एक बार फिर साबित हो गया कि सचमुच भारतीय जनता
पार्टी एक लोकतांत्रिक पार्टी है। इतनी लोकतांत्रिक कि उसके तंत्र की
चिंता खुद उससे ज्यादा लोक और लोक प्रचारकों को होती है। गोवा में भारतीय
जनता पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और प्रदेश अध्यक्षों की दो दिवसीय
बैठक और संसदीय समिति की एक दिन की पूर्व नियोजित तफरी के मौके पर देश के
मीडिया जगत ने इतना आतंक फैलाया कि न जाने कितनों को 'नमो'निया हो गया। पल
पर हर पल की रिपोर्टिंग के सारे रिकार्ड टूटते बिखरते वह घड़ी भी आई जब
'टेबल सजने और एक और टेबल लगने' तक की जानकारी का आंखों देखा हाल सुनाया
गया, और तीन दिन की बैठक के बाद दो तीन मिनट के लिए पार्टी अध्यक्ष राजनाथ
सिंह सहोदरों सहित मीडिया से मुखातिब हुए।
राजनाथ सिंह के पास इतना समय तो नहीं था कि वे सैद्धांतिक बातों को मीडिया के सामने रखते क्योंकि उनका विशेष विमान गोवा से दिल्ली लाने के लिए पणजी एयरपोर्ट पर तैयार खड़ा था लेकिन उससे भी ज्यादा शायद वे जानते थे कि लोग क्या सुनना चाहते हैं, इसलिए वही बोला और चलते बने। अरुण जेटली, सुषमा स्वराज और अनंत कुमार की मौजूदगी में जो बोला वो कम से मीडियावालों के मुंह पर तमाचा था। राजनाथ सिंह ने निहायत संक्षेप में कहा कि लोकसभा चुनाव किसी भी राजनीतिक दल के लिए चुनौती होते हैं और इस बार हम विजय संकल्प लेकर आम चुनाव में उतरने जा रहे हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए पूरे चुनावी अभियान के संयोजन का काम गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपने का फैसला किया गया है। राजनाथ का आखिरी वाक्य था ''आज मैंने गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित किया है।" इसके बाद संक्षेप में उन्होंने एक वाक्य और जोड़ा कि फैसला सर्वसम्मति से लिया गया है।
राजनाथ सिंह सर्वसम्मति वाली बात सिर्फ बोल ही नहीं रहे थे बल्कि उसका प्रदर्शन भी कर रहे थे। नरेन्द्र मोदी के नाम की कोई ऐसी घोषणा हो जिस पर आडवाणी के विरोध की खबरें आ रही हों, और साथ में सुषमा स्वराज तथा अनंत कुमार खड़े बैठे नजर आयें तो जाहिर है, फैसला सर्वसम्मति से ही लिया गया होगा। लेकिन सर्वसम्मति से लिया गया फैसला क्या वही है जिसको लेकर मीडिया ने पिछले तीन दिनों से बवंडर मचा रखा था? क्या भाजपा ने वह किया है जो संघ और नरेन्द्र मोदी चाहते थे? शायद नहीं। पूरी भाजपा ने मिलकर सिर्फ मोदी को ही मूर्ख नहीं बनाया है बल्कि मीडिया को भी उसी केटेगरी में लाकर खड़ा कर दिया है।
तो, सबसे पहले यह जान लीजिए कि यह चुनाव अभियान समिति होती क्या है जिसके अध्यक्ष के रूप में नरेन्द्र मोदी की 'ताजपोशी' हुई है? यह चुनाव अभियान समिति कम से कम भाजपा के संविधान में किसी चिड़िया का कोई नाम नहीं है। भाजपा के संविधान में चुनाव से जुड़ी जिस समिति का जिक्र है उसका नाम है केन्द्रीय चुनाव समिति। अगर नरेन्द्र मोदी को इस केन्द्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष बनाया जाता तो कहा जा सकता था कि नरेन्द्र मोदी नामक तीरंदाज ने कोई तीर मार लिया है। क्योंकि ऐसा होने पर वे पार्टी के भीतर अध्यक्ष के समानांतर ताकतवर व्यक्ति हो जाते। यह केन्द्रीय चुनाव समिति ही वह व्यवस्था है जो सांसदों, विधायकों के टिकट के बंटवारे, और चुनाव अभियानों के संचालन को अंतिम रूप से स्वीकृति देती है। इसमें संसदीय समिति के सदस्यों के अलावा 8 अन्य सदस्य होते हैं जो चुनावी अभियान की समस्त गतिविधियों का संचालन करते हैं। पार्टी संविधान की जिस धारा 26 में इस केन्द्रीय चुनाव समिति का जिक्र किया गया है उसमें इस बात का जिक्र नही है कि इस केन्द्रीय चुनाव समिति का अध्यक्ष कौन होगा। इसलिए पदेन यह पद पार्टी अध्यक्ष के पास ही रहता है लेकिन ऐसी कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है कि यह पद पार्टी अध्यक्ष के पास ही रहे। संसदीय समिति अगर सामूहिक निर्णय लेकर यह संसंदीय समिति में ही किसी अन्य को दे दिया जाता है तो कम से कम भाजपा के संविधान में इसकी कोई मनाही नहीं है।
राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाते समय सहमति इसी बात पर बनी थी कि इस समिति की बागडोर किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में रहेगी जो संघ का विश्वसनीय व्यक्ति हो। केन्द्रीय चुनाव समिति के अध्यक्ष पद के लिए नरेन्द्र मोदी और नितिन गडकरी का नाम उसी समय से चल रहा था। अगर ऐसा होता तो सबसे अधिक घाटे में राजनाथ सिंह रहते। अध्यक्ष रहते हुए भी वे सिर्फ कुर्सी की शोभा बनकर रह जाते। लेकिन आखिरकार ऐसा हो नहीं पाया। आडवाणी के गोवा न जाने, सुषमा स्वराज के इस्तीफे की धमकी दे देने और न जाने ऐसी कितनी अनगिनत बातों और विरोधों के बीच पार्टी ने मोदी और मोदी समर्थकों को शांत करने के लिए पार्टी के भीतर एक नया रास्ता निकाल लिया। चुनाव अभियान समिति। कोई और पार्टी हो न हो लेकिन कम से कम भाजपा मोर्चों और समितियों का समुद्र है। दर्जनों समितियां और मोर्चे हैं जो आमतौर पर छुटभैये नेताओं को पद देकर खपाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसी समितियों और मोर्चों का पार्टी के संविधान के अनुसार कोई संवैधानिक अधिकार नहीं होता और उनका होना न होना पार्टी की संसदीय समिति के निर्णय पर निर्भर करता है।
इसलिए मोदी को भी जिस चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाकर मामले को रफा दफा किया गया है ऐसी समितियां पहले भी बनती रही हैं। प्रमोद महाजन भी कभी ऐसी ही प्रचार समिति के अध्यक्ष हुआ करते थे। अब मोदी के लिए इसी तरह की एक समिति बना दी गई है जो पार्टी के प्रचार प्रसार की व्यवस्था देखेगी। अब सवाल यह है कि अगर बात इतनी निरर्थक थी तो इतना हो हंगामा क्यों खड़ा किया गया? खुद लालकृष्ण आडवाणी गोवा क्यों नहीं गये? क्या वे ऐसी एक समिति का अध्यक्ष भी नरेन्द्र मोदी को नहीं बनने देना चाहते थे? उनका डर और दशा अपनी जगह। लेकिन भाजपा के इस निर्णय से मोदी से भी अधिक फायदे में राजनाथ सिंह रहे। एक तीर से उन्होंने कई शिकार किये। बतौर अध्यक्ष केन्द्रीय चुनाव समिति अपने पास रखने में तो कामयाब हो ही गये, संघ और मोदी दोनों को खुश करते हुए आडवाणी और सुषमा को भी नाराज होने से बचा लिया। और इस समिति का अध्यक्ष बनने से मोदी को क्या मिला? फेसबुक वाला ठेका तो पहले ही उनका प्रचार करनेवाली कंपनी को दिया जा चुका था, अब बाकी मीडिया और प्रचार वाला काम यह समिति करेगी। ध्यान रखिए, काम करेगी, निर्णय नहीं लेगी। तकनीकि तौर पर निर्णय केन्द्रीय चुनाव समिति और संसदीय बोर्ड ही लेगा जिस पर इस समिति को अमल करना होगा। फिलहाल उन समितियों में मोदी की हैसियत एक सदस्य से ज्यादा नहीं है।
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