याद करिए कांग्रेस और वामपंथी दलों की
जबर्दस्त खेमेबंदी के बीच भाजपा की वह पहली सरकार जिसकी तेरहवें दिन तेरही
हो गयी थी। बहुत जोड़ जुगाड़ करने के बाद भी बीजेपी 200 से ज्यादा सांसदों
का समर्थन जुटाने में नाकामयाब रही। अटल बिहारी वाजपेयी ने तेरहवें दिन
शंकर दयाल शर्मा को यह कहते हुए अपना इस्तीफा सौंप दिया कि उनके पास जरूरी
समर्थन नहीं है इसलिए विश्वासमत हासिल करने के लिए सदन के भीतर जाने की
जरूरत नहीं है। घोर सांप्रदायिकता के कलंक से जूझकर उभरती भाजपा के पास 161
सांसद थे, और पहली बार वह देश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।
राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा की मजबूरी थी कि वे भाजपा के नेता को
प्रधानमंत्री की शपथ लेने के लिए बुलाते। उन्होंने बुलाया। बतौर नेता अटल
बिहारी वाजपेयी गये और उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली यह जानते हुए भी
कि वे किसी भी कीमत पर 272 सांसदों का समर्थन हासिल नहीं कर सकते। क्यों
किया उन्होंने ऐसा? और आज उसका जिक्र करने की जरूरत क्यों है?
राष्ट्रपति के पास मिलने जाने से पहले अटल बिहारी वाजपेयी ने कुछ नजदीकी लोगों से सलाह मशविरा किया था और कुछ लोगों ने उन्हें बिन मांगे सलाह भी दिया था। कमोबेश सबकी राय यही थी कि समर्थन के अभाव में सत्ता पर दावा नहीं करना चाहिए। लेकिन आखिरकार लालकृष्ण आडवाणी के साथ वे रायसीना रोड के अपने घर से निकले और सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी संभवत: यह जानते थे कि सत्ता को छूकर ही सत्ता तक पहुंचने का मार्ग निकाला जा सकता है। और हुआ वही। भले ही इसे लोगों ने अटल बिहारी वाजपेयी का प्रधानमंत्री पद का मोह बताया हो लेकिन उनके निर्णय ने उनका साथ दिया और देश में उनके प्रति एक ऐसी सद्भावना पैदा हुई कि पहले 13 महीने और फिर पूरे पांच साल की सरकार बनाने चलाने का मौका दिया। इन पांच सालों में अटल सरकार की उपलब्धियां और पार्टी की नीतियां एक तरफ लेकिन इन्हीं पांच सालों में बीजेपी को सत्ता का पहला सफल सौदागर हासिल हुआ। प्रमोद महाजन। प्रमोद महाजन ही वह शख्स थे जिन्होंने सत्ता को मैनेजमेन्ट माना और अटल बिहारी वाजपेयी के मना करने के बावजूद समय से पहले चुनाव करवाने का निर्णय लिया। मीडिया मैनेजमेन्ट के जरिए देशभर में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और नतीजा यह हुआ कि आनेवाले एक दशक के लिए बीजेपी सत्ता से बाहर हो गयी।
आपके पतन की शुरूआत तब नहीं होती जब आप नीचे गिर रहे होते हैं बल्कि उसकी शुरूआत उसी वक्त से हो जाती है जब आप अपने उत्थान के चरम पर होते हैं। प्रकृति के इस शास्वत नियम से बीजेपी भी अछूती न रह सकी और महाराष्ट्र में शरद पवार का समर्थन लेकर सत्ता के लिए अपने वैचारिक पतन का ऐलान कर दिया है।
एक तरफ नेता अटल बिहारी वाजपेयी का वह निर्णय था जिसने अल्पमत को समय के साथ बहुमत में तब्दील कर दिया और दूसरी तरफ प्रमोद महाजन का वह निर्णय था जिसने एनडीए के बहुमत को अल्पमत में तब्दील कर दिया। समय बीतने के साथ बीजेपी राज्यों से भी हाथ धोती गई और केन्द्र में भी उसके सदस्यों की संख्या में गिरावट ही दर्ज होती रही। इसे पहली बार पूर्ण बहुमत का दर्जा दिलवाया नरेन्द्र मोदी ने जब 2014 के आम चुनाव में कांग्रेसमुक्त भारत के नारे को उन्होंने एक आंदोलन बना दिया। कभी आपातकाल के आंदोलनकारी रहे नरेन्द्र मोदी के जेहन में गैर कांग्रेसवाद कुछ उसी तरह भरा होगा जैसे उस वक्त के इंदिरा विरोधियों के जेहन में आज भी मौजूद दिखाई देता है। लेकिन इस बार वे गैर कांग्रेसवाद की बजाय कांग्रेस मुक्त भारत का निर्माण करने का संकल्प दोहरा रहे थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी का यह वैचारिक अभियान व्यावहारिक धरातल पर बिल्कुल वैसा ही था, नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस छोड़कर आये नेताओं को बड़ी संख्या में बीजेपी का टिकट दिया गया और एक अनुमान के मुताबिक इस साल बीजेपी के टिकट पर जो सांसद चुनकर आये हैं उनमें करीब 110 सांसद ऐसे हैं जिनका अतीत कांग्रेसी रहा है।
यह कांग्रेस का अतीत लिए नेताओं का कमाल था कि नरेन्द्र मोदी के नारे का लेकिन केन्द्र में बीजेपी ने अकेले बहुमत का वह आंकड़ा हासिल कर लिया जो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में संभव नहीं हो पाया था। जाहिर है, नरेन्द्र मोदी जीत हार के आंकड़ों के मामले में अटल बिहारी वाजपेयी से भी दो कदम आगे निकल गये। लेकिन आगे निकलने की इसी होड़ में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी ने वह सब भी करना शुरू कर दिया जो छह महीने के भीतर ही उनकी बीजेपी को सुपर कांग्रेस में तब्दील करने लगी। हरियाणा में राव इंद्रजीत सिंह, वीरेन्द्र सिंह हों कि अब महाराष्ट्र में शरद पवार। जिन लोगों के खिलाफ बीजेपी खड़ी हो रही है उन्हीं लोगों को अपने यहां सम्मान की जगह भी दे रही है। समर्थन ले रही है और मंत्री भी बना रही है। तब सवाल यह उठता है कि क्या यह बीजेपी उसी जनसंघ से उपजी बीजेपी है जिसकी आधारशिला कभी उन दीनदयाल उपाध्याय ने रखी थी और राजनीति को सत्ता संघर्ष से ज्यादा वैचारिक संघर्ष मानते थे। हो सकता है आज भारतीय जनता पार्टी के नये गुजराती संस्करण में ऐसे वैचारिक संघर्ष के लिए कहीं कोई जगह नहीं हो लेकिन अभी तक बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता अपनी इसी विशिष्टता के कारण दूसरों से अलग होने का दावा करते थे। अब उनके सामने सचमुच बड़ा संकट होगा कि वे सत्ता के लिए विचार त्यागें कि विचार के लिए सत्ता। मोदी शाह की बीजेपी में दोनों का साथ रह पाना तो संभव नहीं है।
विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने महाराष्ट्र में शरद पवार की जमकर निंदा की थी और खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनकी पार्टी को नेचुलर करप्ट पार्टी का दर्जा देते हुए न सिर्फ कांग्रेस बल्कि एनसीपी के खिलाफ भी जनसमर्थन हासिल किया था। लेकिन सत्ता के समीकरण में शिवसेना को किनारे करने के चक्कर में आखिरकार बीजेपी ने उन्हीं शरद पवार से मौन समर्थन लेना स्वीकार कर लिया जिन्हें भ्रष्ट बताकर जनादेश हासिल किया था। यह कुछ कुछ वैसा ही हुआ जैसे केजरीवाल के साथ दिल्ली में हुआ था। यह सच है कि केजरीवाल समर्थन मांगने कांग्रेस के पास नहीं गये थे लेकिन कांग्रेस ने उन्हें खत्म करने के लिए जबर्दस्ती समर्थन दे दिया था। तब से लेकर अब तक अरविन्द केजरीवाल चाहे जितनी सफाई देते रहें लेकिन खुद भारतीय जनता पार्टी ने ही इसे सबसे बड़ा मुद्दा बना दिया। और यह मुद्दा था भी। राजनीति में जिसकी बुराईयों के खिलाफ आप जनता का समर्थन हासिल करते हैं सत्ता हासिल करने के लिए उसी का समर्थन कैसे ले सकते हैं? यह तो सीधे सीधे जनादेश का मजाक होता है। और यही मजाक अब बीजेपी ने महाराष्ट्र में किया है।
विचार की राजनीति को तिलांजलि देते हुए हेजमनी (एकाधिकार) कायम करने निकली मोदी शाह की बीजेपी एक ही लक्ष्य के साथ आगे बढ़ रही है कि देश में न तो कोई दूसरा दल होनी चाहिए और न ही दूसरी सरकार। अगर वे अपने वैचारिक अभियान के जरिए ऐसा करने की कोशिश करते तो इस पर सवाल उठाने की जरूरत नहीं थी। लेकिन विचार की राजनीति को जब सत्ता के सौदागर छू लेते हैं तो उसे व्यभिचार की राजनीति में तब्दील कर देते हैं। तब एकमात्र ध्येय सत्ता होती है और उसके लिए किसी भी व्यक्ति ही नहीं किसी भी विचार से समझौता किया जा सकता है। अगर आपको लगता है कि यह महज राजनीतिक फायदे के लिए होता है, तो आप गलत हैं। सत्ता तंत्र के पीछे व्यापार और अपराध का एक ऐसा संगठित तंत्र काम करता है जो किसी भी कीमत पर सत्ता को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। सत्ता के असली सौदागर यही होते हैं जो राजनीतिक दलों के जरिए अपनी जीत सुनिश्चित करते हैं। कोई भी दल ऐसा नहीं है जो इन सौदागरों की पहुंच से दूर हो। लेकिन फिलहाल महाराष्ट्र में शरद पवार से भी समर्थन ले लेने की मजबूरी यह साबित करती है कि मोदी शाह की बीजेपी वह बीजेपी नहीं है जिसे अटल आडवाणी की बीजेपी कहा जा सके। पता नहीं, इस कदम से राष्ट्रवादी विचारधारा भ्रष्ट हुई है कि भ्रष्ट राष्ट्रवादी हो गये हैं। लेकिन इतना तो तय हो गया है कि मोदी शाह ने जिस गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया था उस नारे के ठीक उलट जाते हुए बीजेपी को ही सुपर कांग्रेस बना दिया है।
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