दुनिया को देखने का यह नया हिन्दूवादी नजरिया
है। आप चाहें तो इसे प्रगतिशील हिन्दुत्व भी कह सकते हैं जो परंपरागत
हिन्दुत्व की जड़ से नयी कोंपल लिए बाहर निकलने को बेताब है। हिन्दुत्व का
नया नया प्रोग्रेसिव नजरिया बाजार के आधार पर अपनी प्रासंगिकता तलाशते हुए
आगे बढ़ रहा है। विश्व हिन्दू कांग्रेस इसी प्रगतिशील हिन्दुत्व का नया
नमूना है। दिल्ली के पांच सितारा अशोक होटल में 21 से 23 नवंबर तक दुनिया
के 1500 से अधिक हिन्दू इकट्ठा होकर धर्म के विविध आयामों का पारायण
करेंगे। इस पारायण से कौन सा पुराण निकलेगा यह तो वक्त बतायेगा लेकिन आयोजन
को लेकर आशावाद अपने चरम पर है। धर्म अर्थ काम और मोक्ष के चतुष्टय को
जाननेवाले हिन्दू समाज के सामने एक नया चतुष्टय प्रस्तुत किया जा रहा है।
वह मानेगा या मना कर देगा यह भी आयोजन नहीं वक्त बतायेगा लेकिन इस
हिन्दुवाई के नव चतुष्टय को समझना जरूरी है।
विश्व हिन्दू कांग्रेस का आयोजन दिल्ली में हो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। दिल्ली में एक ऐसी पार्टी की सरकार बन चुकी है जो अपने आपको हिन्दू धर्म का प्रतिनिधि दल मानता है। है या नहीं है इस पर बहस अपनी जगह लेकिन राजनीतिक हिन्दुत्व का जो उभार बीते दो दशकों में हुआ है उसके लहर पर सवार यह दल और इस दल को नियंत्रित करनेवाले वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक हिन्दू निष्ठा पर शक नहीं किया जा सकता। सरकार बनने के बाद इस निष्ठा ने नये आयाम तलाशने शुरू कर दिये और विश्व हिन्दू कांग्रेस नये आयाम की इसी तलाश का परिणाम है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्थापित विश्व हिन्दू परिषद को बने पचास साल हो गये। देश दुनिया में जगह जगह हिन्दू शक्ति के उभार के जलसे चल भी रहे हैं, लेकिन जरूरी यह था कि दिल्ली में कुछ ऐसा आयोजन किया जाता जो विश्व हिन्दू परिषद के वैश्विक उपस्थिति का अहसास करा देता। विश्व हिन्दू कांग्रेस विश्व हिन्दू परिषद के उसी ग्लोबल फुटप्रिंट को अहसास कराने का आयोजन है।
इसलिए आयोजन से जुड़ी जो जानकारियां दी जा रही हैं उसमें सिर्फ यह नहीं बताया जा रहा है कि दुनिया के कितने देशों से कितने बुद्धिजीवी, विचारक या उद्योगपति पधार रहे हैं बल्कि यह भी बताया जा रहा है कि दुनिया के कितने देशों से कितनी संस्थाएं इस आयोजन की सहभागी हैं। विश्व हिन्दू परिषद के ही सचिव स्वामी विज्ञानानंद इस पूरे आयोजन की देखभाल कर रहे हैं और अमेरिका, कनाडा, आष्ट्रेलिया, केन्या सहित दुनिया के एक दर्जन देशों से 171 संगठनों को इस आयोजन का साझीदार बनाया गया है। आयोजन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सभी बड़े नेताओं का प्रमुखता से उपस्थिति रहेगी और आयोजन को सफल बनाने के लिए संघ और विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता दिन रात मेहनत कर रहे हैं। तो फिर इस समूची मेहनत और कवायद का आखिरी लक्ष्य क्या है? क्या यह सिर्फ विश्व हिन्दू परिषद के स्वर्ण जयंती वर्ष को याद करने के लिए किया जा रहा है या फिर हिन्दुत्व से प्रगतिशील हो रहे हिन्दुत्व के इरादे कुछ और हैं?
इस पूरे आयोजन पर नजर पड़ते ही जो सबसे पहली बात समझ आती है वह यह कि संघ परिवार सनातन हिन्दू धर्म को नये माहौल के अनुसार परिभाषित करके उसकी जड़े सनातन हिन्दू धर्म से जोड़ना चाहता है। पुरुषार्थ चतुष्टय के सनातन सिद्धांत पर कायम सनातन हिन्दू धर्म का एक सिरा उस बाजार से जोड़ने की कोशिश है जिसके बल पर ईसाई अपने आपको आधुनिक सभ्यता का संवाहक मान बैठे हैं। वह सिरा कुछ और नहीं बल्कि वही बाजार है जो समाज और धर्म दोनों को नियंत्रित करता है। इसलिए अगर आप इस आयोजन के आयोजकों पर नजर दौड़ाएंगे तो आपको प्रायोजक भी नजर आयेंगे जिन्हें यह भरोसा दिया गया है कि अगर वे इस आयोजन का प्रायोजन करेंगे तो उन्हें एक बेहतर संभावनाओं वाला बाजार मौजूद कराया जाएगा। इसलिए 171 आयोजक ही नहीं 43 प्रायोजकों की लिस्ट भी सार्वजनिक रूप से सामने रखी गयी है और इन प्रायोजकों के विज्ञापन आयोजन स्थल पर जरूर दिखाये ही जाएंगे। बाजार की इतिश्री यहीं नहीं होती। तीन दिवसीय आयोजन में सबसे पहली बहस हिन्दू अर्थव्यवस्था को लेकर ही शुरू की जाएगी। हिन्दू अर्थव्यवस्था क्या होती है इस पर बहस करने की बजाय उन उद्योगपतियों को हिन्दू होने का अहसास कराकर हिन्दुवाई को मजबूत कर लिया जाएगा जो संयोग से हिन्दू धर्म में पैदा हो गये हैं और अपने क्षेत्र के सफल कारोबारी हैं। यही नजरिया बाकी दूसरी बहसों में बनाकर रखा जाएगा।
सनातन हिन्दू जीवन व्यवस्था क्या है, इस गढ़ने की जरूरत नहीं है। यह सनातन और अक्षुण्ण रूप से विद्यमान है। उसकी सिर्फ पहचान करने की जरूरत है। लेकिन ऐसे आयोजन उस सनातन हिन्दू व्यवस्था की पहचान भी कर पायेंगे इसमें संदेह है। पहले ही कदम से भटका हुए ऐसे आयोजन किसी धार्मिक संगठन को अपने सफल होने का अहसास तो करा सकते हैं लेकिन समूचे सनातन हिन्दू धर्म को कुछ उपलब्ध करा पायेंगे ऐसा लगता नहीं है क्योंकि जैसे ही आप संगठित होकर सोचने की शुरूआत करते हैं सनातन हिन्दू व्यवस्था पहले ही सिरे पर खारिज हो जाती है। संगठित व्यवस्था कभी सनातन नहीं हो सकती क्योंकि प्रकृति में सनातन वही है जो असंगठित है। जो नित निरंतर परिवर्तनशील है। विचार भी इससे अछूते नहीं है। तो क्या वैचारिक स्तर पर यह दावा किया जा सकता है कि एक खास किस्म के विचार को ही हिन्दू विचार कहकर स्थापित कर दिया तो हिन्दू व्यवस्था कायम हो जाएगी? यह ईसाई और इस्लाम की प्रतिक्रिया तो हो सकती है सनातन हिन्दू विचार कभी नहीं हो सकता।
लेकिन आयोजक यह करने जा रहे हैं। इस दावे के साथ कि वे हिन्दू युवा, हिन्दू महिला, हिन्दू मीडिया और हिन्दू शिक्षा की पहचान करेंगे। यह पहचान सिर्फ अपनी पहचान पाने का प्रयास होता तो शायद इस आयोजन पर कोई सवाल नहीं उठता लेकिन निष्पक्ष व्यवस्था को पक्षपाती पहचान तभी दी जाती है जब कोई निहित स्वार्थ काम कर रहा होता है। भारत को हिन्दुस्थान बनाने के आह्वान बताते हैं कि ऐसी पहचानों का एक निहित राजनीतिक स्वार्थ भी है। यह आयोजन ऐसे निहित राजनीतिक स्वार्थ की कांग्रेस तो बन सकता है विचार विमर्श का नैमिशारण्य नहीं हो सकता।
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