कौन क्या बोल रहा है इसका महत्व इस बात से तय
होता है कि वह कहां से बोल रहा है। अगर बोलनेवाला बहुत ऊंचे से बोल रहा है
तो बोलने की बाकी विशेषताओं का विश्लेषण धरा रह जाता है और सिर्फ यह देखा
जाता है कि वह क्या बोल रहा है। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि वहां जहां खड़ा
होता है वहां उसको सुननेवालों को आकर्षित करने के लिए उसका पद और प्रतिष्ठा
पर्याप्त होती है इसलिए उसे बाकी किसी कला के इस्तेमाल की जरूरत नहीं रह
जाती है। लेकिन बोलने वाला ऐसे किसी ओहदे पर न हो तो बोलनेवाले को बहुत
तराजुओं पर तौला जाता है। उसका कथ्य। उसका कथानक। उसकी शैली। उसके शब्द।
उसके शरीर की भाव भंगिमा और सबसे आखिर में यह कि वह जो बोल रहा है, वह
कितना समयानुकूल है। राहुल गांधी के रामपुर और अलीगढ़ में दिये गये भाषणों
की बहुचर्चा के बीच अगर आप उन भाषणों के अंशमात्र भी स्रोता बन पायें होंगे
तो आपके लिए भी मुश्किल यही होगी कि राहुल के भाषण का आंकलन किस पैमाने पर
करें?
राहुल गांधी की ओहदेदारी ऊंची है, इसमें कोई शक नहीं हो सकता। वर्तमान समय में देश की सत्ताधीश कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष से पहलेवाले उपाध्यक्ष हैं। सोनिया गांधी अपनी घोषणा पर अडिग रहीं तो 2016 के बाद राहुल गांधी ही कांग्रेस के दस जनपथ हो जाएंगे। इसलिए आज वे जो बोल रहे हैं, एक ओहदे से बोल रहे हैं। और ओहदा भी कोई ऐसा वैसा नहीं। कांग्रेस का भावी कर्णधार। इसलिए उनके बोलने में हमें हमेशा यह ध्यान रखना होता है कि वे क्या बोल रहे हैं। कैसे बोल रहे हैं इसका आंकलन दूसरे नंबर पर आता है।
इस लिहाज से अगर बुधवार को राहुल गांधी की रामपुर और अलीगढ़ में दो संक्षिप्त रैलियों में दिये गये उनके भाषणों को परखें तो बातें उन्होंने बड़ी कहीं, लेकिन कहने का अंदाज ऐसा था कि वे बड़ी बातें भी छोटी ही लगीं। मसलन, दंगे हुए नहीं करवाये गये। अगर कांग्रेस का कर्णधार यह बात बोलता है तो राजनीतिक रूप से यह बड़ी बात है, लेकिन जब राहुल गांधी के मुंह से यह बात सुनाई पड़ती है तो बचकानी सी लगती है। वह शायद इसलिए कि बड़े ओहदेदार के बोलते समय हमारी मानसिकता बोलने में उस बड़पप्पन की खोज करती रहती है जो किसी व्यक्ति को नेता और नेतृत्व बना देता है।
राहुल गांधी के एक दशक की एक दशक की राजनीतिक ट्रेनिंग के बाद भी वे कमोबेश वहीं खड़े नजर आते हैं जहां से उन्होंने ट्रेनिंग लेने की शुरूआत की थी। ऐसे में एक दशक की यात्रा के बाद राहुल गांधी नेतृत्व हो गये हैं इस बात की संभावना कांग्रेस को भले ही दिखाई दे रही हो लेकिन फिलहाल अभी तो वे नेता होने की ही प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाये हैं।
राहुल गांधी के शुरूआती दिनों के भाषणों की अगर आपको याद हो तो आप आसानी से याद कर सकते हैं कि राहुल गांधी बहुत सीखनेवाली शैली में भाषण दिया करते थे। उनको सुनते हुए लगता था मानों वे कुछ सीखकर आये हैं और उनकी कोशिश होती थी कि जो सीखकर आयें हैं वह पूरा बोल पायें। इसलिए उनके भाषणों में नौसिखिएपन की वह हड़बड़ाहट साफ झलकती थी जो किसी भी नौसिखिए में होती ही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने यूपीवालों को मुंबई में भीख मांगने की नौबत न आने देने की जो दलील दी थी, उस दलील में जान थी लेकिन न तो उनके कहने का अंदाज ऐसा था कि उससे एक आम यूपीवाला अपने आपको जोड़ पाता और न ही यह नजर आया कि यह कहते हुए खुद राहुल गांधी उस दर्द को बहुत गहरे में समझ सकते हैं। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव तक उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की बन चुकी थी जिसके बारे में कांग्रेस बार बार कह रही थी अब वही देश का भविष्य होने जा रहे हैं। लेकिन आम आदमी के मन मष्तिष्क में खुद राहुल गांधी के भाषण कांग्रेसियों की इस दलील की चुगली कर देते थे।
कांग्रेस राहुल गांधी का प्रचार करे यह कांग्रेस और राहुल गांधी दोनों के लिए फायदे का सौदा है। लेकिन अगर कांग्रेस के प्रचार का जिम्मा राहुल गांधी को सौंप दिया गया तो कांग्रेस भी घाटे में रहेगी और राहुल गांधी भी। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी की राजनीतिक शिकस्त ने उन्हें राजनीतिक रूप से जितना महत्वहीन साबित कर दिया था, राहुल गांधी के एक वाक्य ने उनमें गजब की संभावना दिखा दी थी। यह एक वाक्य किसी रैली में नहीं बोला गया था बल्कि दिल्ली के दस जनपथ में पत्रकारों के सामने बोला गया था। बहन प्रियंका के साथ मीडिया से मिलने आये राहुल गांधी ने अपनी हार को स्वीकार कर लिया था। कांग्रेस की राजतिलक वाली राजनीति में राहुल गांधी द्वारा हार को स्वीकार करनेवाले इस एक वाक्य ने उन्हें एकदम से एक नयी संभावना से भरा नेता साबित कर दिया। अगर राहुल गांधी जनता के सामने आकर अपनी हार को स्वीकार नहीं करते तो वे कांग्रेस की उसी राजतिलक वाली राजनीति का हिस्सा हो जाते जिसका बोला गया हर वाक्य ब्रह्मवाक्य होता है और कांग्रेसी नेता उसे ही देश का भविष्य साबित करके अपनी राजनीतिक दुकानदारी करते हैं। राहुल गांधी ने शायद यहां कांग्रेसी रणनीतिकारों की वह सलाह नहीं मानी होगी जब राजकुमार से हार स्वीकार न करने का दबाव बनाया गया होगा। निश्चित रूप से वह राहुल गांधी का स्वविवेक रहा होगा, इसीलिए हार का वह स्वीकार कांग्रेस की जीत से भी बड़ा बना रहा था।
लेकिन शायद कांग्रेस की राजनीति में दस जनपथ के पास स्वविवेक से निर्णय लेने का बहुत कुछ अधिकार होता नहीं है। कांग्रेस का दस जनपथ अमेरिका के उस ह्वाइट हाउस की तरह है जहां राष्ट्रपति के नाम पर हर निर्णय लिये जाते हैं और शायद ही कोई निर्णय ऐसा हो जिसमें राष्ट्रपति पद पर बैठे व्यक्ति की अपनी मर्जी चलती हो। उसे वही कहना होता है जो अमेरिकी प्रशासन तंत्र उसे कहने के लिए कहता है। उसे वही करना होता है जो अमेरिकी प्रशासन तंत्र उसे करने के लिए कहता है। कांग्रेस में दस जनपथ की संप्रभु सत्ता भी कुछ ऐसी ही है। जो सर्वोपरि है वह न जाने कितने स्तंभों के सहारे ऊपर टिका हुआ है। उसे यह भी पता नहीं कि कौन सा स्तंभ कब कहां और कैसे उसको धराशायी कर देगा। आधार को कलश चाहिए तो कलश बिना आधार के वहां तक पहुंच ही नहीं पायेगा। इस तरह दोनों एक दूसरे के पूरक होकर रह जाते हैं।
राहुल गांधी भी इस पूरकता के अपवाद नहीं रह सकते। कांग्रेस का भविष्य अगर राहुल गांधी हैं तो राहुल गांधी का भविष्य भी कोई भारतीय जनता पार्टी नहीं है। आखिरकार उन्हें वही करना और कहना होगा जो कांग्रेस की राजनीतिक परंपरा और विरासत बन गई है। बताने की जरूरत नहीं कि इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को गांधी केन्द्रित करने के लिए जो नींव रखी उसकी परंपरा और विरासत क्या है। राहुल गांधी उसी विरासत के एक छोर पर खड़े हैं। इसलिए जैसे ही राहल गांधी एक स्वतंत्र नौजवान होते हैं, वे उसी तरह से व्यवहार करने लगते हैं जैसे उनके जैसा कोई नौजवान कर सकता है। लेकिन जैसे ही उनके कंधों पर कांग्रेस की राजनीतिक विरासत धर दी जाती है, राहुल गांधी धराशायी हो जाते हैं। अलीगढ़ और रामपुर की रैलियों में जब तक राहुल गांधी एक स्वतंत्र नौजवान की तरह बोलते रहे, तो जाहिर सी बात है वे सामान्य नौजवान की तरह ही बात करते रहे लेकिन जैसे ही उनके कंधों पर कांग्रेस की विरासत का बोझ आया और उन्होंने कांग्रेस सरकार की योजनाओं का महत्व समझाना शुरू किया वे फिसलकर फिसड्डी हो गये।
अलीगढ़ में अपने भाषण के दौरान उन्होंने जो राजनीतिक और विकास की बातें कहीं वह तो खबर इसलिए बनी क्योंकि बोलनेवाला ऊंचा ओहदेदार था, लेकिन जो खबर नहीं बनी उसे खबर बना दिया जाए तो? क्योंकि बोलनेवाला कैसे बोल रहा है, कम से कम राहुल गांधी को अभी यही कसौटी पूरी करना पूरी तरह से बाकी है। इसलिए अगर वे अपने भाषण के दौरान सबको खाना खिलाने की योजना का बखान करते हुए यह कहते हैं कि "नहीं, सुनो मैं आपको बताना चाह रहा हूं।" तो अचानक मुशर्ऱफ याद आने लगते हैं जो सैन्य तानाशाह से नेता बने तो बिल्कुल इसी शैली में बात करते थे कि जब बिजली की मोटर चलेगी, तो पानी निकलेगा। और जब पानी निकलेगा तो वह खेतों में जाएगा और फिर वे लोगों से पूछते थे कि खेतों में पानी जाने के बाद क्या होगा, यह आपको मालूम है न? अपनी सभा के दौरान हो सकता है राहुल गांधी ने बहुत सहज होने के लिए भाषण की मुशर्ऱफ शैली का इस्तेमाल किया हो लेकिन साफ दिख रहा था कि वे यह सब सिर्फ अपने आपको सहज बनाने के लिए कर रहे हैं। उन्हें यह फर्क शायद समझ में नहीं आया कि वे पार्टी वर्करों की मीटिंग नहीं बल्कि पार्टी द्वारा ही इकट्ठा की गई जन रैली को संबोधित कर रहे हैं।
इसलिए अगर उनके कहे को नेता का भाषण मान लें तो अखबारों में वही सारी अच्छी अच्छी रिपोर्टिंग पढ़ लें तो जरूर वे हमें भी भावी कर्णधार नजर आने लगेंगे। लेकिन अब जमाना अखबार और बयान का नहीं बल्कि टेलीवीजन और टेलिकास्ट का है। और इस युग में समूहगत रूप से झांसा देना नरेन्द्र मोदी और उनकी पीआर कंपनी तक के लिए संभव नहीं हो पा रहा है तो राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए कहां से संभव हो पायेगा। इसलिए अच्छा हो कि केन्द्र की कांग्रेस सरकार उन्हें अपना प्रचारक नियुक्त करने की बजाय अभी कुछ और वक्त सिर्फ सपनों का राजकुमार ही बने रहने दे। राहुल गांधी जिस अंदाज में यथार्थ का भाष्य करते हैं वह कांग्रेस के लिए इस टेलिकॉस्ट युग में घाटे का सौदा भी साबित हो सकता है। मुशर्ऱफ की योजनाएं और उपलब्धियां अगर पाकिस्तान को समझ में आ गई होतीं तो पाकिस्तान में आज नवाज शरीफ के पाकिस्तान मुस्लिम लीग की नहीं बल्कि मुशर्ऱफ के आल पाकिस्तान पीपुल्स लीग की सरकार होती।
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