जैसे नेताओं का राजनीतिक सफाया है जिसके लिए सज्जाद गनी लोन से बेहतर दूसरा विकल्प फिलहाल बीजेपी के पास मौजूद नहीं है। इसलिए बीजेपी ही नहीं पीएमओ भी इस बार सक्रिय होकर बाढ़ पीड़ित कश्मीर की पूरी मदद कर रहा है। अमित शाह की अगुवाई में बीजेपी के सैकड़ों रणनीतिकार और हजारों वालन्टियर जम्मू में क्लीन स्वीप करने की तैयारियों को अंजाम दे रहे हैं। बीते विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार सज्जाद की पीपुल्स कांफ्रेस को भी घाटी में बेहतर समर्थन मिल रहा है। अगर इस चुनाव में सज्जाद गनी लोन का 'शेर' घाटी में दहाड़ता है और बीजेपी अपने 'शेर' के सहारे जम्मू में क्लीन स्वीप का झाड़ू लगा देती है तो इस बात की पूरी संभावना है कि हुर्रियत कांफ्रेस का हिस्सा रहे कुछ और लोग इस नयी राजनीति में हिस्सेदारी शुरू कर देंगे जो गिलानी की पाक परस्त नीतियों से त्रस्त हैं। कहने की जरूरत नहीं कि इन त्रस्त लोगों में एक बड़ा नाम उन मीरवाइज उमर का भी है जिनके पिता की बरसी के दिन सज्जाद गनी लोन के पिता की कुर्बानी ले ली गयी थी।
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