दिन में सुप्रीम कोर्ट के भीतर भारत सरकार के
एटॉर्नी जनरल जो कर आये थे, शाम को उसका डैमेज कन्ट्रोल रोकने के लिए वित्त
मंत्री अरुण जेटली को बाहर आना पड़ा। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में
काले धन पर सुनवाई कर रही खँडपीट के सामने अपना पक्ष रखते हुए एटार्नी जनरल
मुकुल रोहतगी ने वही लाचारगी व्यक्त कर दी जो कभी यूपीए सरकार के एटार्नी
जनरल किया करते थे। "हम नाम सार्वजनिक नहीं कर सकते मी लार्ड।" यहां हम का
मतलब केन्द्र सरकार से है। मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने सरकार
का जो पक्ष रखा वह तकनीकि तौर पर वही था जो इससे पहले यूपीए सरकार रखती आई
थी। इस तकनीकि पक्ष को थोड़ा तकनीकि पहलुओंं के साथ ही समझने की कोशिश करनी
होगी।
2011 से सुप्रीम कोर्ट वरिष्ठ अधिकवक्ता राम जेठमलानी की शिकायत पर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) बनाकर काले धन का पता लगाने की कोशिश कर रही है। सुप्रीम कोर्ट में जब जब केन्द्र सरकार से जवाब मांगा गया तत्कालीन यूपीए सरकार के प्रतिनिधि (एटार्नी जनरल) ने यही कहा कि नाम सार्वजनिक कर पाना संभव नहीं है। तत्कालीन केन्द्र सरकार का तर्क था कि इसमें मुख्य रूप से दो दिक्कत है। पहली दिक्कत यह है कि जिन देशोंं में भारत के लोगों का बेनामी या अवैध धन जमा है उनसे हम किस आधार पर सूचना मांगे। सूचना सिर्फ उसी व्यक्ति के बारे में मांगी जा सकती है जिसके बारे में भारत सरकार की एजंसियां कोई आर्थिक धोखाधड़ी की जांच कर रही होंं। जब अवैध या बेनामी धन रखनेवाले का नाम ही पता नहीं है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई किस आधार पर करें। अब अगर केन्द्र सरकार टैक्स हैवेन देशोंं में भारत का काला धन जमा करनेवालोंं का नाम पता पूछने जाए तो वहले से ऐसी संधियां हुई पड़ी हैं कि वे अपने यहां भारतीय मूल के लोगोंं के धन का बखान ही नहीं कर सकते। जाहिर है, केन्द्र सरकार के सामने यह दोहरी मुश्किल थी। यही मुश्किल आज भी है जिसका उल्लेख मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने किया।
मुकुल रोहतगी ने सीधे सपाट तौर पर अदालत से जो कहा उससे साफ संदेश गया कि सरकार विदेश में काला धन जमा करनेवालों का नाम सार्वजनिक नहीं कर सकती। शायद इसलिए शाम होते होते वरिष्ठ अधिवक्ता और वित्त मंत्री अरुण जेटली खुद बीमारी के बावजूद मीडिया के सामने आ गये। उन्होंंने जो स्पष्टीकरण दिया वह इतना उलझा हुआ है कि उससे कोई निष्कर्ष ही नहीं निकलता है। कहा तो उन्होंने भी वही जो मुकुल रोहतगी ने माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने कहा था लेकिन थोड़ा घुमा फिराकर। बकौल अरुण जेटली सरकार काला धन बाहर जमा करनेवालों का नाम तो सार्वजनिक करना चाहती है लेकिन इसके लिए कानूनी दिक्कते हैं। उन्होंंने उन कानूनी दिक्कतों का सिलसिलेवार विवरण तो नहीं दिया लेकिन ये कानूनी दिक्कतें वहीं हैं जिसके कारण एटार्नी जनरल सुप्रीम कोर्ट के सामने नाम न जाहिर कर पाने की मोदी सरकार की मजबूरी जता चुके थे। अरुण जेटली ने जर्मनी के लिंचेस्टर बैंक का उल्लेख करते हुए 1995 में जर्मनी के साथ की गई एक काराधान संधि का भी हवाला दिया जिसके तहत जर्मनी अपने यहां के खाताधारकोंं की गोपनीयता को साझा नहीं कर सकता। और क्योंकि वे सूचना साझा नहीं कर सकते इसलिए भारत सरकार अपनी तरफ से लोगों के नाम सार्वजनिक नहीं कर सकती। उनका तो नाम भी नहीं ले सकती जिनके खिलाफ कोई केस ही नहीं है। लेकिन जिनके खिलाफ केस है उनका नाम भी तब लेगी जब सारी कानूनी अड़चने खत्म हो जाएं। लेकिन जेटली ने सब नकारात्मक बात ही नहीं कही। उन्होंने राजनीतिक तौर पर कुछ सकारात्मक संदेश भी दिये।
काले धन पर अगर यूपीए सरकार की नीयत में खोट था तो एनडीए सरकार की मंशा भी कोई साफ नहीं है। जिन कानूनी अड़चनों और मजबूरियों की आड़ लेकर यूपीए सरकार अपना बचाव कर रही थी उन्हीं मजबूरियों का उल्लेख अब एनडीए सरकार कर रही है। काले धन के मुद्दे पर सरकार तो बदली लेकिन बदली हुई सरकार की नीयत नहीं बदली। अब कांग्रेस बीजेपी हो गयी है और बीजेपी ने कांग्रेस का रूप धारण कर लिया है।
मसलन, रेवेन्यू सेक्रेटरी की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय जांच समिति स्विटजरलैंड गयी थी। उसने वहां स्विस सरकार के वित्त और वाणिज्य विभागों से संपर्क किया और जानकारी हासिल करने के लिए रास्ता बनाने की कोशिश की। रास्ता बनाने में उसे सफलता भी मिली है। स्विस सरकार के प्रतिनिधि उन सौ लोगों के नाम देने की सहमति जताई है जिनके खिलाफ भारत में कोई न कोई वाणिज्यिक जांच पड़ताल चल रही है। इससे पहले इन्हीं लोगों के बारे में जानकारी देने से स्विस सरकार ने मना कर दिया था। इसके अलावा अरुण जेटली ने यह भी कहा कि भविष्य में सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए एक साझा सहमति पत्र तैयार करने की दिशा में बातचीत शुरू हो सके इसका प्रयास भी किया गया है। ये सारे प्रयास सरकार की नजर में सराहनीय उपलब्धि हैं। लेकिन क्या वास्तव में केन्द्र की मोदी सरकार के ये सारे प्रयास सराहनीय हैं?
शायद नहीं। काले धन पर सुप्रीम कोर्ट में केस दायर करनेवाले वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट के भीतर और बाहर सरकार के इस कदम को चोरी और सीनाजोरी करार दिया। राम जेठमलानी का कहना है कि यह सब ''सरकार का दोहरा चरित्र सामने ला रहा है।'' राम जेठमलानी का कहना है कि उनकी प्रधानमंत्री मोदी से कोई बात तो नहीं होती लेकिन इस बारे में उन्होंंने मोदी को पत्र लिखा है और उन्हें उनके जवाब का इंतजार है। जेठमलानी को पीएम मोदी का कार्यालय क्या जवाब देता है यह तो वक्त बतायेगा लेकिन एटार्नी जनरल और अरुण जेटली के विरोधाभाषी बयानों से यह तो साबित हो गया कि कालेधन पर इस सरकार का मन भी कोई बहुत साफ नहीं है। कुछ न कुछ ऐसा दबाव सरकारों पर रहता ही है कि वे चाहें तो भी उन लोगोंं के नाम तक सार्वजनिक नहीं कर सकती जिन्होंने देश की पूंजी विदेश के हवाले कर रखी है। वही दबाव यूपीए सरकार पर था और वही दबाव एनडीए सरकार पर है। वह दबाव पूंजीपतियों का है कि पूंजीपतियोंं के हित में की गई संधियों का, यह तो सिर्फ सरकार को पता होगा लेकिन जिस तरह से इस सरकार ने इस मामले में संधियों और कानूनी अड़चनों की लीपापोती की है उससे साफ है कि यह सरकार जब अभी नाम सार्वजनिक कर देने की स्थिति में नहीं आ पाई है तो काला धन वापस लाने से तो मीलों दूर हैं। तब तक जनता चाहे तो विदेश में जमा काले धन की उम्मीद छोड़कर अपनी जेब से बैंकों में धन जमा कराती रहे ताकि मोदी सरकार की जन धन योजना सफल हो और भारत के बैंकों के पास जन के धन से इतनी पूंजी इकट्ठा हो जाए कि अर्थव्यवस्था को थोड़ी और बेहतर बनाया जा सके।
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