अब तक भारत के प्रधानमंत्री किसी
राष्ट्राध्यक्ष की भाषा में उसका स्वागत करके चौंकाते रहे हैं, अबकी यह काम
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कर दिया। खबर है कि अपनी अमेरिका
यात्रा के अंतिम पड़ाव के रूप में ह्वाइट हाउस पहुंचे नरेन्द्र मोदी का
स्वागत गुजराती के 'केम छो' के साथ किया। नरेन्द्र मोदी ने यह जवाब तो नहीं
दिया कि वे कैसे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी मातृभाषा बोलकर हाल पूछनेवाले
राष्ट्रपति ओबामा को धन्यवाद जरूर दिया। उन्हें देना भी चाहिए। आज बराक
ओबामा जो हैं उसमें जितना महात्मा गांधी की फोटो और हनुमान जी की सीक्रेट
मूर्ति का योगदान है, नरेन्द्र मोदी के नरेन्द्र मोदी होने में उससे कम
योगदान ओबामा का नहीं है। बराक हुसैन ओबामा के जीवन में 2008 न होता तो
शायद नरेन्द्र मोदी के जीवन में 2014 न आता। दोनों के बीच बहुत गहरा
अंतरसंबंध है। लेकिन इसे समझने की शुरूआत 2014 से नहीं बल्कि 2008 से करनी
होगी।
इराक से लेकर अफगानिस्तान तक 'जस्टिस' को स्थापित करने के संकल्प के साथ अमेरिका पर शासन करनेवाले जार्ज डब्लू बुश जूनियर। अब्राहम लिंक की डेमोक्रेट पार्टी के ऐसे प्रशासक जिनकी पहचान बताने के लिए अमेरिका ने रिपब्लिकन के चुनाव चिन्ह गधे को बड़ी उदारता के साथ जार्ज बुश जूनियर के साथ जोड़ दिया था। इराक और अफगानिस्तान जस्टिस स्थापित करने के लोकतांत्रिक काम में विजयी होने के बाद भी जार्ज बुश जूनियर नाउम्मीद करनेवाले नेता हो गये थे। अमेरिका की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी का दबाव और सैन्य कार्रवाई पर बढ़ते खर्च के कारण अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश हो चला था। लेकिन अकेले यही समस्या नहीं थी जो अमेरिकी नागरिकों को परेशान कर रही थी। कर्जखोर अर्थव्यस्था के चक्रव्यूह में फंसकर चकनाचूर हुई निजी, पारिवारिक और सामाजिक संकट ने जार्ज बुश जूनियर के जस्टिस को ज्यादा तवज्जो नहीं दिया। अमेरिका को एक नये उम्मीद की जरूरत थी।
अमेरिका की वह उम्मीद बनकर आये बराक हुसैन ओबामा। उसी डेमोक्रेट पार्टी के उम्मीदवार जिसके जॉन कैरी 2004 में जार्ज बुश जूनियर से चुनाव हार गये थे। डेमोक्रेट्स 2008 में पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन को अपना दावेदार बनाना चाहते थे लेकिन ओबामा का उभार इतनी तेजी से हुआ कि हिलेरी हिल गईं और ओबामा आ गये। बहुत ही लच्छेदार भाषा में भाषण देनेवाले बराक ओबामा ने पहला दावा अपनी पार्टी के भीतर किया और वे विजयी रहे। अब उन्हें वही लच्छेदार भाषण पूरे अमेरिका को सुनाना था। उन्होंने सुनाया। अमेरिका ने ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने सुना और अमेरिका को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को लगा कि पूंजीवादी कर्जखोर अमेरिका में सचमुच उम्मीद की कोई नयी किरण आ गयी है जो उस खुशी की बात करता है जो भौतिक प्रगति से नहीं बल्कि आत्मिक शांति से जुड़ी हुई है। खाये अघाये बौराये और पगलाये अमेरिका के लिए बराक ओबामा से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता था? 'होप' ने अमेरिका के दरवाजे पर दस्तक दे दी थी।
बहुत ही सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि से आनेवाले बराक ओबामा ने अमेरिका जो 'होप' दिया था उसके लिए चेन्ज होना जरूरी था। यह 'चेन्ज' हो जाए इसके लिए वह अमेरिकी नागरिकों के मन में यह आत्मविश्वास भरना जरूरी था कि 'यस वी कैन'। अमेरिका में ताजा ताजा पसंद बने सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने ओबामा को सीधे लोगों तक पहुंचने का अकूत बल दे दिया। यह बराक ओबामा ही थे जिन्होंंने सबसे पहले सोशल मीडिया साइट्स और नये मीडिया माध्यमों का अपने चुनाव प्रचार के लिए जमकर इस्तेमाल किया दुनिया को इस नये 'होप' से परिचित भी करवाया। बराक ओबामा के प्रचार अभियान के संचालकों ने ओबामा को सचमुच अमेरिका की उम्मीद बनाकर सामने पेश कर दिया था जिसके बिना अमेरिका का कोई भविष्य नहीं हो सकता था। लेजर लाइट शो, आशापूर्ण और उम्मीदभरे भाषण, युद्धोन्माद का विरोध, पारिवारिक और आध्यात्मिक आनंद की दलीलें और बराक ओबामा की खनकती आवाज ने ऐसा जादुई शमां बांधा कि रिपब्लिकन का 'गधा' डेमोक्रेट्स के घर पर ही बंधा रह गया। वह लौटकर फिर रिपब्लिकन के दफ्तर नहीं आ पाया।
ओबामा के कार्यकाल में अभी आठ साल पूरे होने बाकी हैं कि वे जार्ज बुश जूनियर की बराबरी कर सकें लेकिन छह साल के अपने कार्यकाल में वे अमेरिका के लिए जार्ज बुश जूनियर हो चुके हैं। देश से लेकर विदेश तक अमेरिका उसी तरह जस्टिस का जमाखोर हो गया है जैसे आधी सदी के बीते इतिहास में रहा है। सीरिया से लेकर इराक, फिलिस्तीन और अफगानिस्तान तक बराक ओबामा जार्ज बुश जूनियर हो चुके हैं। उस वक्त भी अपना आंकलन यही था कि ओबामा की सारी दलीलें आखिरकार हवा हवाई साबित होंगी और अमेरिकी व्यवस्था के सामने वे बहुत बौने साबित हो जाएंगे। आज छह साल बाद सीरिया और इराक में अमेरिकी आतंकवाद की खेती और जस्टिस की फसल साबित करती है कि अकेला एक राष्ट्रपति अमेरिका की नीतियों को प्रभावित नहीं कर सकता। चुनाव जीतने के लिए लच्छेदार भाषणों और ओसामा के खिलाफ कार्रवाई ने भले ही बराक ओबामा को दो कार्यकाल सौंप दिये हों लेकिन ओबामा ने अमेरिका को वह सबकुछ सौंपा जिसका उन्होंने वादा किया था, इसका कोई लेखा जोखा सार्वजनिक रूप से सामने नहीं आया है। 2008 का तिलिस्म छह साल भी साबूत नहीं रह पाया है।
2008 में जैसी परिस्थितियां अमेरिका में, रिपब्लिकन्स के लिए, ओबामा के सामने थीं ठीक वैसी ही परिस्थितियां 2014 में भारत में, भारतीय जनता पार्टी के लिए, मोदी के सामने थीं। देश में होप हो जाने के लिए नरेन्द्र मोदी के सामने पहली चुनौती यही थी कि वे पार्टी के जॉन कैरियों (आडवाणी आदि) को किनारे करें। इसके लिए उनका पॉपुलर होना जरूरी था जो काम कुछ उसी तरह सोशल मीडिया के जरिए करवाया गया जैसे ओबामा के चुनावी रणनीतिकारों ने ओबामा के लिए किया था। पार्टी के भीतर अपनी पापुलरिटी का लाभ लेते हुए अब नरेन्द्र मोदी देश के लिए लाभदायक होने जा रहे थे। अत्याधुनिक तकनीकि, नियंत्रित फोटोग्राफी, संगठित प्रचारतंत्र और प्रबंधकों तथा रणनीतिकारों की एक समर्पित टीम ने कुछ उसी तरह से मोदी को भारत में एकमात्र विकल्प बना दिया जैसे 2008 में बराक ओबामा हो चले थे। भारत की परिस्थितियों में आप कांग्रेस को डेमोक्रेट हो चले थे जिन्होंने एक दशक के शासन में देश को डुबा दिया था। जूनियर गांधी जूनियर बुश की तरह 'डंकी' चुनाव चिन्ह अर्जित कर चुके थे जिनपर सिर्फ हंसा जा सकता था, नेतृत्व नहीं सौंपा जा सकता। और देश की विकराल आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक परिस्थितियों में सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा था जो चेन्ज ला सकता था। सिर्फ उसी से होप थी। वह कोई और नहीं बल्कि बल्कि भारत के 'होप' नरेन्द्र मोदी थे। जनता जानती थी कि वह यह कर सकती है, इसलिए उसने 'यस वी कैन' कर दिया।
ओबामा की तरह मोदी ने अपने दफ्तर में अभी छह साल पूरे नहीं किये हैं। अभी तो उनके छह महीने भी पूरे नहीं हुए इसलिए उनसे नाउम्मीद हो जाने का कोई कारण नजर नहीं आता। काम करने और किये हुए काम को दिखने में थोड़ा वक्त तो लगता ही है। ओबामा को अमेरिका ने आठ साल दिये तो मोदी भी अपने लिए दस साल तो मांग ही सकते हैं। लेकिन चार महीने के शुरूआती लक्षण यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि उम्मीदों की जिस लहर पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं वे लहरें पीछे छूट गई हैं। जो वर्तमान है वह उसी बड़ी पूंजी की तरफदारी करता है जिसके कारण मनमोहन सिंह के ऊपर कुछ न कर पाने का आरोप लगा। बड़ी पूंजी के कायदे में छोटे लोगों का हित कम अहित ज्यादा जुड़ा होता है। दुर्भाग्य से भारत छोटे लोगों का ही देश है। वैसे ही जैसे अमेरिका बड़े लोगोंं का। उन्हें जो चाहिए था, उसे देने का वादा करके ओबामा दे नहीं पाये। वे भी अमेरिका को वही दे रहे हैं जो जार्ज बुश जूनियर दे रहे थे। यहां भी नरेन्द्र मोदी ने जो वादे (गुजरात की तरह विकास) किये थे उसको पूरा करने की शुरूआत करने में अब तक तो नाकाम ही रहे हैं। आनेवाले एक दशक में उसकी ठीक से शुरूआत हो जाएगी यह कह पाना भी भारत जैसे देश के लिए थोड़ा सा कठिन काम है। तो क्या नरेन्द्र मोदी भी भारत के बराक ओबामा ही साबित होंगे जिसके तिलिस्म में रास्ता दिखानेवाली नहीं बल्कि चकाचौंध कर देनेवाली रोशनी है?
रात के अंधेरे चकाचौंध कर देनेवाली रोशनी से नहीं बल्कि निरंतर जलनेवाले प्रकाश से दूर होते हैं। दुर्भाग्य से ओबामा ने अमेरिका को वह ख्वाब दिखाया जिसे पूरा करने का सामर्थ्य अमेरिका में ही नहीं है। नरेन्द्र मोदी के साथ भी ऐसा ही है। उन्होंंने देश को कुछ ऐसे ख्वाब दिखा दिये हैं जिसे पूरा करने में यह देश ही सक्षम नहीं है। ऊपरी चमक दमक और चकाचौंध से भुलावे का एक ऊपरी भ्रम तो निर्मित हो सकता है लेकिन वास्तविक भारत की दशा में कोई बदलाव नहीं आ पायेगा। इससे अमेरिका या भारत को कोई बहुत फर्क पड़ जाएगा ऐसा भी नहीं है। हां, एक नुकसान जरूर होगा कि 'चेन्ज 'होप' या फिर 'अच्छे दिन' का नारा राजनीतिक रूप से 'गरीबी हटाओ' की तरह नकारा साबित करार दे दिये जाएंगे। फिर इन नारोंं पर किसी और नेता का चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा। अमेरिका में भी। भारत में भी। फिर दोनों नेता मिलने पर कितनी भी होपफुल संपादकीय क्यों न लिख दें।
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