ये दोनों भारत की नजर में कश्मीर के अलगाववादी
हैं लेकिन कुछ कश्मीरियों की नजर में कश्मीर आजादी के नायक। देखने का अपना
अपना नजरिया और दृष्टिकोण है लेकिन इन दोनों के बारे में एक बात पक्की है
कि दोनों ही अपने होने का सबूत देने के लिए किसी अवसर को नहीं चूकते हैं।
यासीन मलिक होंं कि सैयद अली शाह गिलानी। वे जानते हैं कि क्या बोलने से
उनकी अपनों की नजर में ''आजादी के नायक'' और दूसरों की नजर में
''अलगाववादी'' छवि बरकरार रहेगी। फिर मौका कोई भी हो। वे अपने होने का सबूत
देने से नहीं चूकते हैं। इस बार भी ऐसा ही हो गया जब पूरा जम्मू कश्मीर
बाढ़ की कशमकश में फंसा था तो इन दो 'नेताओं' ने अपने होने का सबूत पेश कर
दिया। पहला सबूत पेश किया यासीन मलिक ने। थोड़ा पत्थर से और थोड़ा जुबान
से। उन्हें कश्मीर में सेना नहीं चाहिए। राहत एवं बचाव कार्य के लिए भी
नहीं। लेकिन सैयद गिलानी तो उनसे भी आगे निकल गये। उन्हें सेना चाहिए लेकिन
भारत की नहीं, पाकिस्तान की।
आपदाग्रस्त कश्मीर में बाढ़ एक ऐसी आपदा बनकर आयी है जब बीते साठ सालों की आपदाएं सिमटकर झेलम के पानी में बहने लगी। खुद सैयद अली शाह गिलानी और यासीन मलिक भी इस बाढ़ के प्रकोप से बच नहीं पाये थे और उसी सेना और एनडीआरएफ के लोगों ने इनकी जान बचायी जिसे अब वे वहां से जाने के लिए कह रहे हैं। तो क्या सचमुच सैयद अली शाह गिलानी सेना और सहायता का ही विरोध कर रहे हैं या फिर झेलम के पानी में बहती जा रही उस राजनीति को रोकने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें गिलानी या फिर मलिक का अस्तित्व ही बह जाने का खतरा पैदा हो गया है?
कश्मीर की जमीनी हालात पर नजर डालें तो हाल फिलहाल में दो घटनाएं ऐसी हुई हैं जिसने कश्मीर के अलगाववादियों को लंबे समय बाद सांस लेने का मौका दिया है। पहली बड़ी घटना थी अफजल गुरू को फांसी और दूसरी घटना है बीजेपी को दिल्ली की सत्ता और नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बन जाना। अफजल गुरू की फांसी के बाद हालांकि भारत सरकार ने सख्ती से हालात को बिगड़ने से रोक लिया लेकिन जो हालात छह दशक से बिगड़े हों उसे दस बीस दिन के कर्फ्यू से न तो बनाया जा सकता है और न बिगाड़ा जा सकता है। तात्कालिक तौर पर जरूर कश्मीर शांत रहा लेकिन अलगगाववादियों के लिए इस फांसी ने खाद पानी का काम किया। कश्मीर में सुरक्षाबलों का जो विरोध दफन हो चुका था उसने छुटपुट तरीके से दोबारा वापसी करनी शुरू कर दी। इस बीच हुए आमचुनाव ने भले ही बीजेपी को अफजल गुरू को फांसी देने का मुद्दा न मिला हो लेकिन दिल्ली की गद्दी जरूर मिल गई और वह भी ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में जो 2002 में गुजरात का मुख्यमंत्री रह चुका है। इस दूसरी घटना के बाद अलगाववादी सुर तो नहीं लेकिन सीमा पर गोलीबारी और छुटपुट आतंकी वारदातें घाटी में जारी रहीं।
किसी जमीन पर अलगाववाद न एक दिन में आता है और न ही एक दिन में चला जाता है। हुर्रियत के पहाड़ पर अपनी अपनी गुफाओं में कैद हो चुके अलगाववादी नेताओं के अगुवा रहे चुके मीरवाइज उमर फारुख कमोबेश गैरहाजिर ही रहने लगे। पिता मीरवाइज मौलवी फारुख की हत्या के बाद बीस साल की उम्र में उन्होंने 23 समूहों वाले जिस हुर्रियत कांफ्रेस की स्थापना की थी उसको चलाये रखने की बजाय शायद उन्होंने कश्मीर की आवाम का मीरवाइज बने रहना ज्यादा मुनासिब समझा। बाकी अलगाववादी समूह अपने होने का सबूत देने के लिए भी साबुत नहीं बचे सिवाय यासीन मलिक और सैयद अली शाह गिलानी को छोड़कर। निश्चित रूप से गिलानी और मलिक कश्मीर में अतिरिक्त प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति हैं लेकिन उतना भी नहीं कि उनकी तकरीरों के बाद संगीने सनसनाने लगें। बची खुची कसर महबूबा मुफ्ती और ओमर अब्दुल्ला के नये नेतृत्व ने पूरी कर दी जो अलगाववादी और आजादी के बीच की कड़ी बनकर उभरे थे। नरेन्द्र मोदी की बीजेपी भी अब घाटी में इतनी अछूत न रही कि उसके नाम पर कश्मीरियत को खतरे में दिखाया जा सके। कभी हुर्रियत का हिस्सा रहे सज्जाद गनी लोन ने उसी बीजेपी से गठबंधन की पहल कर दी। जाहिर है ये घटनाक्रम कश्मीर में अलगाववाद को कमजोर कर रहे थे जिससे यासीन मलिक और गिलानी जैसे अलगाववाद के अवशेष भी कमजोर होने लगे थे।
लेकिन अप्रांसगिकता के बीच प्रासंगिक होने की कला ये दोनोंं जानते हैं। इसलिए कश्मीर में बाढ़ के लिए सेना द्वारा शुरू किये गये आपरेशन मेघ राहत में राहत पा लेने के बाद उन्होंने सेना और सहायता दोनों को निशाना बनाना शुरू कर दिया। और ये दोनों बिल्कुल अकेले होंगे ऐसा भी नहीं सोचना चाहिए। कश्मीर में एक वर्ग ऐसा मौजूद है जो भारतीय सेना से नफरत करता है। और नफरत भी ऐसी कि उन्हें सेना की सहानुभूति और सहायता भी नहीं चाहिए। लेकिन यह एक वर्ग ही है इसे पूरे कश्मीर की आवाज नहीं समझा जा सकता। उसी वर्ग के लोग जो यहां वहां सोशल मीडिया पर मौजूद हैं वे भी इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि भारत की सेना कश्मीर के जख्मों पर 'राहत' का नमक रगड़ने के लिए आये। लेकिन साथ ही साथ इस वर्ग की एक शिकायत यह भी है कि सेना और केन्द्रीय सहायता सिर्फ विशिष्ट लोगों के लिए है। उन्हें लगता है कि बाढ़ के इस प्रकोप को भारतीय मीडिया सेना की छवि सुधारने के लिए इस्तेमाल कर रही है। इसलिए इस वर्ग के लोग अपने अपने सोशल मीडिया समूहों पर यासीन मलिक को राहत कार्य करते हुए पहचानने की कोशिश भी कर रहे हैं ऐसे अनेकों उदाहरण भी दे रहे हैं कि कैसे सेना से ज्यादा स्थानीय लोगों ने बड़ी तादात में लोगों की जान बचायी है।
अपनी इन दलीलों से ये विशिष्ट कश्मीरी दो बातें साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। एक, सेना से ज्यादा स्थानीय लोग अपनी मदद खुद कर रहे हैं और दूसरा राहत के नाम पर सेना सिर्फ अपना पीआर ठीक कर रही है। ये इन विशिष्ट कश्मीरियों की विशिष्ट सोच है जो गाढ़े वक्त में भी कायम है। खुद कश्मीर को विशिष्ट राज्य होने की आदत हो गई है तो वहां के कुछ वाशिंदे अगर इस विशिष्ट सोच का शिकार हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं। शायद इसलिए आपदा की इस घड़ी में जब खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि उनकी तो सरकार ही बाढ़ में बढ़ गई, आनन फानन में आई सहायता में भी गैर बराबरी और भेदभाव की दुहाई दी जा रही है। स्थानीय लोगों की मेहनत के मुकाबले सेना की सहायता को कमतर बताने की कोशिश की जा रही है। यही ऐसे लोगों की राजनीति है। अगर उन्हें लगता है कि कश्मीर में सेना की सहायता सरकार की राजनीति है तो भी उन्हें मान लेना चाहिए कि संकट की इस घड़ी में दिल्ली द्वारा संचालित 'सहायता की राजनीति' उनकी असरहीन अलगाववादी राजनीति से बहुत उम्दा और सराहनीय है।
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