एक बार फिर केन्द्र सरकार के नियंत्रण वाली
तेल कंपनियों की तरफ से पेट्रोल और डीजल के दामों में आंशिक कटौती की घोषणा
कर दी गई। इस बार पेट्रोल की कीमतों में 91 पैसे और डीजल की कीमतों में 84
पैसे की कटौती की गई है। इस कटौती का अलग अलग राज्यों में अलग अलग असर
होगा क्योंकि पेट्रोलियम पर अलग अलग राज्य अलग से ड्यूटी भी लगाती हैं
इसलिए हर राज्य में कीमतों में अंतर दिखाई देता है। लेकिन लाभ तो सभी को
मिलेगा। बीते चार महीने में यह सातवां ऐसा मौका है जब पेट्रोल की कीमतों
में कटौती की गई है और दिल्ली में 73 रूपये तक पहुंच चुका पेट्रोल अब
दिल्ली में 63 रूपये लीटर के रेट पर उपलब्ध हो गया है। जाहिर है, चार महीने
के भीतर प्रति लीटर दस रूपये की यह बचत लोगों के लिए बड़ी राहत होगी। ऐसा
ही कुछ हाल डीजल का भी है। और 58 रूपये लीटर बिक रहा डीजल अब 51 रुपये लीटर
पर उपलब्ध है। लेकिन सवाल यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जारी कच्चे तेल
की कीमतों में गिरावट को देखते हुए यह वास्तविक कटौती है या फिर तेल
कंपनियां उतना फायदा ग्राहक तक नहीं पहुंचा रही है जितना फायदा उन्हें मिल
रहा है?
सबसे पहले तो यह समझने की जरूरत है कि सरकार ने कह दिया है कि अब तेल कंपनियां बाजार की कीमतों के मुताबिक कीमतें तय करेंगी। यानी अब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में चढ़ाव उतार के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं होगी। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर ऐसा समझना मुश्किल है। सारी बड़ी तेल कंपनियां सरकारी हैं और सीधे सरकार के नियंत्रण में ही काम करती हैं इसलिए उनके निर्णयों पर सरकार का दखल या अंकुश नहीं रहेगा यह सोच पाना भी मुश्किल रही है। यह कहना भी मुश्किल है कि सरकारी तेल कंपनियां किस दर पर तेल बेचकर घाटे में हैं और किस दर पर तेल बेचकर मुनाफे में, क्योंकि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में तेल की अर्थव्यवस्था एक तरफ है तो तेल की राजनीति दूसरी तरफ। जब किसी तेल कुएं से निकला कच्चा तेल रिफाइनरी से गुजरकर पेट्रोल पंप तक पहुंचता है तब तक उसके साथ इतनी चीजें जुड़ चुकी होती हैं कि आखिरी कीमत क्या हो, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।
लेकिन सामान्य तौर पर हम यह देखते हैं कि अगर अंततराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमतों में इजाफा होता है तो भारत में भी पेट्रोल कीमतों में बढ़ोत्तरी कर दी जाती है। अगर सरकार को लगता है कि इतनी बढ़ोत्तरी अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक होगी तो कई बार इस घाटे को सब्सिडी के जरिए भी पूरा कर देती है। लेकिन वर्तमान हालात में ऐसा नहीं है। वर्तमान समय में अरब, अमेरिका और रूस के बीच तेल का युद्ध चल रहा है जिसका नतीजा यह है कि दुनिया के वे देश फायदे में हैं जिनकी अर्थव्यवस्था तेल के आयात पर ही निर्भर करती है। सबसे बड़े तेल उत्पादक रूस को पछाड़कर अमेरिका जहां एक तरफ रूस के उभार को रोकना चाहता है वहीं तेल की कीमतों में कटौती करते हुए अरब अमेरिकी तेल कंपनियोंं का बैंड बाजा बजा रही हैं। अगर कच्चे तेल की कीमत 80 डॉलर से कम होता है तो अमेरिकी कंपनियों को घाटा पहुंचता है। इसलिए तेल उत्पादक अरब के देश योजनाबद्ध तरीके से तेल की कीमतों को नित नयी निचाई तक ले जा रहे हैं और बाजार के विश्लेषक कहते हैं कि यह गिरावट 50 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाए तो भी कोई आश्चर्य नहीं।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में जारी गिरावट के बावजूद सरकारी तेल कंपनियां उम्मीद के मुताबिक तेल की कीमतों में कटौती नहीं कर रही हैं और जितना फायदा जनता को पहुंचाना चाहिए उसका एक बड़ा हिस्सा खुद अपने पास रख रही हैं।
इन देशों की आपसी लड़ाई में अगर दुनिया के कमजोर और तेल आयातक देशों को फायदा पहुंचता है तो उनकी अर्थव्यवस्था जरूर मजबूत होगी। इस लिहाज से अगर हम भारत के बारे में देखें तो कच्चे तेल की उच्चतम कीमत और न्यूनतम कीमत पर आते हैं। 2011 से 2014 के इस दौर को समझने की कोशिश करते हैं। फरवरी 2011 से सितंबर 2014। इस दौरान अगर आप कच्चे तेल की कीमत देखें तो पायेंगे कि कीमत कमोबेश 100 डॉलर प्रति बैरेल के आसपास ही रही है। न्यूनतम हुआ तो 95 डॉलर और अधिकतम हुआ तो 120 डॉलर प्रति बैरल। लेकिन इस अधिकतम और न्यूनतम का औसत 100 डॉलर मानकर आगे बढ़ते हैं। इस समयसीमा के दौरान देश में पेट्रोल की कीमत देखें तो पायेंगे कि जैसे जैसे कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा हुआ है वैसे वैसे पेट्रोल की कीमत बढ़ती गयी है। दिसंबर 2010 में 55 रुपये प्रति लीटर वाला पेट्रोल फरवरी 2011 में जो 58 रूपये हुआ तो बढ़ते बढ़ते 73 रूपये तक पहुंच गया। इस समयसीमा के बीच अगर हम डॉलर और रूपये के विनिमय (एक्स्चेन्ज) को देखें तो इस दौरान डॉलर के विनिमय दर में भी बढोत्तरी हुई और एक डॉलर खरीदने के लिए फरवरी 2011 में 45 रूपया खर्च करने की जगह सितंबर 2014 में 60 रुपये खर्चने पड़ रहे थे।
जाहिर है, हम कच्चा तेल खरीदने के लिए न सिर्फ डॉलर में ज्यादा कीमत दे रहे थे बल्कि डॉलर के लिए ज्यादा रूपये भी अदा कर रहे थे। अब जबकि कच्चे तेल की कीमतें गिर रही हैं तब भी डॉलर का रेट बढ़ा हुआ है। तो एकबारगी को लग सकता है कि भले ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमत कम हो रही हो लेकिन मंहगे डॉलर के कारण हम कीमत तो ज्यादा ही अदा कर रहे हैं। यह बात भी सही है। लेकिन पूरी नहीं। रूपये डॉलर विनियम के हिसाब से ही हम कच्चे तेल की खरीदारी का हिसाब लगायें तो (1X45X100) फरवरी 2014 में एक बैरल कच्चा तेल खरीदने का खर्चा औसतन 4500 रुपया था। और भारत में पेट्रोल की औसत कीमत थी 58 रूपये। अब हम डॉलर के वर्तमान एक्स्चेन्ज रेट के मुताबिक 4200 रुपया (70 डॉलर प्रति बैरल) खर्च करके 1 बैरल तेल खरीद रहे हैं और पेट्रोल की बाजार में कीमत है 65 रुपये प्रति लीटर।
अब सवाल यह है कि अगर अंतराराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में उतार चढ़ाव से ही कीमतें तय होती हैं तो इस वक्त देश में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत फरवरी 2011 के दर से भी कम होनी चाहिए जबकि हम उस दर से भी छह रूपये ज्यादा अदा कर रहे हैं। अब आप अंदाज लगाइये पेट्रोल डीजल सस्ता हो रहा है या फिर सरकारी तेल कंपनियां सस्ते तेल पर मोटा मुनाफा कमा रही हैं और जितना फायदा जनता को मिलना चाहिए उतना नहीं दे रही हैं। मोदी सरकार कहती है कि वह कीमत घटा रही है जबकि हकीकत में वह पेट्रोल पर प्रति लीटर करीब 8 रूपया ज्यादा वसूल रही है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आइसिस की तेल कालाबाजारी और अमेरिका, रुस की एक दूसरे को कमजोर करने की रणनीति के कारण आनेवाले कुछ दिनों में कच्चे तेल की कीमतें 50 डॉलर तक पहुंच जाने की भविष्यवाणी हो रही है। अगर ऐसा होता है तो भारत की प्रति बैरल तेल की खरीदारी वर्तमान एक्स्चेन्ज रेट पर भी 3600 रूपये प्रति बैरल से अधिक नहीं बैठेगा। तो क्या हम उम्मीद करें कि तब देश के लोग 45-50 रुपये प्रति लीटर में पेट्रोल खरीद पायेंगे? सरकारी तेल कंपनियां जिस तरह से आने कौड़ी में तेल के दाम घटा रही हैं उसे देखकर तो नहीं लगता है कि वे तेल पूल के घाटे का फायदा ग्राहकों तक पहुंचने देंगी। जबकि अगर सरकार इस वक्त पेट्रोलियम पदार्थों को बाजार के साथ कदमताल करते हुए पचास रूपये के स्लैब में पहुंचा दे निश्चित रूप से घरेलू अर्थव्यवस्था को इसका सीधा लाभ मिलेगा और मंहगाई से निपटने में भी मदद मिलेगी।
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