कौन मूर्ख होगा जो वहां नहीं जाना चाहेगा जहां
से निकले 88 हजार छात्र दुनिया की व्यापारिक दुनिया पर राज कर रहे हों?
उद्योग, अर्थ, वित्त, तकनीकि, मीडिया, एनजीओ इस आधुनिक सभ्यता में लूटपाट
के जितने भी उपकरण है उन सबमें एक ही स्कूल से निकले 88 हजार लोग काम पर
लगे हों तो उस स्कूल का महत्व अपने आप बहुगुणा हो जाता है। जिस स्कूल के
अतीत में वारेन बफेट हों और भविष्य में कोई आदित्य मित्तल और अनिल अंबानी
तो बताने की जरूरत ही नहीं रहती कि उस स्कूल का महत्व क्योंकर होना चाहिए।
व्हार्टन ने जब अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में अपने पितरों के नाम के
सम्मान में जब इस स्कूल की नींव रखी होगी तब शायद उनके जेहन में भी वह सब
नहीं रहा होगा जो आज उस स्कूल के नाम पर हासिल हो रहा है।
जोसेफ व्हार्टन के पितर सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड से चलकर
भटकते हुए अमेरिका आये थे। अमेरिका में कमोबेश दस दशक बीत जाने के बाद भी
अमेरिकी व्यवस्था में शायद व्हार्टन फेमिली या उनके जैसे लोगों को वह स्थान
और हक हासिल नहीं हो सका था जो इंसानियत के नाते होना चाहिए था। यह भी हो
सकता है इंग्लैण्ड और यूरोप से थोक में जो जनसंख्या स्थानांतर अमेरिका हुआ
था उसमें व्हार्टन फेमिली को अपना रसूख कायम करने में एक शताब्दी लग गई।
इसलिए खुद जोसेफ की पढ़ाई लिखाई अपने ही कुनबे के स्कूल में हुई थी जो आज
जैसी व्यावसायिक बिल्कुल नहीं थी। शायद लोहे का कारोबार करते हुए व्हार्टन
को यह अहसास हुआ हो कि कम से कम उनके समुदाय के लिए व्यापार की समुचित
शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए इसलिए 1881 उन्होंने एक व्यावसायिक स्कूल की
शुरूआत की। व्हार्टन स्कूल दुनिया का पहला ऐसा बिजनेस स्कूल था जिसे किसी
विश्वविद्यालय ने मान्यता दी थी।अठारवीं सदी में पश्चिमी जगत जिस शिक्षा क्रांति को अंजाम दे रहा था उस दौर की कुछ क्रांतिकारी घटनाएं उन देशों में भी पहुंची थी जहां जहां बतौर उपनिवेशक वे मौजूद थे। उसी दौर में भारत में बने कुछ विश्वविद्यालय इसी शिक्षा क्रांति का परिणाम थे। लेकिन यूनिवर्सिटी आफ पेन्सिलवेनिया तो उस दौर में भी दशकों आगे दौड़ रहा था। शिक्षा के सभ्य समाज में किसी व्यापारिक स्कूल को अपनी मान्यता देना उस दौर में निहायत नीच कर्म रहा होगा। लेकिन पेन ने उस 'नीच कर्म' को करने से भी कोई गुरेज नहीं किया। अपने अधीन स्कूलों की स्थापना करके शिक्षा में क्रांति लाने का जो काम पेन ने शुरू किया था वह तो बाद में रोल मॉडल ही बन गया। इससे सीधे सीधे विश्वविद्यालय का ढांचागत खर्च बचता है और अपने डिग्री के खर्च पर वह अपना नाम दान देकर अपनी प्रतिष्ठा अर्जित कर लेता है। शिक्षा जगत के तत्कालीन सभ्य समाज में भले ही उस वक्त उसे "ज्वाइंट डिग्री प्रोग्राम" जैसी बाजारू भाषा प्रदान करके उसका महत्व कम करने की कोशिश की गई हो लेकिन आज वही प्रयोग दुनिया का आदर्श है। ऐसा आदर्श जिसे हर कोई हासिल कर लेना चाहता है।
पेन का ज्वाइंट डिग्री प्रोग्राम व्हार्टन जैसे स्वप्नद्रष्टाओं के लिए बेहतरीन अवसर था जो पूंजी के बल पर मान सम्मान हासिल करना चाहते थे। हो सकता है उस वक्त तक के यूरोपीय प्रभाववाले अमेरिका या फिर खुद यूरोप में व्यापार दोयम दर्जे का कारोबार रहा हो लेकिन भविष्य में अगर व्यापार अव्वल दर्जे का प्रोफेसन बना तो निश्चित रूप से इसके पीछे वे महत्वपूर्ण बदलाव रहे होंगे जिन्हें पेन जैसे विश्वविद्यालयों ने सबसे पहले मान्यता दी। इस मान्यता के दूरगामी प्रभाव हुए। बड़ा से बड़ा व्यापारी हो या कि पैसेवाला आदमी आखिर में वह पैसे से सम्मान ही खरीदने की ख्वाहिश रखता है। हो सकता है आज सुनने में यह थोड़ा अतिरेक लगे लेकिन तो भी कम से कम पूंजीवाला आदमी अपनी पूंजी का बेहतर भविष्य तो चाहता ही है। पूंजी का यह बेहतर भविष्य उसके अपने कारखाने में सुरक्षित नहीं होता है जहां मानव संसाधन का निर्माण करता है, बल्कि उस क्लासरूम में सुरक्षित होता है जहां मानव को ही संसाधन के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है।
अगर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में यह क्रांतिकारी बदलाव न आया होता तो विज्ञान कभी तकनीकि के रूप में परिवर्तित न हो पाता। तब हो सकता है हमारी आज की दुनिया वह न होती जिसमें हम जी रहे हैं लेकिन जैसे चर्च से मुक्ति ने यूरोप में नियंत्रित जनवाद की नींव डाली वैसे ही व्यावसायिक घरानों ने विज्ञान को परिवर्तित करते हुए उसे तकनीकि का स्वरूप दे दिया और अपने लिए व्यावसायिक संभावनाओं का दरावाजा खोल लिया। दोनों एक दूसरे के लिए बेहद जरूरी और एक दूसरे के पूरक हैं। यह सब कोई एक दिन एक महीने या एक साल में नहीं हुआ। दशकों लगे हैं। लेकिन दशकों की यह मेहनत बेकार बिल्कुल नहीं गई है। आज दुनिया में विज्ञान की पढ़ाई दूसरे नंबर की पढ़ाई हो गई तो इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि व्यावसायिक घरानों का वही प्रयोग है जो उन्होंने उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में जमकर किया और दुनियाभर के विश्वविद्यालयों को अपने प्रभुत्व में लेकर उन्हें यह समझाने में कामयाबी हासिल कर ली कि जो विश्वविद्यालय व्यापार नहीं सिखाता उसके होने का कोई मतलब नहीं है। उस वक्त का वैज्ञानिक नजरिया हमारे समय की तकनीकि में तब्दील हो गया तो इसके पीछे भी वही व्यावसायिक दिमाग है जो पूरी दुनिया को संचालित करने की ख्वाहिश रखता था।
अपनी वह ख्वाहिश पूरी करने में उसने दशकों विश्वविद्यालों में जो पूंजी निवेश किया उसका सुखद परिणाम उसे मिला भी है। दुनिया का कौन सा ऐसा विश्वविद्यालय है जो आंख उठाकर यह कह सके कि व्यवसाय की पढ़ाई दोयम दर्जे की है? व्यवसाय की पढ़ाई को लेकर आज हम सबके जेहन में अव्वल दर्जे वाला खयाल ही होता है। पूंजी, स्कालरशिप, प्रभाव और मोटी सैलेरी का ऐसा मायाजाल है कि कोई मूर्ख ही इस दुनिया में प्रवेश करने से कतरायेगा। भारत में व्यवसाय की ऐसे संगठित पढ़ाई की शुरूआत सत्तर के दशक में व्यवस्थित रूप से हुई जब देशभर में आईआईएम स्कूलों के स्थापना की शुरूआत की गई। इसके पीछे भी वही सोच काम कर रही थी जिसने कभी अमेरिका में व्यावसायिक स्कूलों को स्थापित करने के पीछे काम किया था। व्यावसायिक प्रबंधन के लिए जो व्यावसायिक अफसर चाहिए थे उनको पैदा करनेवाली फैक्ट्री वे विश्वविद्यालय नहीं हो सकते थे विज्ञान और कला का ब्ला ब्ला कर रहे थे। इसके लिए बिजनेस स्कूल की जरूरत थी। भारत के योजना आयोग की इस पहल को अमेरिका के ही एक विश्वविद्याल (यूनिवर्सिटी आफ कैलिफोर्निया) ने मदद की और 1961 में कलकत्ता में पहला बिजनेस स्कूल शुरू करवा दिया। जल्द ही फोर्ड फाउण्डेशन मैदान में आ गया और उसकी मदद से अहमदाबाद एक और बिजनेस स्कूल शुरू कर दिया। फिर तो मानों सिलसिला ही शुरू हो गया। आर्थिक नवाकाल ने व्यावसायिक प्रबंधकों की मांग इतनी तेज कर दी कि अब तक हम 13 आईआईएम के संचालक हो चुके हैं। एमबीए की डिग्री देनेवालों की संख्या तो हजारों में हैं।
व्यावसायिक शिक्षा के इस बढ़ते महत्व के पीछे व्यावसायिक घरानों और पूंजीवादी लोगों ने इतनी पूंजी लगाई कि यही मुख्यधारा की व्यावसायिक पढ़ाई नहीं हुई, मुख्यधारा की शिक्षा दीक्षा बन गई। बाकी सारी पढ़ाई लिखाई हर जोताई के बराबर कर दी गई। यह पूंजी का कमाल तो था ही लेकिन इसके मूल में वह संगठित सोच भी काम कर रही थी जो दुनिया में व्यावसायिक और आर्थिक केन्द्रीयकरण करना चाहते थे। अर्थ वित्त की दुनिया में जितनी ज्यादा समझ होगी उतना बड़े व्यावसायिक घरानों के लिए व्यापार करने में मुश्किल पैदा होती है। ठंडा का मतलब तो कोका कोला ही होना चाहिए। ठंडा मतलब दुनिया के ढेर सारे ठंडे पेय बने रह जाएंगे तो इसे किसी कोका कोला कंपनी की असफलता नहीं बल्कि किसी न किसी हार्वर्ड बिजनेस स्कूल या फिर व्हार्टन स्कूल की असफलता माना जाएगा जो अरबों रूपये की ग्रांट डकारकर भी दुनिया को ठंडा मतलब कोका कोला का फार्मूला नहीं दे पाते हैं।
फिर भी, हमारे नेता पनेता, व्यापारी व्यभिचारी किसी व्हार्टन स्कूल के दरवाजे पर दस्तक देने के लिए ऐसे अकुलाए रहते हैं मानों स्कूल का दरवाजा नहीं उनके मोक्ष का दरवाजा है। व्यापारी व्यभिचारी ऐसा करें तो उनकी बला से, ये नेता लोगों को इतनी अकुलहाट क्यों होती है? नेता का सम्मान किसी व्हार्टन स्कूल से बढ़ेगा या फिर उस पाठशाला से जिसे जनता की पाठशाला कहा जाता है? अमेरिका से बुलावा किसी नरेन्द्र मोदी को आये कि अरविन्द केजरीवाल को? ठगों के ऐसे समूह को संबोधित करके भी वे क्या हासिल कर लेंगे?