इस्लामिक देश पाकिस्तान में आखिरकार 'कुफ्र'
कामयाब हुआ। वह कुफ्र जिसे दुनिया डेमोक्रेसी के नाम से जानती है। वह
पाकिस्तान भी, जो अपने आपको दारुल इस्लाम कहता है। दारुल इस्लाम के इस देश
में 'कुफ्र' की ऐसी कामयाबी बिल्कुल सीधी सपाट घोड़े पर सवार दनादन दौड़
लगाते हुए तो नहीं आई है। अटक अटक कर आई है। भटक भटक कर आई है। गिरते पड़ते
ही सही दारुल इस्लाम के देश में कुफ्र ने कामयाबी का झंडा गाड़ ही दिया।
'कुफ्र' की इस कामयाबी पर जीत का साफा भले ही मियां नवाज शरीफ के सिर बंधा हो लेकिन कामयाबी के लिए 'मिस्टर टेन परसेन्ट' भी कम जिम्मेदार नहीं है। पाकिस्तान में करीब नौ साल के फौजी शासन के बाद सितंबर 2007 में बेनजीर भुट्टो और नवाज शरीफ दोनों ने घोषणा की कि वे पाकिस्तान लौट रहे हैं। दोनों लौटे भी लेकिन जिस जम्हूरिय के लिए दोनों नेता पाकिस्तान लौटे थे, उस जम्हूरियत का एहकाम आने से पहले ही दिसंबर 2007 में बेनजीर भुट्टो कत्ल कर दी गईं। हालांकि इसके बाद भी फरवरी 2008 के जनरल असेम्बली इलेक्शन हुए लेकिन मियां नवाज शरीफ की पार्टी दूसरे नंबर पर रही। सरकार बेनजीर विहीन पीपीपी ने बनाई और नवाज शरीफ ने सरकार चलाने का पूरा समर्थन दिया। उस वक्त पाकिस्तान में पक्ष विपक्ष जैसी कोई बात नहीं थी। उस वक्त सबसे जरूरी था पाकिस्तान में लोकतंत्र को लौटा लाना। जो लोकतंत्र पाकिस्तान के लिए मजाक बनकर रह गया है, उस लोकंत्र पर लोगों का विश्वास और लोगों के विश्वास पर लोकतंत्र की नींव मजबूत करना था। हालांकि जल्दी ही नवाज शरीफ की पार्टी और पीपीपी के रास्ते जुदा हो गये और दोनों ने एक दूसरे पर धोखा देने का आरोप लगाना शुरू कर दिया लेकिन 'कुफ्र' का आगाज तो हो चुका था।
अक्टूबर 2008 में जरदारी राष्ट्रपति चुन लिये गये और राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने कई काम ऐसे किये जिसने पाकिस्तान में लोकतंत्र की नींव मजबूत की। अपने अतीत की छवि के उलट जरदारी ने सत्ता का विकेन्द्रीकरण शुरू किया और राष्ट्रपति के पास संग्रहित समस्त शक्तियों को कायदे के अनुसार संसद, मंत्रिमंडल और प्रधानमंत्री में वितरित करना शुरू कर दिया। उन्होंने कई ऐसे विधेयकों पर हस्ताक्षर किया जो सचमुच पाकिस्तान को लोकतांत्रिक बनाता था। मसलन, नवंबर 2009 में न सिर्फ उन्होंने राष्ट्रपति के पास सुरक्षित परमाणु शक्ति और उसको संभालनेवाली नेशनल कमाण्ड अथारिटी प्रधानमंत्री को सौंप दी बल्कि पाकिस्तानी संविधान का 18 संशोधन भी करवा दिया जिसने पाकिस्तानी राष्ट्रपति को लगभग शक्तिहीन कर दिया। इस संशोधन के बाद पाकिस्तानी राष्ट्रपति के पास से संसद भंग करने, सरकार को बर्खास्त करने और सैन्य प्रमुखों की नियुक्ति का एकाधिकार खत्म हो गया। न्यायपालिका को भी लोकंत्र में न्यायोचित दर्जा देने के लिए जरदारी ने संविधान के 19 वें संशोधन को मंजूरी दे दी जिसके बाद पाकिस्तान में चीफ जस्टिस की पोजीशन राष्ट्रपति के बराबर हो चली थी।
एक दिन वह बदलाव आयेगा। सभी लड़के और लड़कियां स्कूल जाएंगे। सब तरफ शांति होगी। (तालिबानी हमले का शिकार बनी मलाला युसुफजई का चुनाव के दिन दिया गया संदेश)
पाकिस्तान के जरदारी काल में यह कुछ ऐसे महत्वपूर्ण संशोधन थे जिन्होंने वहां लोकतंत्र में आस्था को मजबूत किया, सेना को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत लाया गया और न्यायपालिका को मजबूती मिली। पाकिस्तान में आग अगर नवाज शरीफ की पार्टी को सत्ता में वापस लौटने का मौका मिला है और उन्हें सत्ता से बेदखल करनेवाले मियां मुशर्ऱफ सलाखों के पीछे बैठें हैं तो उसके मूल में ऐसे उपाय ही हैं जो जरदारी काल में किये गये। यह बात दीगर है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत करनेवाली पीपीपी खुद अपने ही किये गये उपायों की शिकार हो गई, और पिछले असेम्बली इलेक्शन में 124 सीटें जीतनेवाली पीपीपी इस बार 33 सीटों पर सिमट गई है। लेकिन लोकतंत्र में हार जीत का यह खेल चलता रहता है। अगर लोकतांत्रिक प्रणाली मजबूत रहती है तो सत्ता और विपक्ष बदलते रहते हैं। जब प्रणाली ही कमजोर पड़ जाए तो न सत्ता बचती है और न ही विपक्ष। लेकिन पक्ष विपक्ष भी अगर निरंकुश हा जाएं तो तानाशाही को पैर पसारने का मौका मिल जाता है।
इसलिए पाकिस्तानी आम चुनाव को नवाज की जीत या फिर जरदारी की पार्टी के हार के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। पाकिस्तान के भीतर एक पार्टी की हार और दूसरे की जीत कोई मुद्दा हो सकता है लेकिन दुनिया के लिए उससे बड़ा मुद्दा यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र कामयाब हुआ है। इस्लामाबाद में तहिरुल कादरी की मांग के बाद चुनाव से पहले कार्यवाहक सरकार का गठन, ज्यूडिशियरी की सर्वोच्चता, पाकिस्तानी चुनाव आयोग द्वारा आमतौर पर 'शांतिपूर्ण मतदान' संपन्न करवाने की कवायद और जनरल कयानी द्वारा चुनाव को आंतरिक युद्ध घोषित कर लोकतंत्र को कामयाब करने की कोशिश कुछ ऐसे लक्षण हैं जो लंबे समय बाद पाकिस्तान में प्रकट हुए हैं। इसलिए भारत जैसे देशों के लिए नवाज की जीत और जरदारी की हार से ज्यादा महत्वपूर्ण उस लोकतंत्र की जीत है जिसे आतंक के तालिब न जाने कब से 'कुफ्र' घोषित किये बैठे हैं।
आज पाकिस्तान के जो हालात हैं, उन हालात में लोकतंत्र पाकिस्तान की जरूरत नहीं मजबूरी है। पाकिस्तान अपने निर्माण के पैंसठ छाछठ साल बाद ही सभ्यता के ऐसे मुहाने पर खड़ा नजर आता है जहां एक ओर आधुनिक दुनिया के साथ दो चार कदम आगे बढ़ने वाली कौम है तो दूसरी तरफ वह आवाम भी है जो अब तक धर्म और व्यवस्था के बीच अंतर नहीं कर पाई है। गहरे अर्थों में धर्म भी व्यवस्था ही है लेकिन वर्तमान समय में ऐसा संभव नहीं है। पाकिस्तान को इस्लामी व्यवस्था के आधार पर खड़ा करने का विरोध दुनिया में ही नहीं, खुद उनके अपने देश में दुनिया से ज्यादा हो रहा है। इस आम चुनाव में एक ओर जहां पाकिस्तान की कट्टरपंथी ताकतों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर चुनावों को बेमानी साबित करने की कोशिश की तो वहीं दूसरी ओर उसी पाकिस्तान की नयी पौध ने लोकतंत्र को धार्मिक या फिर सैनिक तानाशाही से बेहतर साबित कर दिखाया है। पाकिस्तानी के बाहर और भीतर रहनेवाली नौजवान फौज ने सोशल मीडिया के जरिए पाकिस्तान के जनरल असेम्बली इलेक्शन को जिस तरह हाथों हाथ लिया है, उससे यह संकेत भी मिलता है कि पाकिस्तान के भीतर बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो तबलीगी जमात बनकर नहीं जीना चाहती है। इस इलेक्शन में अगर 60 से 80 फीसदी के बीच वोटिंग हुई है तो जाहिर है जमातें कुछ भी कहें, जनता लोकतंत्र को कुफ्र नहीं मानती है। अब इस 'कुफ्र' के 'काफिरों' की जिम्मेदारी है कि वे आवाम की इस मेहर की मर्यादा बचाकर रखें।
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