हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए
अभी मतदान शुरू भी नहीं हुआ था कि चैनलोंं ने बताना शुरू कर दिया कि शाम
पांच बजे मतदान खत्म होने के उनके चैनल का विशेष इक्जिट पोल देखना न भूलें।
शाम पांच बजे? मतदान की अवधि तो शाम छह बजे तक थी और नियम यह है कि उस
वक्त तक अगर कोई लाइन में खड़ा है तो बिना उसके मतदान के पोलिंग बूथ बंद
नहीं किया जा सकता। शायद इसलिए चुनाव आयोग मतदान की आधिकारिक अवधि खत्म हो
जाने के बाद भी आधे घण्टे का मार्जिन रखता है। इसलिए अगर कोई न्यूज चैनल
अपना इक्जिट पोल दिखाना ही चाहता है तो वह साढ़े छह बजे के पहले दिखा ही
नहीं सकता था। तो फिर शाम को पांच बजे वाला प्रचार क्यों किया गया?
जाहिर है, बाजार का हथियार हो चुके न्यूज चैनलों ने झूठ बोला। कमोबेश हर उस चैनल ने पांच बजे की दुहाई दी जिसके झोले में कोई न कोई सर्वे एजंसी बैठी हुई थी। इधर मतदान शुरू हुआ और उधर सर्वे एजंसियोंं के लोग मैदान में मौजूद (अगर रहे हों तो) लोगों से पूछताछ करके अपनी रिपोर्ट तैयार करने लगे होंगे। निश्चित रूप से हर चैनल जानता रहा होगा कि वे साढ़े छह बजे के पहले कोई आंकलन प्रसारित नहीं कर सकते लेकिन पांच से साढ़े छह बजे के बीच का मार्जिन लेने की कोशिश कमोबेश हर चैनल ने की। जो लोकतंत्र के यज्ञ में मत की आहुति दे रहे थे हो सकता है उनके लिए यह डेढ़ घण्टे का मार्जिन कोई मायने न रखता हो लेकिन जो लोकतंत्र का कारोबार करते हैं उनके लिए एक मिनट में दस सेकेण्ड के छह स्लॉट होते हैं और हर स्लॉट की कीमत बाजार में मौजूद दर्शकों की मांग से तय होती है। दर्शकों से झूठ बोलकर हासिल किये गये डेढ़ घण्टे की मार्जिन में लोकतंत्र के पहरेदारों ने कितने स्लॉट बनाये होंगे और हर स्लॉट की क्या कीमत वसूली होगी यह उनका मार्केटिंग डिपार्टमेन्ट ही जानता होगा इतना तय है कि ये घण्टे डेढ़ घण्टे टीवी के भाग्य में रोज रोज नहीं आते इसलिए इतना झूठ चलता है कि आप अपने दर्शकों को डेढ़ घण्टा पहले से अपने पास बिठा लें और काउण्ट डाउन शुरू करके उनके नाम पर दस दस सेकेण्ड के प्लॉट काट दें।
टीवी के झूठ की बुनियाद ऐसे ही छोटे छोटे छद्म से भरा पड़ा है। जैसे जैसे टीवी मुख्यधारा की मीडिया का दर्जा हासिल करता गया है उसने अपने 'लाइव' और 'ब्रेकिंग' का हर संभव दोहन किया है। कुछ सेकेण्डों के हेर फेर से 'सबसे पहले' का दर्जा हासिल करने या फिर खो देनेवाले इस टीवी समाज में झूठ कब कहां कितना हिस्सा हासिल कर चुका है इसका आंकलन करने के लिए न तो हमारे पास मानसिकता है और न ही कोई मैकेनिज्म है। समाचार का टेलीवीजन समाज इस सच्चाई को जानता है इसलिए वह जब तब अपने फायदे के मुताबिक करामात करता रहता है। गढ्ढे से लेकर मंच तक लाइव का लिव-इन रिश्ता हो कि डेढ़ घण्टे का एहतियाती झूठ, टीवी समाज सब कुछ जानते हुए सबकुछ करता है। मतदान करनेवाली जनता भी उसके लिए वही मायने रखती है जो विकास का वादा करनेवाले नेता के लिए रखती है।
फिर भी हमारी व्याकुलता टीवी की इस व्यावसायिक छटपटाहट से ज्यादा उस आतुरता पर है जिसमें 'सबसे पहले' की जंग समय से पहले हो चली है। शाम साढ़े छह बजे तक अगर रोक है तो क्या ठीक साढ़े छह बजे ही मतदान का अवास्तविक आंकड़ा सामने रख देना सही हो सकता है? मतदान से मतगणना के बीच के अंतर को ये फौरी सर्वेक्षण पाटकर जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं? कि लोकतंत्र के नाम पर वे जो काम करके आये हैं उसका नतीजा यह है? अगर आपने टीवी की बहसों को देखा हो तो आप अंदाज लगा सकते हैं कि टेलीवीजन अपने सर्वेक्षण कंपनियों के अवास्तविक आंकड़ों को वास्तविक मानकर न सिर्फ जीत हार का ऐलान कर देते हैं बल्कि उन दलों के प्रतिनिधियों और अपने विशेषज्ञों के जरिए परिणामों पर चर्चा भी शुरू कर देते हैं। जो जीत रहा है तो उसके जीत के क्या कारण है और जो हार रहा है तो उसकी हार के लिए क्या कारण जिम्मेदार हैं। यह सब तब जबकि अभी मतदान खत्म ही हुआ है और मतपेटियां या मशीनें पोलिंग बूथ से बाहर भी नहीं जा पायी हैं।
सबसे पहले तो इन एक्जिट पोल की विश्वसनीयता हमेशा संदिग्ध रहती है। भारतीय मतदाता का बहुत सहज स्वभाव है कि अगर वह किसी पार्टी का कार्यकर्ता या सक्रिय सदस्य नहीं है तो वह यह सच कभी नहीं बताता कि आखिरकार उसने अपना वोट किसे दिया है। इसलिए अगर कोई सर्वेक्षण एजंसी यह दावा करती है कि उसके पास सटीक आंकड़े हैं तो बुनियादी तौर पर उसका दावा गलत ही होता है। फिर उन सभी सर्वेक्षणों की डाटा प्रोसेसिंग, गणना और विश्लेषण ऐसा काम है जिसे पूरी ताकत से भी किया जाए तो अच्छा खासा वक्त लगता है। इसके बाद भी इनके सटीक होने का दावा नहीं किया जा सकता। लेकिन यहीं पर मैदान में मौजूद सर्वेक्षण एजंसियां उसी माहौल के मुताबिक सट्टेबाजी वाली प्रक्रिया से अपना निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया अपनाती हैं जिसे बनाने के लिए उसी टीवी का जमकर इस्तेमाल किया गया होता है जिसके लिए ये एजंसियां सर्वेक्षण कर रही होती हैं। यह सब आपस में एक दूसरे से इतना घुला मिला है कि एक पूरा बिजनेस मॉडल बन चुका है।
और इस बिजनेस मॉडल में मतदान से मतगणना के बीच मनगड़ना की एक मनगढ़ंत विधा विकसित कर ली गई है जिसकी वैज्ञानिकता और प्रामाणिकता हमेशा से संदिग्ध रही है। हो सकता है इन सबके बीच कोई सर्वेक्षण एजंसी सटीक नतीजों का आंकलन करने में सक्षम हो फिर भी मतगणना से पूर्व टीवी और सर्वे एजंसियों की इस मनगणना पर भी रोक लगनी चाहिए। चैनलों के मुनाफाखोरी को एक मिनट के लिए माफ भी कर दें तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए यह बहुत खतरनाक है। ये मनगढंत गणनाएं अगर इसी तरह प्रभावी होती रहीं तो एक दिन लोगों के मन में लोकतंत्र के वे निकाय ही अप्रासंगिक हो जाएंगे जिनके जरिए भविष्य की भविष्यवाणी करने का कारोबार चल रहा है। एक्जिट पोल से नतीजोंं पर भले ही कोई फर्क न पड़ता हो लेकिन पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर फर्क जरूर पड़ता है।
No comments:
Post a Comment