सारे विवाद की जड़ यहां है एक फेसबुक पोस्ट में. फेसबुक उपभोक्ता विपिन चतुर्वेदी ने 7 अक्टूबर को वेद के हवाले से एक पोस्ट लिखी कि कोई पातकी गाय को मारता है तो उसके प्राण ले लो. पोस्ट तुफैल चतुर्वेदी को टैग की गयी. तुफैल चतुर्वेदी ने पांचजन्य में इसी हवाले से एक लेख लिख दिया. लेख के बाद इंडियन एक्सप्रेस ने खबर कर दी और सांप्रदायिकता का संकट पैदा हो गया.
हालांकि अथर्ववेद के जिस श्लोक का हवाला दिया गया है उसमें गाय के साथ घोड़े और सैनिक का भी जिक्र किया गया है कि इन तीनों की कोई हत्या करता है तो उसकी हत्या करने में हर्ज नहीं है. जिस दौर में ये श्लोक या ऋचाएं कही गयी होंगी उस दौर के लिहाज से कथन में गलत क्या है? आज भी अगर कोई देश की अर्थव्यवस्था और सैन्य व्यवस्था पर हमला करता है तो आप उसके साथ क्या करते हैं? समझनेवाली बात सिर्फ इतनी है कि उस वक्त और इस वक्त में फर्क है. कानून और व्यवस्था का फर्क. आज के दौर में जब आप एक घोषित नेशनस्टेट हैं तब किसी को यह अधिकार कैसे हो सकता है कि वह अपने किसी प्रिय की हत्या का बदला हत्यारे की हत्या से ले ले? फिर तो नेशनस्टेट का ही अस्तित्व खतरे में आ जाएगा.
वेद के दो भाग हैं. एक वह जो सत्य सनातन ईश्वर की मीमांसा से जुड़ा है और दूसरा वह जो जीवन यापन और समाज व्यवस्था से जुड़ा हुआ है. वह भाग जो मीमांसा है उस वेद में कुछ भी जोड़ने घटाने के लिए हमारे भीतर भी प्रज्ञा का वह प्रवाह होना जरूरी है जहां ज्ञान दर्शन हो जाता है. जबकि दूसरा हिस्सा ऐसा है जिसमें कालबाह्य कथनों को वर्तमान की जरूरतों के लिहाज से मान्य या अमान्य किया जा सकता है. मैं तो कहता हूं जोड़ा और घटाया भी जा सकता है. बस हमारा चिंतन सर्वशुद्ध होना चाहिए.
वेद कोई ऐसी आसमानी किताब नहीं हैं जिसे अंतिम मान लिया जाए. वेद अध्ययन और चिंतन की विशिष्ट परंपरा है जिसमें चिंतन का एक निरंतर प्रवाह है. वेद का उद्येश्य यह कभी नहीं हो सकता कि ज्ञान को सीमित कर दिया जाए. वह तो हमें चिंतन के लिए प्रेरित करता है. अगर वर्तमान का चिंतन वेद में शामिल नहीं होता तो वेद तो वैसे भी कालबाह्य हो जाएंगे. और जो कुछ कालबाह्य है वह कितना भी शुद्ध क्यों न हो उसकी स्वीकार्यता मनुष्य को चेतन नहीं करती बल्कि जड़ बना देती है.
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